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हमारे दिल और दिन हो गए हैं गुलजार

ब्लॉग चर्चा में रहमान-गुलजार और स्लमडॉग की चर्चा

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रवींद्र व्यास

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यह गर्व और गौरव के लम्हे हैं। यह झूमने और नाचने का वक्त है। यह गुनगुनाने और गाने का वक्त है कि जय हो जय हो। भारतीयों की जय हो। और क्यों न हो। निश्चित ही यह ऐतिहासिक मौका है जब किसी भारतीय लेखक की किताब, भारत के एक शहर मुंबई और कुछ भारतीय कलाकारों के साथ ही भारतीय गीतकार, भारतीय संगीतकार, भारतीय साऊंड इंजीनियर के कल्पनाशील और पेशेवराना अंदाज से एक ब्रिटिश फिल्म आठ आस्कर पुरस्कारों से नवाजी गई है।

यह पहला मौका है जब एक साथ इतने स्तरों पर भारतीय कलाकारों की प्रतिभा और कौशल को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान और सम्मान मिला है। एआर रहमान, गुलजार और स्लमडॉग मिलिनेयर को मिले आस्कर से अखबारों के पन्ने रंगे पड़े हैं। टीवी चैनल 22 फरवरी की रात से ही संभावनाएँ जताने लगे थे कि स्लमडॉग के साथ ही एआर रहमान और गुलजार का डंका बजनेवाला है। और कहने दीजिए ये सब तमाम करोड़ों भारतीयों की आशाओं और अपेक्षाओं पर खरे उतरे हैं। जाहिर है यह भारतीय प्रतिभाओं की जय जयकार करने का वक्त है।

और इस जय जयकार में अखबारों, पत्रिकाओं और टीवी चैनल्स के साथ ही ब्लॉग की दुनिया भी जय जयकार कर रही है। उतनी तत्परता से तमाम ब्लॉगरों ने इस बेहद चर्चित फिल्म पर, उसके संगीत पर, कलाकारों पर अलग अलग ढंग से भिन्न भिन्न नजरिये से बातें की। इन ब्लॉग्स पर इस फिल्म की तारीफ भी थी, गीत संगीत की तारीफ भी थी और कहीं कहीं सवाल भी उठाए गए थे कि यह कितनी भारतीय है और इसमें भारत की कैसी छवि बताई गई है। फिलहाल यह गौरव करने की बात है कि इतने बड़े पुरस्कारों के साथ इस फिल्म के जरिये भारतीय कलाकारों को विश्वख्याति मिली है।

अपने ब्लॉग नया झरोखा पर ब्लॉगर मधुकर राजपुत लिखते हैं कि -ए आर रहमान को ऑरीजिनल स्कोर के लिए बतौर सर्वश्रेष्ठ संगीतकार ऑस्कर से सम्मानित किया गया। जिस गीत जय हो ने भारत की जय का झंडा बुलंद किया उसके लिरिक्स के लिए गुलजार को बतौर सर्वश्रेष्ठ गीतकार ऑस्कर दिया गया। इस बार के लगभग सारे ऑस्कर उड़ा लेने के बाद बारी थी इस अज़ीमो शान फिल्म के निर्देशक डैनी बॉयल की, और बिना शक इस सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के नाम के साथ ऑस्कर विनर की मुहर लग गई।

ऑस्कर की गिनती के लिहाज से देखें तो स्लमडॉग ने टाइटेनिक को भी पछाड़ दिया है। जाहिर है इस ब्लॉगर ने इस कामयाबी को टाइटैनिक जैसी मैगा हिट फिल्म से तुलना करते हुए अपनी टिप्पणी दी है।

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लेकिन बीकानेर के अनुराग हर्ष लिखते हैं कि किसी भी भारतीय को यह जीत कम नहीं आँकनी चाहिए। बात सिर्फ फिल्‍मों की नहीं है, बात ऐसे क्षेत्र में विजय पताका फहराने की है जिसमें प्रतिस्‍पर्धा हर कदम पर है। क्रिकेट खेलने वाले दुनिया के दो दर्जन देश भी नहीं है लेकिन फिल्‍म बनाने वाले देशों की संख्‍या सैकडों में है। ऐसे में पश्चिमी देशों में तो फिल्‍म एक पूजा है, पैशन है। हर फिल्‍म दूसरे से बेहतर है। इस बीच भारतीय फिल्‍मकारों का प्रयास सफल हुआ तो हमें प्रसन्‍नता होनी चाहिए। आज जब भारत हर क्षेत्र में श्रेष्‍ठता साबित कर रहा है, ऐसे में फिल्‍म के क्षेत्र में मिली सफलता निश्चित रूप से सराहनीय है।

