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यूरो अब जीरो बनने की राह पर

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राम यादव

, सोमवार, 14 नवंबर 2011 (17:56 IST)
'यूरो' 27 देशों वाले यूरोपीय संघ के इस समय 17 देशों तथा यूरोप के ही छह अन्य देशों की साझी मुद्रा है। आगामी पहली जनवरी को यूरो नोटों और यूरो-सेंट कहलाने वाले सिक्कों के विधिवत प्रचलन को 10 वर्ष हो जायेंगे। यूरो अपनाने के साथ ही 'यूरोजोन' के देशों ने अपनी पिछली राष्ट्रीय मुद्राओं को त्याग कर उन के सभी नोटों और सिक्कों को नष्ट कर दिया।

अमेरिकी डॉलर के बाद संसार भर के सभी केंद्रीय मुद्रा बैंकों की इस बीच यूरो ही दूसरी सबसे बड़ी रिजर्व मुद्रा भी है। लेकिन, विडंबना यह है कि अपने अस्तित्व के पहले दशक की ओर बढ़ते हुए उसके पैर बुरी तरह लड़खड़ा रहे हैं।

अंतरराष्ट्रीय आर्थिक और वित्तीय संकट के लगभग साथ ही, दो वर्ष पूर्व, यूरोप के दो दर्जन देशों की इस बहुप्रशंसित साझी मुद्रा पर भी संकट के बादल घिरने लगे। बादल तब और भी घनघोर हो चले, जब एक के बाद एक पोल खुलने लगी कि साझी मुद्रा वाले यूरोजोन में शामिल यूनान (ग्रीस), आयरलैंड, पुर्तगाल, स्पेन और इटली जैसे देश अपने बजट-घाटों के कारण कर्ज में इस बुरी तरह डूब गए हैं कि दीवालिया हो जाने के कगार पर पहुंच गए हैं। यूरोजोन के जर्मनी और फ्रांस जैसे बड़े व धाकड़ देशों का ऋणभार भी उस सीमारेखा से कहीं आगे बढ़ गया है, जो यूरोपीय मुद्रासंघ वाले समझौते में खींची गयी थी।

ऋणभार से सरकारें गिरीं : आयरलैंड को तो फिलहाल जैसे-तैसे बचा लिया गया, लेकिन यूनान और इटली की सरकारें ऋणभार से चरमरा कर गिर गयीं। ऐसे में यूरोपीय मीडिया खुल कर अटकलें लगा रहे हैं कि यूरोजोन विफल हो चला है। ब्रसेल्स स्थित यूरोपीय आयोग ने, जिसे यूरोपीय संघ की संघीय सरकार कहा जा सकता है, गत 6 नवंबर को गुहार लगाई, यूरोजोन को विफल होने से बचाना होगा।

यूरोपीय नेता और यूरोपीय आयोग चाहे जितना भरोसा दिलाएं, तथ्य यही है कि वित्तीय और आर्थिक संकट से निपटने की पिछले दो वर्षों से चल रही उनकी कोशिशों पर से यूरोपीय मुद्रासंघ और यूरोजोन में पैसा लगाने वाले बैंकों, अन्य वित्तीय संस्थानों तथा विदेशी सरकारों का विश्वास उठ गया है।

विश्वास इस कारण और भी उठने लगा है कि यूरोजोन की सरकारें उन गारंटियों व आश्वासनों से पीछे हटने लगी हैं, जो वे अतीत में देती रही हैं। उदाहरण के लिए, तोतारटंत की तरह बार-बार दुहराया जाता रहा है कि ऋणभार से दबे किसी भी देश को कर्जमाफी नहीं मिलेगी।

