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संसद शर्मसार, लोकतंत्र बेज़ार....जनता लाचार

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जयदीप कर्णिक

कभी भारतीय लोकतंत्र की अस्मिता को पूरी शान से थामे खड़ी संसद को अब पता नहीं और कौन-सा बुरा दिन देखना बाकी है...। लोकतंत्र के इस पवित्र मंदिर को आतंकवादियों की गोलियों ने इतना आघात नहीं पहुँचाया था, जितना आज उसके खुद के नुमाइंदों ने पहुँचा दिया है। वो जिन्हें अपने आचार, विचार और व्यवहार से इस देश और इसके लोकतंत्र के अनुष्ठान को परवान चढ़ाना था, वो खुद ही इसे रसातल में ले जाने पर आमादा हैं, तो फिर इस देश के दुश्मनों को कोई मशक्कत करने की क्या जरूरत? देश के एक अरब लोगों की आकांक्षाओं के प्रतिनिधि क्या वाकई वो काबिलियत रखते हैं, जिसकी अपेक्षा उनसे की जा रही है?

और कौन-सा दृश्य देखा जाना बाकि रह गया था? लोकसभा के गर्भगृह में नोटों की गड्डियाँ लहराई जा रही हैं। एक दिन पहले आरोपों का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री कहते हैं कि सांसदों को रिशवत देने का आरोप झूठा है, यदि सच है तो सबूत पेश किया जाना चाहिए। आज सबूत के रूप में विपक्ष द्वारा नोटों के बंडल लहराए जा रहे हैं। ये सबूत, इससे जुड़े तथ्य और जिस रिकॉर्डिंग की बात की जा रही है वो कितने सच हैं ये तो जाँच का विषय है, लेकिन इसने सतह के भीतर बह रही गंदगी को सतह पर तो ला ही दिया है।

राजनीति में गिरावट का जो विभत्स रूप हमें आज देखना पड़ रहा है, उसके और भयावह होने से पहले ही बहुत कड़े कदम उठा लेने होंगे। इन सब दृश्यों को देखते समय जो जनता खुद को लाचार महसूस कर रही है, वही इस सब को बदल सकती है। कोई सीबीआई, पुलिस, जाँच समिति या लोकसभा अध्यक्ष इसको रोक या बदल नहीं सकते। ये सब तो आम जनता से भी ज्यादा लाचार अवस्था में हैं। जनता को तय करना होगा कि क्या वो ऐसे लोगों को अपना प्रतिनिधित्व करने का अधिकार देंगे जो पैसे ले या देकर अपना जमीर बेच रहे हैं। 11 सांसदों पर पैसे लेकर प्रशन पूछने का आरोप पहले ही लग चुका है।

इससे पहले कि हम स्टिंग ऑपरेशन के जरिए पैसा लेते हुए देखने के आदी हो जाएँ, एक बहुत जोरदार आवाज जनता की तरफ से उठनी चाहिए। हमने कितने ही ऐसे मामले देखे हैं, जिसमें सनसनीखेज खुलासे के बाद भी आरोपी शान से घूमते रहे। लेकिन अब चरम आ चुका है। इसे ही पराकाष्ठा मानकर ठोस कदम उठा लें तो बेहतर है। कहाँ तो इस देश में लोकतंत्र के शुरुआती दौर में लालबहादुर शास्त्री जैसे नेता थे, जो केवल एक रेल दुर्घटना के बाद नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे देते थे और कहाँ ये आज के स्वार्थलोलुप राजनेता।

अब भी इस देश का लोकतंत्र जेल में बैठे अपराधियों को जितवाता रहेगा और जब तक एक पढ़े-लिखे समझदार अध्यापक की जमानत जब्त होती रहेगी, अंजाम यही होगा। हमें पत्तियों का इलाज करने की बजाय इसका समूल नाश करना होगा। पूरी फसल ही नए सिरे से बोनी होगी....एक सामाजिक क्रांति चाहिए....उससे कम कुछ नहीं....। क्या आप सब तैयार हैं...

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