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ये क्या जगह है दोस्तों...?

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-डॉ. गरिमा संजय दुबे
 
पेटलावद, जानती हूं कि कुछ देर से यह लिख रही हूं, लेकिन जैसे इंसान किसी हादसे के बाद सुन्न हो जाता है और कुछ समय के बाद दर्द का अहसास होने पर चीत्कार उठता है, ठीक वैसे ही कुछ दिन स्तब्ध रहने के बाद ये मेरी कलम का विलाप है, जो अपनी यादों के शहर पर आंसू बहा रही है। 
जिस कस्बे में आपने अपना बचपन बिताया हो, शिक्षा प्राप्त की हो, हर घर, हर गली, हर इंसान आपकी जेहन में ताजा हो, जो कस्बा आपका मायका हो, वो कस्बा कस्बा नहीं घर होता है। दशहरा मैदान से कॉलेज तक, नदी के तट से रूपगढ़ तक फैला खूबसूरत, पुरसुकून, एशिया में सर्वाधिक मोर होने का गौरव साथ लिए पेटलावद आज उदास है।
 
पेटलावद जो नवरात्रि के गरबों में गांधी चौक, झंडा बाजार, अंबिका चौक में सिमट आता था, वह पेटलावद जो महुए की गमक, मांदल की थाप, भगोरिया की मस्ती में झूमता था, वह पेटलावद जो मोहर्रम के ताजियों पर नारियल चढ़ाता और अपने बच्चों की मन्नत उतारता था, शंकर मंदिर के विशाल शिवलिंग की पूजा-अर्चना से जो जागता था, चौमासा और पर्युषण पर्व पर साधना में लीन जैन साधुओं के णमोकार मंत्र से गुंजायमान गलियों का साक्षी पेटलावद गणेश उत्सव नहीं मना रहा है, आज वह सहमा-सा, आंखों में आंसू लिए प्रश्न कर रहा है कि उसके पुराने सुंदर स्वरूप को किसने लील लिया?
 
हादसे के जिम्मेदार तो महज प्रतीक हैं कुछ प्रवृत्तियों के। दरअसल, कोई भी हादसा हमारे अंदर के लालच और स्वार्थ के कारण होता है। नाम कोई भी हो- जिम्मेदार हमारा लालच, ज्यादा से ज्यादा पा लेने की इच्छा और 'सब चलता है' वाली हमारी आदत ही होती है। पुलिस हो, सरकार हो या आम इंसान- सब इसी स्वार्थी प्रवृत्ति का शिकार हैं और सजा भुगतते हैं निर्दोष इंसान। यह हादसा तो अब हुआ है लेकिन इसकी तैयारी तो बहुत पहले शुरू हो गई थी।
 
बचपन में अपनी आंखों से घर की छत पर 25-30 मोर मैंने खुद देखे हैं। अपनी मस्ती में झूमते, नाचते, शोर मचाते। पर पिछले कुछ सालों से जब पेटलावद जाती हूं, तो अब इक्के-दुक्के मोर ही नजर आते हैं। जिस नदी में कभी नहाने जाते थे, वो आज नाला बन चुकी है। खुले-खुले बाजार और गलियां अब अतिक्रमण का शिकार हो बमुश्किल चलने लायक बची हैं। जहां हरियाली थी वहां अब बड़ी-बड़ी दुकानें व बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठान खड़े हो गए हैं।
 
एक छोटे से कस्बे में इतने बड़े-बड़े प्रतिष्ठान देख आप हैरान हो सकते हैं, लेकिन पेटलावद व्यापारिक दृष्टि से, कृषि के क्षेत्र में समृद्ध कस्बा है। पेटलावद धनी कस्बा है। धनी जैन व्यापारी, धनी सिर्वी किसान और धनी ब्राह्मण। देखते-देखते ही लोगों को फर्श से अर्श पर जाते देखा है। 
 
अब इसमें उनकी अपनी मेहनत कितनी है और झाबुआ जिले को मिलने वाले पैसे, सुविधाओं और उसके उपयोग में होने वाली हेराफेरी का प्रताप कितना? यह जांच-पड़ताल का विषय हो सकता है। बढ़ते अनियोजित विकास, बढ़ती धन की लालसा ने एक सुंदर कस्बे को हिलाकर रख दिया। 
 
ऐसे और भी कस्बे होंगे, जो कि विकास की दौड़ में होंगे। वे भी कहीं पेटलावद की तरह न सिहर जाएं? क्या इसके लिए हमारे पास क्या कोई योजना है? सुनियोजित विकास के कोई मापदंड है? या कि प्रशासन को कुंभकर्णी नींद से जगाने के लिए इस तरह के हादसों की जरूरत है। और कुछ दिन के बाद वही 'ढाक के तीन पात'। 
 
कुछ दिन चर्चा में रहने के बाद यह घटना भी लोगों के जेहन से उतर जाएगी, इसे क्या कहें? बुद्धिजीवी कहते हैं कि जीवन चलने का नाम है और जीवन चलेगा तो वक्त के साथ घाव भी भर जाएंगे। ईश्वर ने भूलने की ताकत इसलिए नहीं दी थी कि इंसान संवेदनारहित हो जाए।
 
मैं पूछना चाहती हूं पेटलावद के हर उस अपराधी से, हर उस बुद्धिजीवी से कि घाव क्यों भर जाने चाहिए? क्यों नहीं अश्वत्थामा की मणि के घाव की तरह इसे जिम्मेदार व्यक्ति और प्रशासन के माथे पर रिसने देना चाहिए ताकि उसकी दुर्गंध उन्हें अपने अपराध का ज्ञान करवाती रहे।
 
लेकिन… लेकिन... हमारी 'sick, hurry and divided aims' की घातक प्रवृत्ति हमें एक होने से रोकती है। गलत का विरोध एक होकर करने पर ही न्याय की उम्मीद की जा सकती है। लाशों के चिथड़े चीख-चीखकर अपना अपराध पूछ रहे हैं। पेटलावद पूछ रहा है कि यह यह कौन सा दयार है, जहां आंखों में आंसुओं का, मन में ढेर सारे प्रश्नों का और चेहरे पर अनजानी-सी चुप्पी का गुबार फैला है। 
 
यह वह पेटलावद तो नहीं, जो मेरी यादों का शहर था। अनियंत्रित विकास और पैसा कमाने की अंधी दौड़ ने इंसानियत और सामाजिक जिम्मेदारी का भाव खत्म कर दिया है। कभी-कभी मन सवाल करता है कि पैसे की फसल को हमेशा इंसानी खून के खाद की जरूरत क्यों होती है? कोई जवाब है...?

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