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ब्लॉग चर्चा में आलोक पुराणिक का अगड़म-बगड़म

हमें फॉलो करें ब्लॉग चर्चा में आलोक पुराणिक का अगड़म-बगड़म

रवींद्र व्यास

, सोमवार, 18 अगस्त 2008 (18:56 IST)
WDWD
ब्लॉग की दुनिया फैल रही है। फल रही है, फूल रही है। खिल रही है, महक रही है। समाज से लेकर राजनीति, अर्थ से लेकर विज्ञान तक, खेल से लेकर रोमांच तक, काम से लेकर धाम तक, ज्योतिष से लेकर खगोल तक। रोग से लेकर राग तक और रंग से लेकर व्यंग्य तक भी। कई रंगतें हैं, कई तेवर। इसी दुनिया में एक तेवर व्यंग्य का भी है। व्यंग्यकार हैं आलोक पुराणिक और उनका ब्लॉग है- आलोक पुराणिक की अगड़म-बगड़म।

इनके व्यंग्य कई पत्र-पत्रिकाओं में छपते हैं। यहाँ भी वे उन्हीं तेवरों के साथ हैं। उनके व्यंग्यों में वक्रता है, मारकता है। ये कभी हँसाते हैं, कभी गुदगुदाते हैं और कभी तीखा कटाक्ष करते हुए सोचने पर भी विवश करते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि बात को कहने का अंदाज अनूठा है, इसीलिए ये पठनीय हैं। डॉलर माँगता है शीर्षक व्यंग्य का एक नमूना देखिए-

बच्चो, आज नए टॉपिक पर डिस्कशन करेंगे- पार्लियामेंट में नोट फॉर वोट पर जाँच शुरू हो गई है। इस मसले को सीरिसयली समझो। आपत्तिजनक बात है कि पार्लियामेंट में नोटों की गड्डी उछाली गईं- मैंने क्लास में पढ़ाई शुरू की।

  मोबाइल कंपनी से आवाज आएगी- अगर आप लश्कर-ए-तोइबा से हैं, तो 1 दबाइए, लश्कर ए झँगवी से हैं, तो 2 दबाइए, अगर मुजाहिदीन इंटरनेशनल से हैं, तो 3 दबाइए, तालिबान पाकिस्तान से हैं, तो 4 दबाइए, मेन मैनू के लिए जीरो दबाइए।      
इसमें आपत्तिजनक क्या है, अभी इंडिया इत्ता ग्लोबलाइज थोड़े ही हुआ है कि यहाँ डॉलर उछाले जाते। भारत है, यहाँ नोट ही उछाले जाएँगे। सरजी अब रेजगारी तो नहीं उछाली जा सकती, सदन में। सदन की गरिमा का भी ख्याल रखना होता है। रेजगारी उछलती देखकर मुझे एक पुराना गीत याद आ जाता है- राजा दिल माँगे चवन्नी उछालकर। अब माननीय सांसदों के लिए इस तरह के भाव न उठें, इसलिए नोटों की गड्डी ही उछाली गई।

है ना मजेदार। पठनीय भी, मारक भी। इसमें विषयों की कमी नहीं। कभी नेताओं पर व्यंग्य हैं तो कभी आईबी पर। कभी विज्ञापनों पर व्यंग्य हैं तो कभी किसी टीवी धारावाहिक के बहाने किसी समस्या पर व्यंग्य। यानी हर विषय पर नजर, अपनी खास कटाक्ष करने की शैली के साथ। शैली का नमूना देखना तो उनका व्यंग्य टेरर का मोबाइल सोल्यूशन शीर्षक से व्यंग्य उल्लेखनीय है। एक नजर डालिए-
हाँ, मैं खोसामा बोल रहा हूँ, सूरत में बम लगाना है।

मोबाइल कंपनी से यह जवाब होगा- जी कॉल करने के लिए आपका धन्यवाद। आपका दिन शुभ हो। आप प्लीज लाइन पर बने रहें, अभी हमारे दूसरे एक्जीक्यूटिव ओसामा, दाऊद इब्राहीम, खोटा शकील, मोटा वकील से बात कर रहे हैं। खोसामा मोबाइल लिए खड़ा रहेगा, पाँच मिनट बाद, वह चीखेगा- ओय बम लगाने का है वहाँ।

