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ओबामा के अमेरिका में फिर-फिर रंगभेद

हमें फॉलो करें ओबामा के अमेरिका में फिर-फिर रंगभेद
, सोमवार, 1 दिसंबर 2014 (17:01 IST)
अमेरिका की एक बार फिर अपने इतिहास से मुठभेड़ हो रही है। वहां का अश्वेत समुदाय अपने नागरिक अधिकारों के लिए सड़कों पर उतर आया है। मिसौरी प्रांत के फर्ग्युसन शहर में एक सप्ताह पहले भड़की अश्वेत अंसतोष और हिंसा की आग ने शिकागो, न्यूयॉर्क, लॉस एंजिल्स, ऑकलैंड, सिएटल, वाशिंगटन डीसी समेत डेढ़ सौ से अधिक शहरों को अपनी चपेट में ले लिया है। इस हिंसा के मूल में है फर्ग्युसन में एक निहत्थे अश्वेत किशोर की एक पुलिसकर्मी के हाथों हुई हत्या। यह घटना गत अगस्त महीने की है। गोरे पुलिसकर्मी पर गोलियां बरसा कर 18 वर्षीय अश्वेत युवक माइकल ब्राउन को मार डालने का आरोप लगा और मुकदमा चला, जिसमें पिछले सप्ताह उसे निर्दोष करार दिया गया। फैसला करने वाली ग्रैंड ज्यूरी में महज तीन अश्वेत थे।

गोरों के बहुमत वाली ज्यूरी ने अपने फैसले में पुलिसकर्मी की करतूत को कानून सम्मत करार देते हुए उसे बरी कर दिया। ज्यूरी के इस फैसले ने आग में घी का काम किया। ज्यूरी के रंगभेद पर आधारित फैसले की अमेरिका के बाहर भी अश्वेत जगत में तीखी प्रतिक्रिया हुई। लंदन में हजारों अश्वेत नागरिकों ने अमेरिकी दूतावास के बाहर रंगभेद और नस्लभेद विरोधी नारे लगाते हुए प्रदर्शन किया। इस सबके बीच ही अमेरिका में एक सनसनीखेज वीडियो सामने आ गया जिसमें पुलिस को बारह साल के एक अश्वेत बच्चे तमिर राइस को गोली मारते हुए दिखाया गया। यह घटना गत 23 नवंबर की है। बच्चे के हाथ में एक खिलौना बंदूक थी, जिससे वह खेल रहा था, तभी वहां पुलिस की एक पेट्रोलिंग कार रुकी और एक गोरे पुलिस अधिकारी ने उस बच्चे का संदिग्ध समझकर गोली मार दी। क्लीवलैंड के एक अस्पताल में बच्चे की मौत हो गई। इस घटना के विरोध में भी क्लीवलैंड के अश्वेत नागरिकों ने जमकर विरोध प्रदर्शन किया। दोनों घटनाओं के विरोध में अमेरिका के कई शहरों में अश्वेतों के प्रदर्शन का सिलसिला अभी भी जारी है।
 
 
लगभग छह वर्ष पूर्व जब बराक ओबामा पहली बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे तो दुनिया भर में यह माना गया था कि यह मुल्क अपने इतिहास की खाई (नस्लभेद और रंगभेद) को पाट चुका है। ओबामा के रूप में एक अश्वेत व्यक्ति का दुनिया के इस सबसे ताकतवर मुल्क का राष्ट्रपति बनना ऐसी युगांतरकारी घटना थी जिसका सपना मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने बीसवीं सदी के उत्तरार्द्घ में देखा था और जिसको हकीकत में बदलने के लिए उन्होंने जीवनभर अहिंसक संघर्ष किया था। 28 मार्च, 1963 को ऐतिहासिक वाशिंगटन रैली में मार्टिन लूथर ने कहा था- 'मेरा एक सपना है कि एक दिन ऐसा आएगा जब अमेरिका की धरती पर नस्लवाद और रंगभेद की सारी खाइयां पाट दी जाएंगी, मुश्किलों के पहाड़ मिट जाएंगे, ऊबड़-खाबड़ रास्ते समतल हो जाएंगे और इस दिव्य दृश्य को अमेरिका का हर बाशिंदा, चाहे वह किसी भी रंग या नस्ल का हो, साथ-साथ देखेगा।' बराक ओबामा का राष्ट्रपति बनना एक तरह से मार्टिन लूथर किंग के अहिंसक संघर्ष की ही तार्किक परिणति थी। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि ओबामा के कार्यकाल में ही वहां नस्लवादी और रंगभेदी नफरत बार-बार फन उठा रही है।  
 