50 प्रतिशत अदायगी भूल जाएं : जबकि हो यह रहा है कि यूनानी सरकार के ऋणपत्र (बांड) खरीदने वाले देसी-विदेशी बैंकों आदि से अब कहा जा रहे है कि वे अपने ऋणों की कम से कम 50 प्रतिशत वापसी भूल जाएं। अपनी सरकार को 50 अरब यूरो देने वाले स्वयं यूनानी बैंक भी 25 अरब यूरो से हाथ धो बैठेंगे। इससे उनकी अपनी जमापूंजी भी लुट जाएगी। वे अपने कारोबार के लिए यूरोपीय केंद्रीय बैंक से भी कोई धन उधार नहीं ले सकेंगे, क्योंकि केंद्रीय बैंक अपने उधार की सुरक्षा चाहता है। इस सुरक्षा के लिए गिरवी के तौर पर यूनानी सरकार के बांड वह स्वीकार नहीं करता।

केवल एक करोड़ आठ लाख की जनसंख्या वाला यूनान कर्ज में इस बुरी तरह डूबा हुआ है कि कोई ठीक-ठीक नहीं जानता कि उसके उद्धार के लिए कितने उधार की जरूरत पड़ेगी। यूरोपीय आयोग का अनुमान है कि यह धनराशि 2012 और 2013 में उसके सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 200 प्रतिशत के बराबर पहुंच सकती है। 2010 में उसका सकल घरेलू उत्पाद 230 अरब 17 करोड़ यूरो था। यानी, यूनान को दीवालिया होने से बचाने की कीमत अगले दो वर्षों में बढ़कर 460 अरब यूरो से भी ऊपर जा सकती है।

जर्मनी और फ्रांस मालगाड़ी इंजन : इस चालू वर्ष 2011 में यूनान का ऋरणभार उसके सकल घरेलू उत्पाद के 163 प्रतिशत के बराबर है, जबकि यूरोपीय संघ की सदस्यता का एक प्रमुख नियम यह भी है कि किसी भी सदस्य देश का समग्र ऋणभार उसकी आर्थिक क्षमता, यानी सकल घरेलू उत्पाद के 60 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। यूनान का ऋणभार इस बीच यूरोपीय मुद्रासंघ के लिए इतना बड़ा बोझ बन गया है कि अपने आप को यूरोपीय मालगाड़ी का इंजन समझने वाले जर्मनी और फ्रांस गाड़ी से यूनानी मालडिब्बे को अलग कर देने की सोच रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि यूरोपीय मुद्रासंघ संबंधी समझौते में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि एक बार इस संघ का सदस्य बन जाने के बाद कोई देश उसे छोड़ भी सकता है या उसे निकाल बाहर भी किया जा सकता है। सोचा यही गया था कि ऐसी कोई नौबत आएगी ही नहीं।

'लघु यूरोजोन' : जर्मनी और फ्रांस की इस आपसी खुसुर-फुसुर से कि मुद्रासंघ के अनुशासन का पालन नहीं करने पर किसी देश को संघ से निकाला भी संभव होना चाहिए, व्यावसायिक बैंकों-जैसे वित्तीय संस्थान यूनान को ही नहीं, गिरती साख वाले अन्य यूरोपीय देशों को भी उधार देने से और भी कतराने लगे हैं। जर्मनी में चर्चा है कि यूरो को त्याग कर पुरानी राष्ट्रीय मुद्राओं को पुनर्जीवित करने से बेहतर है कि सुदृढ़ अर्थव्यवस्था वाले कुछ गिने- चुने देशों का एक 'लघु यूरोजोन' बनाया जाए।

जर्मन सरकार के प्रवक्ता ने हालांकि इस बात खंडन किया है कि जर्मनी यूरोजोन का आकार घटाना चाहता है, लेकिन यूरोपीय आयोग की एक महिला प्रवक्ता ने कहा कि यूरोजोन को छोटा करने से पूरे यूरोपीय संघ की आर्थिक क्षमता घटेगी। यानी, यूरोजोन का आकार घटाने की बातें पूरी तरह हवाबाजी नहीं हैं।

गत6 नवंबर को इटली ने वित्त बाज़ार से अगले एक साल के लिए पांच अरब यूरो के नए उधार लिए। ब्याजदर 6.1 प्रतिशत है। पिछले 14 वर्षों में सबसे अधिक। महीने भर पहले ही इटली को 3.6 प्रतिशत ब्याज पर पैसा मिल रहा था। एक ही महीने में उसकी साख इतनी गिर गई कि बैंकों ने ब्याजदर लगभग दुगुनी करदी। प्रश्न उठता है, दीवालिया होने के कगार पर खड़ा इटली भला कब तक इतनी ऊंची ब्याजदरों पर पैसा उधार लेता रहेगा?