मोबाइल कंपनी से आवाज आएगी- अगर आप लश्कर-ए-तोइबा से हैं, तो 1 दबाइए, लश्कर ए झँगवी से हैं, तो 2 दबाइए, अगर मुजाहिदीन इंटरनेशनल से हैं, तो 3 दबाइए, तालिबान पाकिस्तान से हैं, तो 4 दबाइए, मेन मैनू के लिए जीरो दबाइए।

आपकी जानकारी के लिए शुक्रिया। लाइन पर होल्ड रखने के लिए मैं माफी चाहूँगी। अगर आप स्टॉक एक्सचेंज उड़ाना चाहते हैं, तो 1 दबाइए। हीरों का बाजार उड़ाना चाहते हैं, तो 2 दबाइए। अगर सूरत का साड़ी बाजार साफ करना है, तो 3 दबाइए। अहमदाबाद सब्जी मंडी साफ करनी है, तो 4 दबाइए।

आतंकवादी फ्रस्टेट होकर बम खुद पर ही फोड़ लेगा। इस तरह से हम बच जाएँगे। जाहिर है यह प्राणी आतंकवाद से उतना त्रस्त नहीं दिखता जितना मोबाइल कंपनियों के इस तरह से काम करने के थकाऊ-ऊबाऊ तौर-तरीकों से त्रस्त होगा। यह व्यंग्य भी है और एक कस्टमर की पीड़ा भी। यह पीड़ा ट्रैफिक जाम में पृथ्वीराज चौहान व्यंग्य में भी देखी जा सकती है। इसमें दिल्ली की बदहाल ट्रैफिक व्यवस्था पर मजेदार व्यंग्य है जिसमें कहा गया है कि यदि संयोगिता को भगाकर पृथ्वीराज दिल्ली के ट्रैफिक में हो तो उसकी क्या गत बने। उसकी सारी वीरता-गाथा धरी की धरी रह जाए।

इसके अलावा हव्वा का चश्मा, पप्पू कांट डांस बट व्हाई, रामराज में पीडब्ल्यूडी, संडे यूँ ही बाजार रचि राखा और आईबी ॐ फट हट जैसे व्यंग्य के जरिए आलोकजी ने अपनी ताकत और कौशल को बखूबी अभिव्यक्त किया है।
इन दिनों युवाओं में मोबाइल फोन का जबर्दस्त क्रेज है। उनकी नजर इस विषय को भी छूती है और इसमें उनका नजरिया दिलचस्प है। एक बानगी संडे यूँ ही एक टीचर की डायरी उर्फ मोबाइल के बहाने से -

एक छात्र ने पूछा है- सर आपका मोबाइल कौन सा है।
सिंपल सा, जिससे बात हो सके, एसएमएस हो सके।
मोबाइल ऐसा नहीं होना चाहिए, मोबाइल स्टाइल स्टेटमेंट होता है सर।
बच्चे अब स्टाइल स्टेटमेंट के बारे में समझा रहे हैं।
पहले आदमी स्टेटमेंट देते थे, अब मोबाइल स्टेटमेंट दे रहे हैं। पच्चीस हजार वाला, पचास हजार वाला। देखता हूँ- सिर्फ मोबाइल के मॉडलों पर दो घंटे निकाल सकते हैं, ये बच्चे। तेरा ऐसा वाला, उसका कैसा वाला।
स्टाइल स्टेटमेंट एक नया शब्द उभरा है। पिछले 5-7 सालों में ही इसका चलन कॉलेजों, यूनिवर्सिटियों में ज्यादा हुआ है।
मोबाइल से किसी व्यक्ति का स्टाइल तय होता है।

ये शैली और व्यंग्य हमारे बदलते समाज की बदलती प्रवृत्तियों पर ही तंज नहीं है बल्कि इन व्यंग्यों को समग्रता से पढ़ा जाए तो यह बात नोट की जा सकती है ये व्यंग्य हमारे देश के राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य का एक दिलचस्प जायजा है। ...और इसमें सिर्फ विवरण, तथ्य और आँकड़े नहीं हैं, इसमें एक तरह की प्रतिबद्धता है कि कैसे तीखे कटाक्ष के जरिए हमारे देश के वर्तमान हालातों का बखान किया जाए। इसमें कहीं हास्य है, कहीं करुणा, कहीं कटाक्ष है, कहीं रोना-धोना भी।
इस ब्लॉग पर आना देश का हँसते-हँसाते जायजा लेना भी है और व्यंग्य की दुनिया की एक दिलचस्प झलक पाना भी।
इसका पता ये रहा-
http://alokpuranik.com

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