Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

महात्मा की शक्ति-पूजा

हमें फॉलो करें महात्मा की शक्ति-पूजा
- उमरावसिंह चौधर
ND

गाँधी हमारे ऐसे गाथा-पुरुष हैं, जिनके विरोध का व्याकरण और असहमति का छंदशास्त्र बड़ा निराला था। दैवी गुण 'अभय' उनके रोम-रोम में रमा हुआ था। वे अद्भुत रणनीतिकार थे। उनकी बातचीत में रचनात्मक तेज और नैतिक सौंदर्य प्रकाशित होता था। उनके संबोधन में न उतावली होती थी, न उद्धवता। उनके प्रस्तुतीकरण या कहन की सरलता और विनम्रता पर दृढ़ता का पानी चढ़ा रहता था। सत्य और अहिंसा की सादी और सूक्ष्म लाठी मस्तिष्क में धारण कर वे भेदभाव, दासता और दमन के खिलाफ लड़ते और अड़ते रहे। न कभी सहमे और न भयभीत हुए। संभवतः इसीलिए मार्टिन लूथर किंग ने उनके 'सत्याग्रह' को 'युद्ध के नैतिक समतुल्य' की संज्ञा दी थी।

गाँधी किसी मजबूरी या कमजोरी का नाम नहीं है। उपनिषद की इस उक्ति में उनका अखंड विश्वास था कि 'बलहीन व्यक्ति अपनी आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।' वे सच्चे अर्थों में शक्ति के उपासक थे। उनके जीवनीकार रोम्यां रोलाँ के शब्दों में वे 'बिना क्रॉस के क्राइस्ट' और एक आदमी की सेना थे। न किसी को मारने और न किसी की मार खाने के वे पक्षधर थे। उनकी भौतिक शक्ति का स्रोत प्रकृति, आत्मा और परमात्मा थे। गाँधी भी मनुष्य थे। वे संपूर्ण रूप से निर्दोष नहीं रहे होंगे, लेकिन निर्बलता से उन्होंने कभी दोस्ती नहीं की। उनकी सिंह-गर्जना रही है कि 'हिंसा से अधिक दुर्बलता के खिलाफ लड़ना चाहिए। तब तक कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं हो सकता जब तक कि वह शक्तिशाली नहीं हो। चाहे फिर वह अच्छाई हो या बुराई।'
  गाँधी किसी मजबूरी या कमजोरी का नाम नहीं है। उपनिषद की इस उक्ति में उनका अखंड विश्वास था कि 'बलहीन व्यक्ति अपनी आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।' वे सच्चे अर्थों में शक्ति के उपासक थे।      


गाँधी-साहित्य को गंभीरता से खंगालने वाले हर व्यक्ति का, अनेक प्रसंगों में, गाँधी की शक्ति और दृढ़ता से साक्षात्कार होता है। गाँधी वाङ्मय, खंड 83, परिशिष्ट 16 में यह छपा है कि 9 अप्रैल 1946 को वायसराय वेवल ने गाँधी की मानसिक तैयारी के बारे में एक टिप्पणी की थी। वेवल ने कहा था कि विदा लेते समय मैंने उस बूढ़े धूर्त गाँधी को चेतावनी दी थी कि 'काँग्रेस आंदोलन की धमकी नहीं दे, क्योंकि भारत में अभी भी हजारों अँग्रेज सिपाही हैं और अगर ब्रिटिश लोगों को या उनकी संपत्ति को हानि पहुँची तो वे घोर मार-काट पर उतारू हो जाएँगे।' वेवल के ये शब्द सुनकर गाँधी विचलित नहीं हुए, केवल खीज और नाराजीभरी मुखमुद्रा में मुस्कुरा दिए। गाँधी आश्वस्त थे कि अँग्रेज सैनिकों ने यदि उत्पात किया तो भारतीय भाई-बहन उन्हें अच्छा सबक सिखा देंगे।

'ट्रांसफर ऑफ पॉवर' नामक विराट दस्तावेज के खंड सात, पृष्ठ 261-62 से यह स्पष्ट होता है कि गाँधी यह जानते और मानते थे कि भारत की समस्याएँ सुलझने से पहले प्रचंड रक्तपात हो सकता है। उस दशा में काँग्रेस भी मारकाट से दूर नहीं रह सकेगी। इस प्रसंग में गाँधी ने कहा था कि 'मैं काँग्रेस से केवल यह आशा करता हूँ कि वह उग्र मुसलमानों द्वारा तोड़फोड़ और मारकाट करने पर उनका मुकाबला सीधी लड़ाई से करे। वह आमने-सामने की खरी लड़ाई होगी। यह नहीं कि छिपकर मारा और भाग निकले।' इस पर ब्रिटिश संसदीय दल के सदस्य वुड्रो राइट की टिप्पणी थी कि 'गाँधी काँग्रेस से केवल यह आशा करते हैं कि वे (काँग्रेसी) मुस्लिम लीगियों से शानदार ढंग से लड़ें और एक के बदले में एक की ही जान लें; सौ-सौ जानें न लें, क्योंकि एक के बदले में सौ-सौ जानें लेना तो अँग्रेजी की आदत है।' (देखिए, गाँधी वाङ्मय, खंड 83, शीर्षक 475 परिशिष्ट 18)।

गाँधी ने अँग्रेजों को देश से निकालने के लिए 'अहिंसा' की शक्ति का भरपूर प्रयोग किया। लेकिन देश की प्रतिरक्षा तैयारी में अहिंसा की घुसपैठ या घालमेल के पैरोकार वे कभी नहीं रहे। पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर आक्रमण किए जाने पर 1947 में वहाँ भारतीय सेना भेजने के निर्णय की उन्होंने सराहना की और उसे स्वीकृति भी दी। उन्होंने जोर देकर कहा कि हर हालत में कश्मीर को आक्रमणकारियों से मुक्त कराया जाना चाहिए। गाँधी ने यह कभी नहीं कहा कि आजादी मिलने के बाद सेना विघटित कर देनी चाहिए।
(लेखक देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति हैं।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi