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काले धन के देशी तहखाने भी तो खंगालिए!

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अनिल जैन

देश को आजादी मिलने के बाद से लेकर आज तक आर्थिक मोर्चे पर जिन गंभीर समस्याओं से मुकाबिल होना पड़ रहा है और उनके लिए जो महत्वपूर्ण कारण गिनाए जा सकते हैं, उनमें एक है काला धन। हालांकि समय-समय पर इस समस्या से निजात पाने के उपाय भी किए जाते रहे हैं लेकिन समस्या लगातार बढ़ती गई है। यानी मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की। इसकी बड़ी वजह रही राजनीतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति का अभाव।
 
सार्वजनिक जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो काले धन की बीमारी से बचा हो। रिश्वतखोरी के अलावा हवाला, तस्करी, कर चोरी का भी अवैध धन के उत्पादन में कम योगदान नहीं है। इस तरह देश के संसाधनों और आम लोगों की मेहनत की कमाई को लूटने का खेल बेहद संगठित तौर पर यों तो देश की आजादी के बाद से ही खेला जा रहा है, लेकिन दो दशक पूर्व लागू हुई नवउदारीकरण की अर्थनीति के बाद इस खेल में हैरान करने वाली तेजी आई है। तमाम तरह के अनैतिक और अवैध हथकंडों से अर्जित धन को छिपाकर या बेनामी या फर्जी नामों से रखा जाता है। इस धन का काफी बड़ा हिस्सा विदेशों के उन बैंकों में भी जमा होता रहा है जो खाताधारी की पहचान गुप्त रखने की गारंटी देते हैं। स्विट्‌जरलैंड के कुछ बैंक तो इस मामले में काफी पहले से दुनिया भर में बदनाम हैं लेकिन अब कई और देशों में भी यह 'सुविधा' उपलब्ध है।
 
इन दिनों देश में काले धन का मुद्दा खासा चर्चा में है, लेकिन यह चर्चा सिर्फ विदेशों के बैंकों में जमा काले धन की ही हो रही है। देश में जमा काले धन और उसके स्रोतों का कहीं जिक्र नहीं हो रहा है। सत्तापक्ष हो या विपक्ष, अण्णा हजारे टाइप के सिविल सोसायटी के नुमाइंदे हों या फिर कोई योग गुरु, सबके सब देश में जमा काले धन का नाम तक नहीं ले रहे हैं। सत्तापक्ष का रवैया तो और भी हैरान करने वाला है। वह देश में जमा काले धन की बात तो दूर, विदेशों में जमा उस काले धन के सवाल पर भी हीला-हवाला कर रही है जिसे उसने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जोर-शोर से मुद्दा बनाया था। अपने चुनाव प्रचार अभियान के दौरान प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर नरेंद्र मोदी और भाजपा के तमाम नेताओं ने देश से वादा किया था कि सत्ता में आने के सौ दिनों के भीतर वे विदेशों में काली कमाई के तौर पर जमा एक-एक पैसा भारत लाएंगे और देश के लोगों में बांट देंगे। मोदी ने तो चुनाव प्रचार के दौरान अपनी सभाओं में 15 लाख रुपए तक हर भारतीय नागरिक के बैंक खाते में जमा करने के की बात कही थी। लेकिन अब स्थिति यह है कि विदेशों में जमा कालेधन के सवाल पर वे और उनके मंत्री भी अंतरराष्ट्रीय संधियों का हवाला देकर वही सारी दलीलें पेश कर रहे हैं जो कांग्रेस यानी यूपीए सरकार देती रही थी। 
 
अपने इसी टालू रवैये के चलते सरकार के लिए इससे बड़ी शर्मिंदगी की बात और क्या होगी कि देश की शीर्ष अदालत को भी उसकी नीयत पर भरोसा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि विदेशों में जाम कालेधन की जांच का मामला वह सरकार के भरोसे नहीं छोड़ सकती, क्योंकि इस मामले में उसका रवैया विश्वसनीय नहीं है। सरकार पर अविश्वास प्रकट करते हुए अदालत ने कहा कि सरकार विदेशी बैंकों के भारतीय खाताधारियों की जांच कराने की तकलीफ न करे, वह तो बस उनके नामों और खातों की सूची अदालत को सौंप दे, बाकी काम अदालत खुद ही कर लेगी।
 
कालेधन को लेकर सरकार के रवैये के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का यह बयान औपचारिक रूप से फैसला न होते हुए भी एक तरह से मुकम्मल फैसला ही समझा जाना चाहिए और यह फैसला बताता है कि अपनी मौजूदगी के महज पांच महीनों में ही मोदी सरकार काले धन के सवाल अपनी साख गंवा चुकी है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट से कड़ी फटकार सुनने के बाद सरकार ने विदेशों में काला धन जमा करने वाले 627 लोगों की एक सूची अदालत को सौंपी है, जबकि पहले उसने 136 नाम ही अदालत को सौंपने की बात कही थी। अहम बात यह भी है कि जितने भी नाम सरकार के पास हैं, जो उसने अदालत को सौंपे हैं, उनमें से एक भी उसे अपनी कोशिशों से हासिल नहीं हुआ है। महज एक संयोगवश इन नामों की सूची उसके हाथ लग गई है। ये सारे नाम फ्रांस की एक बैंक के हैं, जो उस बैंक के एक कर्मचारी ने अपनी सरकार को सौंपे थे। इनके अलावा भी कई देशों के तमाम बैंकों में ऐसे हजारों खाते हो सकते हैं, जिन तक पहुंचना सरकार के लिए आसान नहीं है।
 