इटली का हाल बेहाल : जर्मनी और फ्रांस के बाद इटली ही यूरोप की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। लेकिन, उसका हाल ऐसा बेहाल है कि मुख्य रूप से अपने पुराने उधारों और ब्याजों के भुगतान के लिए उसे अगले तीन वर्षों में 650 अरब यूरो के बराबर नए ऋणों की जुगाड़ करनी होगी। यदि उसे इसी तरह ऊंची ब्याजदरें चुकानी पड़ीं, तो अगले तीन वर्षों में उसे केवल ब्याज चुकाने पर ही अपने अब तक के अनुमान से 30 अरब यूरो अधिक जुटाने होंगे। यह उस धनराशि के आधे के बराबर है, जिसे अगले तीन वर्षों में भारी बजट-कटौती द्वारा बचाने का इटली ने यूरोपीय संघ और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष को वचन दिया है।

यूरोपीय संघ के दोनों इंजनों जर्मनी और फ्रांस का बजट घाटा भी कुलांचे मारता रहा है। यूरोपीय संघ के इस नियम का उल्लंघन करने के दोनो दोषी हैं कि बजट घाटे के कारण किसी देश का नया ऋण-जुगाड़ उस के सकल घरेलू उत्पाद के तीन प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। दोनो देश बजट-कटौतियों द्वारा बचत करने का भारी प्रयास कर रहे हैं, पर अपने बचत-लक्ष्य पूरी तरह प्राप्त नहीं कर पाते। स्पेन और पुर्तगाल पहले से ही डांवाडोल हैं। स्पेन में कुछ ही महीनों में संसदीय चुनाव होने वाले हैं, जबकि पुर्तगाल दीवालिया होने से बचने के लिए जी-जान से प्रयास कर रहा है।

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विकास की गाड़ी फिर से ठहरी : सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता ऋणभार ही मानो काफ़ी नहीं था, यूरोपीय मुद्रासंघ वाले देशों की अर्थव्यव्स्था में आयी वह आधी-पौनी विकासदर भी अब पिघलने लगी है, जो कुछ महीने पहले तक आशा की किरण बनी हुई थी। यूरोपीय संघ के मुद्रा-आयुक्त ओली रेन ने इन्हीं दिनों कहा, 'यूरोपीय संघ में आर्थिक विकास की गाड़ी फिर से ठहर गई है।' उनका कहना था कि 2012 में यूरो मुद्रा वाले देशों के साझे सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि की दर केवल आधा प्रतिशत रहेगी। यूनान और पुर्तगाल में मंदी के चलते वह इतनी भी नहीं होगी।

दो ही भावी परिदृश्य : कहने की आवश्यकता नहीं कि अर्थ और वित्त का हमेशा चोली-दामन का साथ होता है। ऐसे में वित्त-विशेषज्ञों का मत है कि केवल दो ही भावी परिदृश्य संभव हैं। एक तो यह कि यूरोजोन के सबसे दुर्बल सदस्य यूनान को यदि यूरो को त्यागना और अपनी पुरानी मुद्रा द्राख्मे की शरण में जाना पड़ा, तो यूरोजोन ताश के पत्तों की तरह ढह सकता है। इसे यदि रोकना है, तो बाक़ी बचे देशों को अपनी सारी राजनैतिक और आर्थिक शक्ति लगा कर फ्रांस, पुर्तगाल और उन अन्य देशों के बैंकों को डूबने से बचाना होगा, जिनका पैसा यूनानी त्रणपत्रों में धन लगाने के कारण डूब जाएगा। साथ ही, यह भी देखना होगा का स्पेन और इटली भी इस भंवर में फंस कर कहीं डूबने न लगें।