वहां कभी किसी गुरुद्वारे पर हमला कर दिया जाता है तो कभी किसी सिख अथवा दक्षिण-पश्चिमी एशियाई मूल के किसी दाढ़ीधारी मुसलमान को आतंकवादी मानकर उस पर हमला कर दिया जाता है। कभी कोई गोरा पादरी किसी नीग्रो या किसी और मूल के अश्वेत जोड़े की शादी कराने से इनकार कर देता है तो कभी किसी भारतीय राजनेता, राजनयिक और कलाकार से सुरक्षा जांच के नाम बदसुलूकी की जाती है तो कभी किसी भारतीय अथवा एशियाई मूल के व्यक्ति को रेलगाड़ी के आगे धक्का देकर मार दिया जाता है। हाल के वर्षों में वहां इस तरह की कई घटनाएं हुई हैं। 
 
नस्लीय नफरत से उपजी इन घटनाओं के अलावा भी अमेरिकी और गैर अमेरिकी मूल के अश्वेतों, खासकर एशियाई मूल के हर सांवले या गेहुंए रंग के व्यक्तियों को हिकारत और शक की निगाह से देखने की प्रवृत्ति वहां हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ी है। अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान जो कुछ बोलता है, उससे वहां के समाज को लेकर एक अलग छवि उभरती है, लेकिन उस जन्नत की हकीकत का पता अन्य घटनाओं के अलावा नीना दावुलुरी के मामले से भी चला। दो साल पहले भारतीय मूल की नीना दावुलुरी के 'मिस अमेरिका' चुने जाने पर वहां सोशल वेबसाइट्‌स पर नीना को लेकर नस्लवादी टिप्पणियां की गई थीं, उसका मजाक उड़ाया गया था। कई अमेरिकी गौरांग महाप्रभुओं ने उसे अरबी समझते हुए उसका संबंध अल कायदा से जोड़ने की फूहड़ कोशिश भी की थी। दुनिया को बड़ी शान से एक ग्लोबल विलेज बताने वालों से पूछा जाना चाहिए कि इतनी अजनबियत और नफरत से भरा यह कैसा विश्व गांव है? पूंजीवाद के आराधकों और गुण-गायकों का दावा रहा है कि पूंजी राष्ट्रों की दीवारों को गिराने के साथ ही लोगों के जेहन में बनी धर्म, जाति, नस्ल और संप्रदाय और रंगभेद की गांठों को भी खत्म कर देगी। लेकिन यह दावा बार-बार लगातार बोगस साबित होता जा रहा है। 
 
नीना पर नस्लीय कटाक्ष करने वाले अमेरिकियों ने साबित किया कि उनका समाज उदारता, सहिष्णुता और सर्वसमावेशिता के मूल्यों को अभी भी पूरी तरह आत्मसात नहीं कर पाया है। अगर अमेरिका की युवा पीढ़ी भारतीय और अरबी में फर्क नहीं कर सकती और हर एशियाई को, दाढ़ी-पगड़ी वाले को और सांवले-गेहुंआ रंग के व्यक्ति को आतंकवादी मानती है तो इससे बड़ा उसका मानसिक दिवालियापन और क्या हो सकता है! वैसे इस स्थिति के लिए वहां का राजनीतिक तबका भी कम जिम्मेदार नहीं है जो अपने देश के बाहर तो अपने को खूब उदार बताता है और दूसरों को भी उदार बनने का उपदेश देता है लेकिन अपने देश के भीतर व्यवहार के स्तर पर वह कठमुल्लेपन को पालने-पोषने का ही काम करता है।
 
