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डॉ. मनमोहन सिंह : विफलता के चार दशक

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शिवानन्द द्विवेदी

एक पत्रकार वार्ता (जनवरी 2014) में डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि मेरा मूल्यांकन इतिहास करेगा। इसमें कोई शक नहीं कि चार दशक तक किसी एक राजनीतिक दल के साथ पूरी वफादारी और राजनीतिक निष्ठा से सरकार में शीर्ष पदों पर काम करने वाले व्यक्ति का मूल्यांकन होना स्वाभाविक है। इसमें कोई शक नहीं कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में डॉ. मनमोहन सिंह उन चंद लोगों में से एक हैं, जिन्हें इतिहास ने सर्वाधिक अवसर दिया है। 
विमुद्रीकरण के मुद्दे पर जब डॉ. मनमोहन सिंह राज्यसभा में केंद्र सरकार को घेरते हुए कांग्रेस का पक्ष रख रहे थे, तो मैं उनके भाषण को बहुत ध्यान से सुन रहा था। विमुद्रीकरण को लेकर उन्होंने एक वाक्य कहा, 'यह संगठित लूट है।' डॉ. मनमोहन सिंह ने इसके तमाम नुकसान गिनवाए। उनके भाषण में कृषि की चिंता थी, जीडीपी की चिंता थी, ग्रामीण सहकारी बैंकों में होने वाली समस्याओं की चिंता थी, गरीबों की चिंता थी और दूरगामी परिणामों में लगने वाले वक्त की चिंता थी। साथ ही उन्होंने कुछ रचनात्मक प्रस्ताव के साथ आने की सलाह देते हुए सरकार की आलोचना भी की। 
 
डॉ. मनमोहन सिंह आज उस मुकाम पर हैं कि जब वो सदन में बोल रहे थे तो यह समझना मुश्किल था कि राज्यसभा के फ्लोर से एक पूर्व आर्थिक सलाहकार बोल रहा है या एक रिजर्व बैंक का पूर्व गवर्नर बोल रहा है! यह समझ पाना बिलकुल आसान नहीं था कि देश की जनता एक पूर्व वित्त सचिव को सुन रही है अथवा पूर्व वित्तमंत्री को सुन रही है! एक आम भ्रम लोगों में मन में जरुर बैठा होगा कि वे एक पूर्व प्रधानमंत्री को सुन रहे हैं अथवा एक कांग्रेस के सांसद को सुन रहे हैं? लोग तो यह भी जानना चाहते होंगे कि राज्यसभा से किसी पार्टी का एक राजनेता बोल रहा है अथवा एक अर्थशास्त्री बोल रहा है! वो क्या-क्या रहे हैं, किस-किस भूमिका में रहे हैं, वर्तमान में वो क्या हैं और किस भूमिका में हैं, उनका दायित्व क्या है और उनकी जवाबदेही क्या है, इन सवालों से उनके समर्थक चिढ़ते नजर आते हैं। 
 
डॉ. मनमोहन सिंह का मूल्यांकन करने से पहले उनके सार्वजनिक दायित्वों पर एक संक्षिप्त नजर अवश्य डालनी चाहिए। भारत सरकार की वेबसाइट (pmindia.gov.in) पर दिए परिचय को अगर सही मानें तो वर्ष 1957 में अर्थशास्त्र में परास्नातक की डिग्री लेने वाले डॉ. मनमोहन सिंह ऑक्सफ़ोर्ड विवि के नुफिल्ड कॉलेज से डी.फिल हैं। अपने करियर की शुरुआत एक शिक्षक के रूप में करने वाले डॉ. मनमोहन सिंह 1971 में वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार की भूमिका में आए। महज एक साल में उनको वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार का दायित्व मिल गया। तब देश में इंदिरा गांधी की सरकार थी। 
 
जब डॉ. मनमोहन सिंह वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार थे तब प्रणब मुखर्जी भारत सरकार में मंत्री बन चुके थे। यही वो दौर था जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो रहा था। इस दौरान डॉ. मनमोहन सिंह वित्त मंत्रालय के सचिव, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और रिजर्व बैंक के मुखिया भी रहे। रिजर्व बैंक का गवर्नर तो संभवत: उन्हें वित्तमंत्री रहते प्रणब मुखर्जी ने ही बनाया था। उनके दायित्वों से यह अंदाजा लगता है कि आर्थिक मामलों में डॉ. मनमोहन सिंह इंदिरा गांधी के अति विश्वासपात्र अथवा वफादार लोगों में से थे। 1991-96 में डॉ. मनमोहन सिंह देश के वित्तमंत्री बने। हालांकि कहा जाता है कि वित्तमंत्री के तौर डॉ. मनमोहन सिंह तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की पहली पसंद नहीं थे। फिर 2004 में संप्रग-1 में प्रधानमंत्री बने और दस साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे।
 