भारत सरकार के पूर्व वित्त सचिव एवं अर्थशास्त्री एनके सिंह के मुताबिक अगर भारत में शुरू से ही काले धन पर अंकुश लगाने के कारगर उपाय किए गए होते तो आज देश का हर व्यक्ति सात गुना धनवान होता, यानी भारत दुनिया के मध्य आय समूह के देशों में होता और उसकी प्रतिव्यक्ति आय पंद्रह सौ डॉलर से बढ़कर साढ़े दस हजार डॉलर या लगभग अस्सी हजार रुपए से बढ़कर सवा पांच लाख रुपए सालाना होती। कहना न होगा कि गरीबी का यह विद्रूप चेहरा न दिखाई देता। एक अनुमान के अनुसार, अगर काले धन पर अंकुश लगा होता तो देश की सकल घरेलू उत्पाद विकास दर (जीडीपी) हर साल पांच प्रतिशत ज्यादा होती। स्थिति की भयावहता इस बात से भी जानी जा सकती है कि इकनॉमिस्ट कॉरीडोर के अनुसार 1955-56 में देश में जो काला धन जीडीपी का मात्र चार से पांच फीसदी था वह 1970 में वांगचू समिति के आकलन के अनुसार सात फीसदी हो गया। बात यहीं नहीं रुकी और 1980-81 मे नेशनल इंस्टीट्‌यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस के अनुसार यह प्रतिशत अठारह से बीस हो गया। काले धन की स्थिति पर विशेष अध्ययन करने वाले जाने-माने अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार के अनुसार 1995-96 के आते-आते देश की जीडीपी का पचास फीसदी काले धन के रूप मे परिवर्तित होने लगा जो आज लगभग साठ फीसदी का आंकड़ा छूने लगा है।
 
दुनिया भर में काले धन की आवाजाही पर नजर रखने वाली एक अमेरिकी संस्था 'ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी' ने भारत के बारे में 1948 से 2008 तक की स्थिति का अध्ययन कर अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि आजादी के बाद से भारत को कर चोरी और भ्रष्टाचार के जरिए अब तक 21 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है तथा 1991 के बाद भारत ने जिस तेजी से आर्थिक प्रगति की है, उतनी ही तेजी से भ्रष्टाचार भी बढ़ा है। कुछ समय पहले स्विस बैंक एसोसिएशन ने भी अपनी एक रिपोर्ट में इस तथ्य की पुष्टि की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक काला धन जुटाने के मामले में भारत दुनिया भर में सबसे अव्वल है और उसका कुल 65,223 अरब रुपए का काला धन स्विस बैंकों में जमा है। जबकि दुनिया के सबसे अमीर देश अमेरिका का स्थान इस मामले में काफी पीछे है। जाहिर है कि यह स्थिति किसी देश की समृद्धि को नहीं बल्कि वहां की आर्थिक लूट, अवैध धंधों के फलने-फूलने और कर चोरी के पैमाने को बयान करती है।
 
यह तथ्य भी गौरतलब है कि आजादी के बाद से जो काला धन भारत से बाहर गया उसमें से आधे से ज्यादा पिछले 15 वर्षों के दौरान गया है। इस अवधि में छह साल तक भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन की भी केंद्र में सरकार रही, लेकिन उसने भी इस सिलसिले को रोकने की दिशा में कुछ नहीं किया, भले ही पिछले लोकसभा चुनाव में उसने इसे उसने मुद्दा बनाने की कोशिश की हो। पिछले कुछ वर्षो से राजनीतिक दलों से इतर भी यह मांग फिर जोर पकड़ रही है कि देश का जो काला धन देश के बाहर के बैंकों में जमा है उसे वापस लाया जाए। लेकिन इस बारे में सरकार के रवैये से आम लोगों में अगर यह धारणा गहरे तक घर चुकी है कि विदेशों में जमा काले धन को वापस देश में लाने में सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है और सुप्रीम कोर्ट भी इसी तरह का अंदेशा जाहिर कर चुका है तो यह स्वाभाविक ही है। 
 
