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भूपेन हजारिका : संगीत के महान तपस्वी

हमें फॉलो करें भूपेन हजारिका : संगीत के महान तपस्वी

जयदीप कर्णिक

लता मंगेशकर अलंकरण समारोह (2001) में इंदौर आए भूपेन हजारिका ने यहां के संगीत प्रेमियों को भी अपनी आवाज से झंकृत कर दिया था। अभय प्रशाल में उन्हें सुनना जीवन के कभी न भूलने वाले सुखद अनुभवों में एक था। मैं भी उन श्रोताओं में शामिल था। अगले दिन में उनसे मिलने का सौभाग्य भी मुझे मिला और कुछ बातें भी हुई।

PTI
कुछ ही गायक हैं, जिनके गले से निकली आवाज उनकी अपनी, यानी उनकी दैहिक ध्वनि की अभिव्यक्ति न होकर अलौकिक स्वरों की गूंज प्रतीत होती है। 'भूपेनदा' ऐसे गायकों में से एक नहीं बल्कि प्रमुख हैं। भूपेनदा का नाम जहन में उभरते ही स्मृति बहुत पीछे बचपन में जाकर एक बहुत मधुर लोकगीत को खींचकर ले आती है 'जगाए जीवन तार, खोल रे सब दुबार हे-हे हय्या के राम राम।'

बहुत पहले दूरदर्शन पर एक धारावाहिक आता था 'लोहित किनारे।' ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे लोगों की लोकगाथाओं पर आधारित इस धारावाहिक की शुरुआत और आखिर में यह लोकगीत बजता था। बस, तभी से वह स्मृतियों में बस गया। यह संगीत का जादू है- वह भाषा आती नहीं, उसका भाव मालूम नहीं, लेकिन बस, यह गीत और उसकी धुन मन को मस्त और चित्त को आल्हादित कर देती है।

... और रविवार 18 फरवरी (2001) की शाम भूपेनदा ने स्मृतियों में बसे इस लोकगीत के एक-एक पल को जीवंत और सार्थक कर दिया। उन्हें देखना, उन्हें सुनना किसी दिव्य अनुभव से कम नहीं। उनकी पूरी शख्सियत महानता को परिभाषित कर रही थी। इतने ऊंचे ओहदे का फनकार और ऐसी सादगी! नजरें उन्हें बार-बार निहार रही थी। उनके दैदीप्यमान प्रभामंडल का ओज आत्मा के सूखे कंठ में रिस-रिसकर अद्भुत तृप्ति प्रदान कर रहा था।

भूपेनदा के स्वरों में निकले असमिया संत शंकरदेव के भक्तिपद ने आध्यात्मिक अनुभूति को चरम पर स्थापित कर दिया। वे भारत के सच्चे सांस्कृतिक दूत भी हैं। उन्होंने कहा कि भारत तो तीन 'क' के त्रिकोण में समाया हुआ है कश्मीर, कन्याकुमारी और कामरूप।

जब भूपेनदा की आवाज में पहले असमी और फिर बंगाली की शुरुआती पंक्तियों के बाद हिन्दी में स्वर गूंजे- 'विस्तार है अपार/ प्रजा दोनों पार/ करे हाहाकार/ निःशब्द सदा/ ...ओ गंगा तुम- ओ गंगा बहती हो क्यूं, तो ऐसा लगा कि हम इंदौर के अभय प्रशाल में नहीं बहुत दूर घनी, हरियाली से आच्छादित पहाड़ी पर बनी गहरी घाटी के शुरुआती छोर पर खड़े हों और ... अंदर घाटी में बहते एक वेगवान झरने की कलकल हमारे कानों में पहुँच रही हो।

कानों में पड़ती इस आवाज को सुनते हुए ही हम पहाड़ी के कोने पर खड़े-खड़े आंखें मीचकर लम्बी गहरी सांस लेते हैं और ईश्वर के उस अंश को क्षण भर के लिए छूने में सफल हो जाते हैं जिसे भूपेनदा ने अपनी संगीत तपस्या से संपूर्ण रूप में पा लिया है।

पचहत्तर वर्ष की उम्र में खराब स्वास्थ्य के बावजूद जिस शिद्दत से, जिस अपनत्व से भूपेनदा ने अपनी प्रस्तुति दी, वह आत्मा की उम्र और शरीर की उम्र के अंतर को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है।

लता अलंकरण समारोह में दरअसल भूपेनदा एक बहुत बड़ा, गंभीर और महत्वपूर्ण संदेश दे गए। यदि इस संदेश को संगीत-जगत सही मायनों में ग्राह्य करता है तो निःसंदेह एक बार फिर संगीत अपने सही मायनों और आत्मिक उच्चता को प्राप्त कर पाएगा।

भूपेनदा बोले पीछे सौ-पचास इलेक्ट्रिक गिटार बज रहे हों, बीस-पच्चीस ड्रम बजते हों तो मैं गा नहीं सकता। मुझे तो हल्का, प्रकृति का संगीत पसंद है। भूपेनदा की खरज भरी आवाज में श्रोता डूब जाते। वे भी कभी तो हारमोनियम छोड़कर ताली से तो कभी चुटकी से ठेका देकर गाते। उनके गीतों में साज केवल सहायक होते हैं।

अगले दिन (19 फरवरी 2001) को जब भूपेनदा से मिलने का सौभाग्य मिला तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। आत्मा ने दौड़ लगा दी उनसे मिलने के लिए। सच में आप जब किसी वास्तव में महान व्यक्ति से मिलते हैं तो आपके शरीर का रोम-रोम इसकी गवाही देता है। आत्मा प्रफुल्लित हो जाती है। अच्छे व्यक्तियों की पलभर की संगत भी आपके मन की मलीनता को धो डालती है।

महानता थोपने की नहीं महसूस करने की चीज है, यह भूपेनदा से चंद लम्हों की मुलाकात ने ही स्पष्ट कर दिया। उनकी सादगी और संगीत-प्रेम देखकर श्रद्धा और आस्था का सोता उमड़-उमड़ आया और मन उनके चरणों में बिछ गया।

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