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मेट्रो में रोती लड़कियां...

हमें फॉलो करें मेट्रो में रोती लड़कियां...
, सोमवार, 11 अप्रैल 2016 (15:23 IST)
- उमेश चतुर्वेदी
जिंदगी में रोजाना सैकड़ों-हजारों दृश्यों–वाकयों से साबका पड़ता है, लेकिन कुछ तस्वीरें-कुछ घटनाएं हमारे जेहन में टंकी रह जाती हैं और फुर्सत पाते ही यादों की डिबिया से बाहर निकल कर हमें अपने स्वभाव के मुताबिक कभी झकझोरती हैं तो कभी लताड़ती हैं। कुछ महीनों पहले दिल्ली मेट्रो में रोती दो लड़कियों की तस्वीरें कुछ ऐसे ही अवचेतन में टंग गई हैं और जैसे ही मन फुर्सत में होता है..दोनों तस्वीरें फटाक से सामने आ जाती हैं और दो-तीन सवालों के तीर छोड़ जाती हैं...और पीछे छोड़ जाती हैं एक अफसोस...

उस दिन हुडा सिटी सेंटर गुड़गांव से जहांगीरपुरी जाने वाली मेट्रो का नजारा सामान्य दिनों की ही तरह था..अल सुबह दफ्तर और कॉलेज जाने की उतावली में लोग मेट्रो के रुकते और दरवाजा खुलते ही स्टेशनों पर चढ़ और उतर रहे थे...भला हो मोदी सरकार का..जिसने कम से कम सरकारी दफ्तरों के कर्मचारियों को भी उतावलेपन से भर दिया है..बॉयोमीट्रिक हाजिरी सिस्टम बिल्कुल वही वक्त दर्ज करता है, जिस वक्त आप दफ्तर में घुसते हैं..खैर मेट्रो कोच के दरवाजे के बगल में अपनी पीठ टिकाए वह लड़की खड़ी थी।
 
उम्र यही कोई बीस-बाइस साल...पीठ पर लदे बैग से लगता था कि पढ़ने जा रही है...दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी कॉलेज की छात्रा लग रही थी..महानगर में वैसे भी दूसरों की तरफ ध्यान देने की जरूरत कम ही लोग महसूस करते हैं..लिहाजा उस लड़की की तरफ भी किसी का ध्यान नहीं था..अपनी यात्रा थोड़ी ज्यादा दूर की थी..फिर अपना पत्रकारीय दिमाग..हर वक्त हर कहीं कुछ ना कुछ ऑब्जर्व करने और उसमें कुछ खबर खोजने की कोशिश में लगा रहता है.. इसी प्रक्रिया में उस लड़की की तरफ ध्यान गया..वह लगातार रोए जा रही थी..आंखें लाल थीं..रह-रहकर आंसू उसके गालों पर ढुलक आते..कुछ देर तक वह उन आंसुओं से बेपरवाह रहने की कोशिश करती और फिर जैसे ही कुछ याद आता..हथेली में पकड़े रूमाल से आंसुओं को पोंछ लेती...
 
इसी प्रक्रिया के बीच दफ्तर जाने वाली एक महिला भी दो स्टेशन बाद चढ़ी..कोच में जगह ना होने की वजह से उसने भी लड़की के ठीक सामने ही दरवाजे के एक तरफ पीठ सटाकर स्थान बना लिया..थोड़ी देर बाद रोती हुई लड़की पर उसकी भी नजर पड़ी..महिला ने पहले उसकी तरफ चौंकाऊं निगाहों से देखा..रोती हुई लड़की ने अपनी आंखों को दूसरी तरफ घुमा लिया..फिर सामने वाली महिला ने ऐसे प्रदर्शित किया..मानो वह लड़की को देख ही नहीं रही हो..
 
इसे संयोग कहें या कुछ और...कुछ ही दिनों बाद की ही बात है...दफ्तर जाते वक्त मेट्रो के आखिरी कोच में जगह मिली..आखिरी कोच में दीवार के पास लड़की खड़ी थी..सामान्य वेशभूषा...हाथ में एक छोटा सा थैला..वह भी लगातार रोए जा रही थी..पहले वाली लड़की से फर्क बस इतना ही था कि उसकी उम्र पहले वाली से कुछ कम थी..वह एम्स स्टेशन से चढ़ी..उसका पहनावा पहले वाली जैसा अच्छा नहीं था..वह भी रोए जा रही थी..लेकिन अपने आंसू लगातार अपनी चुन्नी से पोंछे जा रही थी..मेट्रो का पूरा कोच उसे देख रहा था..लेकिन सब लोग उसके आंसुओं को ऐसे नजरंदाज कर रहे थे, मानो कोई उसे रोता हुआ नहीं देख रहा हो। 
 
बार-बार इच्छा हो रही थी कि उसके दर्द के सबब के बारे में पूछें..लेकिन दशकों पुराना कथित संस्कार और हिचक आगे बढ़ने ही नहीं दे रहा था..हमारा बचपन जिस धुर देहात में गुजरा है..वहां लड़कों को लड़कियों से बात करने से परहेज रखने की शिक्षा और संस्कार दिया जाता रहा है..वह संस्कार गहरे तक इतने रूढ़ ढंग से पैठ कर गया है कि वह हर ऐसे वक्त में पहल के दौरान आड़े आ जाता है..ऐसा नहीं कि कभी उस पर पार नहीं पाया..लेकिन अक्सर वह दकियानूसी संस्कार हावी हो जाता है..लेकिन रह-रहकर यह सवाल जरूर कोंचता है कि आखिर दोनों लड़कियों का दर्द क्या था।
 
पचासों लोगों-महिलाओं के बीच अकेले आंसू बहाने को वे मजबूर क्यों थीं और हम इतने पत्थरदिल क्यों हो गए कि उनके दर्द के बाबत दो हल्के और स्नेहपूर्ण बोल तक नहीं बोल पाए..हो सकता था कि हममें से कोई उनका दर्द दूर नहीं कर पाता..लेकिन कम से कम सहानुभूति के दो बोल उन्हें जिंदगी की अपनी लड़ाई में जूझने का जज्बा तो देते....काश कि मैं ही साहस दिखा पाया होता अपनी खोल से बाहर निकलने का। (लेखक टेलीविजन पत्रकार हैं)


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