यह सब तभी हो सकता है, जब यूरोजोन वाले देशों के राजनेता लोटे से पानी पिलाने के बदले सीधे बाल्टी उड़ेलें। उन्हें स्पेन तथा पुर्तगाल जैसे दूसरे डगमग देशों को ऋण लौटाने से राहत देने वाला कोई बड़ा और साहसिक कार्यक्रम बनाना होगा। यूरोपीय केंद्रीय मुद्राबैंक को भी खुल कर सामने आना होगा। उसे स्पेन और इटली ही नहीं, शायद फ्रांस के भी सरकारी बांडों को भारी मात्रा में खरीदना होगा। इस में खतरा यह छिपा है कि तब यूरोपीय केंद्रीय बैंक को यूरो वाले नोटों की खूब छपाई करनी पड़ेगी, जिससे वह अब तक बचता रहा है।

सभी डूब सकते हैं : दूसरा परिदृश्य यह हो सकता है कि यूरोजोन के डगमग देशों को वित्त बाजार के भरोसे छोड़ दिया जाए। यानी, वे अनाप-शनाप ब्याज पर खुले बाजार से पैसा जुटाने की कोशिश करें। इस का परिणाम यही होगा कि जिसका कल या परसों दीवाला निकलता, उसका शायद आज ही दीवाला निकल जाएगा। फ्रांस जैसे देशों की साख भी इतनी गिर सकती है कि उन्हें बाजार में आसानी से पैसा न मिले। सरकारों ही नहीं, बैंकों को भी दूसरे बैंकों से उधार मिलना दूभर हो जाएगा। अंततः सारा यूरोपीय मुद्रा संघ इस भंवर में फंस कर उसी तरह डूब सकता है, जिस तरह 2008 में अमेरिका का नामी-गरामी लीमैन बैंक डूब गया। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष लंबे समय से इसी बात की चेतावनी देता रहा है। उसका मानना है कि यूरो मुद्रा-संकट ही इस समय विश्व अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ा खतरा है।

यूनान को बचाना डूब जाने देने से बेहतर : अधिकांश वित्त-विशेषज्ञ यही मानते हैं कि यूनान को किसी तरह बचाना उसे डूब जाने देने से बेहतर विकल्प है। यदि उसे डूब जाने दिया गया, तो उन देशों की सरकारों और व्यावसायिक बैंकों का वह पैसा भी डूब जाएगा, जो यूनान के उद्धार के लिए वे अब तक दे चुके हैं। व्यावसायिक बैंकों का पैसा डूबने से बहुत से बैंक स्वयं भी दीवालिया हो जाएंगे। जिन बैंकों का दीवाला पिटेगा, उनके खाताधारी ग्रहकों की सारी बचत भी डूब जाएगी। इससे व्यापक जन-असंतोष, बेरोजगारी और आर्थिक मंदी पैदा होगी। इसलिए, फिलहाल सारी कोशिश यही है कि यूनान के प्रति सारी नाराजगी और रोष के बावजूद उसे किसी तरह बचा लिया जाए। वह बच गया, तो यूरोप की साझी मुद्रा यूरो का भी उद्धार हो जाएगा।

जर्मनी की निर्णायक भूमिका : यूनान को और अधिक उधार देकर उसके उद्धार-अभियान को सफल बनाने में यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी की सबसे निर्णायक भूमिका होगी। लेकिन, जर्मनी का जनमत और मीडिया यूनान को ऐसा 'दीवालिया,' 'धोखेबाज' और 'कर्जखोर' देश मानता है, जिसे बचाने का प्रयास बचकाना प्रयास ही सिद्ध होगा। स्वाभाविक ही है कि यूनानी जनता और वहां के मीडिया में इस तरह की टिप्पणियों को जर्मन 'संकीर्णता,' 'अहंकार' और 'बड़बोलेपन' के तौर पर देखा जाता है। यूनान का दीवालियापन वहां के मीडिया में चर्चा का सर्वोपरि विषय है।