हैरानी की बात यह है कि विदेशों में जमा काले धन की बात तो हर कोई कर रहा है मगर देश के भीतर मौजूद काले धन का जिक्र कोई नहीं कर रहा है। कोई तीन साल पहले लोकसभा में विपक्षी दलों के लाए काम रोको प्रस्ताव पर लगभग छह घंटे तक काले धन की व्यवस्था पर बहस हुई थी लेकिन उसमें भी देश में मौजूद काले धन के तहखानों का किसी ने सरसरी तौर पर भी जिक्र नहीं किया था। विदेशों में जमा भारत का काला धन बेशक एक गंभीर मुद्दा है, लेकिन जितना पैसा विदेशी बैंकों में काले धन के तौर पर जमा है, उससे कई गुना ज्यादा काला धन देश के भीतर ही मौजूद है। यह एक मिथक है कि काला धन विदेश के बैंकों में बंद रहता है।
 
हकीकत यह है कि भारत से काला धन विदेशों में पहुंचता है और फिर मॉरीशस जैसे देशों की तमाम फर्जी कंपनियों के रास्ते वह धन फिर से भारत में निवेश के लिए आता है। इसे रोकना इसलिए भी मुश्किल है, क्योंकि इन रास्तों का इस्तेमाल तमाम बड़े-बड़े उद्योग घराने कर रहे हैं। भारत में चोर दरवाजों से काले धन की आवाजाही का यह खेल वैसे तो लंबे अरसे से जारी है, लेकिन इसमें तेजी तब से आई है जब से देश ने नवउदारीकरण की अर्थव्यवस्था को अपनाया है।
 
देश में आम लोगों की मेहनत की कमाई को लूटने के इस संगठित खेल में भ्रष्ट राजनेता, भ्रष्ट नौकरशाह और बेईमान कारपोरेट घराने शामिल हैं। यह खेल कितना बड़ा है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 50 फीसदी हिस्से के बराबर काला धन देश में हर साल जमा हो रहा है। प्रोफेसर अरुण कुमार की पुस्तक 'ब्लैकमनी इन इंडिया' के मुताबिक 'देश का जीडीपी लगभग 78 लाख करोड़ रुपए का है, जबकि इससे अलग करीब 38 लाख करोड़ रुपए काले धन के तौर पर देश में हर साल उत्पादित हो जाते हैं। जाहिर है, यह खेल पूरे सिस्टम की भागीदारी के बगैर लंबे समय तक कतई नहीं खेला जा सकता।' प्रो अस्र्ण कुमार का मानना है कि अगर हर साल यह 38 लाख करोड़ रुपए देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ जाएं तो हमारी आर्थिक विकास दर काफी बेहतर हो सकती है और हम गरीबी व बेरोजगारी की समस्या पर काफी हद तक नियंत्रण कर सकते हैं। 
 
दरअसल, एक साल के भीतर देश में जो 38 लाख करोड़ रुपए का काला धन पैदा होता है, उसमें से महज चार लाख करोड़ रुपए ही विदेशी बैंकों में काले धन के रूप में जमा होते हैं। बाकी पैसे का निवेश तो देश में ही शेयर बाजार, रियल एस्टेट जैसे कारोबारों में होता है। चूंकि जो काला धन देश में रहता है उसी में से कुछ हिस्सा राजनीतिक दलों को चुनावी चंदे के रूप में मिलता है। राज्यों में अल्पमत की सरकारें बनाने-गिराने के खेल में भी यह काला धन अहम भूमिका निभाता है। कई धर्माचार्यों की व्यासपीठें भी आमतौर पर इसी काले धन के हिस्से से सजती हैं। इसलिए देश में काले धन के व्यवहार के बारे में न तो कोई राजनीतिक दल बोलता है, न ही कोई राजनेता इसके खिलाफ जनचेतना पैदा करने के लिए 'रथ यात्रा' निकालता है।
 
भ्रष्टाचार को लेकर चिंतित रहने वाले तथाकथित सिविल सोसायटी के स्वयंभू अलमबरदार, धर्माचार्य और योग गुरु भी इस बारे में अपना मुंह खोलने से बचते हैं। क्योंकि उन्हें डर है कि इस बारे में जिक्र छेड़ा गया तो फिर बात दूर तलक जा सकती है। कोई तीन साल पहले यूपीए सरकार के समय अन्य राजनीतिक दलों से अलग दिखाने के मकसद से भाजपा ने अपने सभी सांसदों से हलफनामों के जरिए घोषित करवाया था कि उनका विदेशों में कोई काला धन नहीं है। लेकिन उनमें से किसी ने यह घोषणा नहीं की थी कि देश के भीतर भी उसने काले धन का कहीं निवेश नहीं कर रखा है।
 
हालांकि राजनेताओं के ऐसे हलफनामों को दिखाने के दांतों से ज्यादा कुछ नहीं माना जा सकता। इससे कोई असहमत नहीं हो सकता कि विदेशों में जमा काला धन को वापस लाना चाहिए और इसके लिए सरकार को निश्चित रूप से कोई कोताही नहीं बरतनी चाहिए लेकिन देश में मौजूद काले धन के तहखाने भी उजागर होने चाहिए और ऐसी कारगर व्यवस्था बनानी चाहिए, जिससे कि काला धन पैदा ही न हो, क्योंकि समस्या की बुनियादी वजह तो यही है। 
 

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