कहने की जरूरत नहीं अनुराग ने इस मौके पर भारतीय कलाकारों की प्रतिभा को बिना कोई सवाल उठाए सम्मान देने की बात कही है। राहुल अपने ब्लॉग पर तो इतने अभिभूत हैं कि वे कहते हैं कि यह भारतमाता की जय हो कहने का वक्त है। ब्लॉग मेरी नजरों में दुनिया के ब्लॉगर राहुल कुंदरा का मानना है कि -गुलज़ार और रहमान साहब का गीत "जय हो" ने सच में भारत माता की जय जयकार आज सारी दुनिया में कर दी और हम सब हिन्दुस्तानियों को अपने हिंद पर गर्व करने का एक और कारण दिया। तो आइए हम सब मिल कर कहे भारत माता की " जय हो "।

लेकिन ऐसा नहीं है कि इस बड़ी कामयाबी पर कोई सवाल नहीं उठा रहा है। कई हैं जो इस कामयाबी के दूसरे पहलू पर भी गौर कर रहे हैं और सवाल उठा रहे हैं कि भारत की उपलब्धियों को और चिंतन को दरकिनार कर सिर्फ गरीबी को उभारा गया है।

अपने ब्लॉग उजास के जरिये सवाल उठाते हुए उमाशंकर मिश्र कहते हैं कि -सवाल है कि मदर इंडिया और लगान जैसी फिल्में क्यों ऑस्कर नही प्राप्त कर सकी? कारण साफ़ है कि तीसरी दुनिया के देशों ने भारत की उपलब्धियों और चिंतन को सदैव नजरअंदाज किया है. हालाँकि इसके पीछे उनका डर भी है की भारत कहीं उन्हें पछाड़ कर आगे न निकल जाए।

अब हम घोषित स्लमडॉग हैं शीर्षक वाली इस पोस्ट में वे आगे कहते हैं कि हमने बेहतर फिल्म दी लेकिन ऑस्कर कभी नहीं मिला था, लेकिन आज जब किसी दूसरे देश के फिल्मकारों ने मुम्बई की धारावी पर आधारित फ़िल्म के माध्यम से भारत की गरीबी पर फ़िल्म बनाकर पूरी दुनिया को यह बताने की कोशिश की कि यह देश अपनी उपलब्धियों से कहीं अधिक स्लमडॉग है, तो हमें ऑस्कर कि मार्फ़त पूरी दुनिया में प्रमाण पत्र मिल गया।

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लेकिन इन तमाम सवालों के बीच ब्लॉगर, रहमान के संगीत उसकी रूह और उनकी ईश्वर में आस्था की बात को रेखांकित करना नहीं भूल रहे हैं। संवेदना के पंख ब्लॉग पर महेश परिमल रहमान की ईश्वर और अपनी भाषा में आस्था को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि रहमान ने कहा कि मुझे जीवन में हमेशा प्यार और नफरत में से एक को चुनने का मौका मिला और मैने प्यार को ही चुना।

यह फिल्म भी आशावादिता का संदेश देती है। उन्होंने कहा कि मैं जब भी पुरस्कार जीतता हूँ तो तमिल में कहता हूँ- एल्ला पुगाझलुम इरावनुकू, यानी मैं सारी शोहरत भगवान को समर्पित करता हूँ। जाहिर है यह एक संगीतकार की ईश्वर में आस्था और उसकी विनम्रता को सहज प्रस्तुत करना है।

जबकि दिल एक पुराना म्यूजिमय ब्लॉग के रोशन भी यही बात कहते हैं कि -पुरस्कार लेते समय भाषा का चयन दिखाता है कि रहमान ख़ुद को अपनी मातृभाषा से जोड़ कर प्रस्तुत करना पसंद करते हैं। उनका "मेरे पास माँ है " का उल्लेख ये दिखाता है कि ऑस्कर पुरस्कारों में वो ख़ुद को भारतीय फ़िल्म उद्योग के एक प्रतिनिधि के रूप में रख रहे थे। शायद यही जमीन से जुडाव और उस जुडाव की समुचित अभिव्यक्ति ही वो विशेषता है जो रहमान को नित नई रचनात्मकता की क्षमता देती है । रहमान को बधाई न सिर्फ़ ऑस्कर के लिए बल्कि अपनी अभिव्यक्ति के लिए भी।