स्पेन में जर्मनी की तीखी आलोचना : स्पेन के ऋण-संकट का पैनापन वहां सिर पर खड़े संसदीय चुनावों के काऱण कुछ कुंद जरूर हो गया है, पर जनमानस को उद्वेलित तो कर ही रहा है। वहां के मीडिया की टिप्पणियों में आशा की अपेक्षा निराशावाद अधिक झलकता है। शायद इस कारण भी, कि ऋण-संकट की मार से 40 प्रतिशत पत्रकार या तो बेकार हो गए हैं या उन्हें कोई दूसरा काम करना पड़ रहा है। ऋण और यूरो-संकट के परिप्रेक्ष्य में जर्मनी की आलोचना तीखी हो गयी है।

देश के प्रतिष्ठित दैनिक 'एल पाईस' में एक अतिथि लेखक के तौर पर अर्थशास्त्र के प्रोफेसर मानुएल सांचीस इ मार्को ने लिखा, 'मिल-मिला कर हम सभी, हर कीमत पर अपना लाभ बनाए रखने की, जर्मन निर्यातकों की मर्जी के गुलाम हैं।' स्पेनी समीक्षकों का मानना है कि वर्तमान ऋण-संकट स्पेन का नहीं, यूरोपीय आर्थिक प्रणाली का संकट है, उसी की देन है।

फ्रांस का मीडिया रसीली कहानियों का रसिया : फ्रांस में यूरोपीय देशो का ऋणभार और यूरो-संकट आर्थिक पत्रकारों का विषय है, इसलिए जब-तब ही प्रमुख समाचार बन पाता है। वहां के मीडिया के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व निदेशक दोमिनीक श्त्राउस-कान की रंगरेलियां, अरब जगत में क्रांतियां, लीबिया युद्ध में फ्रांस की भूमिका, भ्रष्टाचार कांड या राष्ट्रपति- पद के लिए सोशलिस्ट पार्टी के भावी प्रत्याशी का चुनाव कहीं रसीले विषय हैं। फ्रांसीसी मीडिया यूरो-संकट की तरफ यदि ध्यान देता भी है, तो अधिकतर जर्मन मीडिया के कान ऐंठने या चांसलर अंगेला मेर्कल की उहापोह की आलेचना करने तक ही रह जाता है।

ब्रिटेन को मिल रहा है परपीड़ा सुख : अकेले ब्रिटेन ऐसा देश है, जहां यूरो-संकट की सुखपूर्ण चुस्की और चुटकी ली जा रही है। ज्ञातव्य है कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ का सदस्य होते हुए भी यूरोजोन का सदस्य नहीं है। वह अब भी अपने पाउंड के प्रति ही निष्ठावान है, भले ही गत दस वर्षों में यूरो का भाव पाउंड की तुलना में काफी चढ़ा है। वहां साझी यूरोपीय मुद्रा के संकटपूर्ण भविष्य पर न केवल खुशी जताई जा रही है, बल्कि कामना भी की जा रही है कि यूरो डूबे, तो पाउंड उभरे।

दस वर्ष पूर्व यूरोपीय संघ ने यूरो को जब साझी मुद्रा बनाया था, तब यही सपना देखा जा रहा था कि आज साझी मुद्रा है, कल साझी विदेशनीति होगी और परसों शायद एक साझी सेना भी। यूरोप के सभी देश एक दिन यूरोपीय संघ के सदस्य होंगे। यूरोपीय देशों का यह संघ एक दिन अमेरिका की ही तरह संयुक्त राज्य यूरोप कहलायेगा। अमेरिका की ही तरह अपने आप को एक-देश समझेगा।

यूरो मुद्रा-संकट से इस एकताभावी सपने की नीवें हिलने लगी हैं। जिन राष्ट्रवादी भावनाओं से ऊपर उठने के लिए अखिल यूरोपीय संघराज्य की कल्पना की जा रही थी, वे आज अखिल यूरोपीय अस्मिता से ऊपर उठ रही दिखती हैं।

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