दरअसल, पश्चिमी देशों में अमेरिका एक ऐसा देश है, जहां विभिन्न नस्लों, राष्ट्रीयताओं और  संस्कृतियों के लोग सबसे ज्यादा हैं। इसकी वजह यह है कि अमेरिका परंपरागत रूप से पश्चिमी सभ्यता का देश नहीं है। उसे यूरोप से गए हमलावरों या आप्रवासियों ने बसाया। अमेरिका के आदिवासी रेड इंडियनों को इन आप्रवासियों ने तबाह कर दिया, लेकिन वे अपने साथ अफ्रीकी गुलामों को भी ले आए। उसके बाद आसपास के देशों से लातिन अमेरिकी लोग वहां आने लगे और धीरे-धीरे सारे ही देशों के लोगों के लिए अमेरिका संभावनाओं और अवसरों का देश बन गया। अमेरिका में लातिनी लोगों के अलावा चीनी मूल के लोगों की भी बड़ी आबादी है। भारतीय मूल के लोग भी वहां बहुत हैं। जनसंख्या के आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका की 72 प्रतिशत आबादी गोरे यूरोपीय मूल के लोगों की है, जबकि 15 प्रतिशत लातिनी और 13 प्रतिशत अफ्रीकी मूल के अश्वेत हैं। भारतीय मूल के आप्रवासी कुल आबादी का एक प्रतिशत (लगभग 32 लाख) हैं, जो वहां प्रशासनिक कामकाज और आर्थिक गतिविधियों में अपनी अहम भूमिका निभाते हुए अमेरिका की मुख्य धारा का हिस्सा बने हुए हैं। 
 
इस तरह अनेक जातीयताओं और नस्लों के लोगों के होते हुए भी बहुसंख्यक अमेरिकियों के लिए अमेरिका अब भी गोरे लोगों का मुल्क है और अन्य लोग बाहरी हैं। अमेरिका के कई हिस्से हैं, जहां अन्य नस्लों या जातीयताओं के लोग बहुत कम हैं और वे सिर्फ गोरे अमेरिकियों को ही पहचानते हैं। उनका बाकी दुनिया के बारे में ज्ञान भी बहुत कम है, उनके लिए उनके देश की एक खास छवि के अलावा बाकी दुनिया मायने नहीं रखती। अमेरिका एक समृद्घ देश है और दुनिया की एकमात्र महाशक्ति  भी, इसलिए वहां के लोगों को बाकी दुनिया के बारे में जानने की फिक्र नहीं है। आतंकवाद क्या होता है, यह भी अमेरिकी जनता को कुछ वर्षों पहले ही मालूम हुआ है। 
 
वैसे तो अमेरिका में नस्लवादी नफरत और हिंसा की घटनाएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन इस सदी की शुरुआत में न्यूयॉर्क के वर्ल्ड  सेंटर की जुड़वा इमारतों पर हुए हैरतअंगेज आतंकवादी हमले के बाद ऐसी घटनाओं का सिलसिला कुछ तेज हो गया है। 9/11 के हमले के बाद अमेरिका में दूसरे देशों खासकर एशियाई मूल के लोगों को और उनमें भी दाढ़ी रखने और पगड़ी पहनने वालों को या अपने नाम के साथ अली या खान लगाने वालों को संदेह और हिकारत की नजर से देखने की प्रवृत्ति में इजाफा हुआ है। अमेरिका में नस्लभेदी बदसुलूकी के शिकार सिर्फ भारत और भारतीय उपमहाद्वीप के लोग या स्थानीय और प्रवासी मुसलमान ही नहीं होते बल्कि अमेरिका के अश्वेत मूल निवासियों के साथ भी वहां के गोरे भेदभाव और बदसुलूकी करते हैं। मई 2012 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के विशेष जांचकर्ता जेम्स अनाया ने अपनी रिपोर्ट में अमेरिका के मूल निवासियों के खिलाफ 'व्यवस्थित' ढंग से भेदभाव किए जाने का आरोप लगाया था। 
 
बहुत हैरानी होती है इस विरोधाभास को देखकर कि एक तरफ तो अमेरिकी नागरिक समाज इतना जागरूक, उदार और न्यायप्रिय है कि एक अश्वेत को दो-दो बार अपना राष्ट्रपति चुनता है, वहीं दूसरी ओर उसके भीतर नस्ली दुराग्रह की हिंसक मानसिकता आज भी जड़ें जमाए बैठी हैं। अमेरिका अपने को लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, मानवाधिकार और धार्मिक आजादी का सबसे बड़ा हिमायती मानता है। दुनिया के दूसरे मुल्कों को भी इस बारे में सीख देता रहता है। लेकिन उसके यहां जारी चमड़ी के रंग और नस्ल पर आधारित नफरत और हिंसा की  घटनाएं उससे अपने गिरेबां में झांकने की मांग करती हैं।

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