हालाँकि खाली दिमाग अपने ब्लॉग पर तीखी बात लिखते हैं । वे वही पुराना सवाल उठाते हैं। गरीबी, झुग्गी बस्ती औऱ भारत का वह काला पक्ष जिसमें जिंदगी की जहालत है। वे लिखते हैं -घोर गरीबी में कुलबुलाते धारावी को भी उसी हिंदुस्तान ने खड़ा किया है जो इसका विरोध करता है... वो आर्थिक ऊँचाइयाँ छूते इसी भारत का बाय प्रोडक्ट है... लेकिन आसमान से बातें करता कामयाब हिंदुस्तान दुनिया के सामने इस सच को नहीं लाना चाहता... लेकिन इससे धारावी और ऐसे दूसरे स्लम का अस्तित्व खत्म नहीं हो जाएगा... वो रहेंगे और आपकी कामयाबी को मुँह चिढ़ाते रहेंगे... ।

  जाहिर है स्लमडॉग के प्रचार और हल्ले में पिंकी जैसी डाक्युमेंट्री फिल्म की उपेक्षा ही हुई है हालाँकि कहीं कहीं इसकी चर्चा भी हुई है लेकिन इस वक्त तो सब स्लमडॉग और रहमान और गुलजार की जय जयकार में शामिल हैं ....      
जाहिर है यह ब्लॉगर फिल्म और कला से इतर कुछ महत्वपूर्ण सवालों पर बात करना चाहता है। इसी तरह से तरकश पर संजय बैगाणी कहते हैं कि वैसे ऑस्कर जीतने का नुस्खा जरूर मिल गया है। एक गोरा निर्देशक लें साथ ही वह दिखाएँ जो गोरे देखना चाहते है। गालियाँ, गन्दगी, नकारापन, हिंसक हिन्दू...... बात हजम नहीं हो रही हो तो ऑस्कर का मोह ही क्यों रखते हो?

अनुभव पर गिरीन्द्रनाथ झा मार्के की बात लिखते हैं कि भविष्य में जब कभी हिंदुस्तानी सिनेमा का इतिहास लिखा जाएगा तो रहमान को सिर्फ इसलिए नहीं याद किया जाएगा कि उन्होंने दो-दो ऑस्कर पुरस्कार अथवा गोल्डन ग्लोब समेत अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते। बल्कि उन्हें याद किया जाएगा एक ऐसे संगीतकार के रूप में जिसने समकालीन संगीत के मायने बदल दिए। जिसके संगीत में ईश्वरीय पुकार थी और था राष्ट्र गौरव।

जबकि भावना ने अपने ब्लॉग गुफ्तगू पर अच्छी भावनाएँ प्रकट की हैं। वे लिखती हैं कि इस बीच एक बहुत बड़ा फर्क यह देखने को मिला कि 'स्माइल पिंकी' को उतना हाईलाईट नहीं किया जा रहा है, जितना की वेटेज 'स्लमडाग मिलेनियर' को दिया जा रहा है। सुर्खियाँ भी 'जय हो' से ही पटी हुई हैं...और 'स्माइल पिंकी' की सफलता को कहीं सप्लीमेंट्री रिजल्ट की तरह सुनाया जा रहा है। वज़ह साफ़ है।'स्लमडाग मिलेनियर' ने प्रचार तंत्र पर सब कुछ झोंका है...दूसरा भारत में वृत्तचित्रों का मॉस मार्केट नही हैं...।

जाहिर है स्लमडॉग के प्रचार और हल्ले में पिंकी जैसी डाक्युमेंट्री फिल्म की उपेक्षा ही हुई है हालाँकि कहीं कहीं इसकी चर्चा भी हुई है लेकिन इस वक्त तो सब स्लमडॉग और रहमान और गुलजार की जय जयकार में शामिल हैं क्योंकि इस वक्त तो तमाम भारतीयों के दिल और दिन गुलजार हो गए हैं।

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