यहां परिचय देने का मकसद यह था कि एक व्यक्ति जो देश की आर्थिक व्यवस्था में चार दशकों तक निर्णायक एवं शीर्ष पदों पर रहा है, उसे भी 2014 में आकर एक ढाई साल पहले निर्वाचित हुए प्रधानमंत्री से 'आर्थिक अव्यवस्था' की शिकायत करनी पड़ रही है! जब डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री मोदी से ग्रामीण एवं सहकारी बैंकों की स्थिति पर शिकायत कर रहे थे, ऐसा लग रहा था कि मानो खुद की चार दशकों की विफलता की शिकायत कर रहे हों। चार दशक पहले बैंकों के राष्ट्रीयकरण के दौरान सरकार में सलाहकार रहने वाले डॉ. मनमोहन सिंह को खुद यह बताना चाहिए कि आखिर वो किन नीतियों के आधार पर तत्कालीन सरकार को सलाह दे रहे थे अथवा खुद काम कर रहे थे कि वर्ष 2014 तक इस देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों की पहुंच दुरुस्त नहीं हो सकी और आज भी उन्हें शिकायत करनी पड़ रही है? 
 
वर्ष 2014 तक देश के 42 फीसदी से ज्यादा आबादी की पहुंच बैंक तक नहीं थी यानी उनके पास बैंक खाते तक नहीं थे। आखिर डॉ. मनमोहन सिंह आर्थिक सलाहकार से चार दशक तक अर्थव्यवस्था से जुड़े महत्वपूर्ण पदों पर लगातार रहते हुए प्रधानमंत्री तक के ताकतवर पद तक पहुंचने के बावजूद क्यों ये नहीं पूरा कर पाए? बैंकों के राष्ट्रीयकरण के दौरान ही सरकार में आर्थिक सलाहकार के तौर पर जुड़ने वाले डॉ. मनमोहन सिंह की विफलता की कहानी यही है कि चार दशक बाद 2004 में प्रधानमंत्री बनने के बावजूद वो इस देश की आम जनता को मुख्यधारा की बैंकिंग अर्थव्यवस्था से जोड़ पाने में नाकाम साबित हुए। 
 
राज्यसभा में बोलते हुए डॉ. मनमोहन सिंह ने जीडीपी विकास दर में 2 फीसदी की गिरावट का अंदेशा जताया, लेकिन जीडीपी विकास दर के सवाल पर वो यह बताना क्यों नहीं मुनासिब समझे कि उनके दस साल के कार्यकाल में जीडीपी लगातार किन वजहों से अस्थिर रही थी? अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान देश की जीडीपी विकास दर लगभग 8.4 फीसदी तक पहुंच गई थी। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के बाद डॉ. मनमोहन सिंह की तत्कालीन गठित सरकार को जीडीपी दर विरासत से ठीक-ठाक मिली लेकिन डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दस साल सरकार चलने के बाद जब वर्ष 2014 में एकबार फिर भाजपा-नीत सरकार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी तो डॉ. मनमोहन सिंह से मोदी को 4.74 (2013 की जीडीपी विकास दर) फीसदी जीडीपी विकास दर मिली। आज भारत की विकास दर 7.3 फीसदी के आसपास है, लेकिन मनमोहन सिंह जीडीपी को लेकर बेहद चिंतित नजर आ रहे हैं! यह चिंता हास्यास्पद, बेवजह एवं निराशाजनक है। जब जीडीपी पर बात चल रही हो तो सवाल मोदी से नहीं डॉ. मनमोहन सिंह से होना चाहिए कि आज जिस जीडीपी का आप हिसाब और आकलन कर रहे हैं, उसे आप ढाई साल पहले प्रधानमंत्री रहते छोड़कर किस हाल में गए थे?
 
कांग्रेस ने डॉ. मनमोहन सिंह को सारी आलोचनाओं से परे साबित करने की अनेक कोशिशें की हैं। देश इस भ्रम में नहीं रहने वाला कि डॉ. मनमोहन सिंह का मूल्यांकन एक अर्थशास्त्री के तौर पर करे अथवा एक प्रशासक प्रधानमंत्री के तौर पर। चूंकि दोनों ही मोर्चों पर जब-जब डॉ. मनमोहन सिंह को ताकतवर पद मिला है, वे नाकाम साबित हुए हैं। बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने एक भ्रष्ट और लूटतंत्र वाली सरकार दी है जिसके मंत्रियों को लूट एवं भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में जेल तक जाना पड़ा है। डॉ. मनमोहन सिंह एक बेहद कमजोर प्रशासक इसलिए भी हैं कि कोयला मंत्रालय उनके अंतर्गत रहते हुए उसी विभाग में हुए घोटालों को रोक पाने में वे बुरी तरह नाकाम साबित हुए। आज राज्यसभा से जब वे 'संगठित लूट' का जूमला फेंक रहे थे तो यह इतिहास उन्हीं को आइना दिखा रहा था। एक और बिंदु है, जिसको लेकर कांग्रेस उनका महिमामंडन करती है। भारत में उदारीकरण के जनक के रूप में जिस ढंग से डॉ. मनमोहन सिंह की छवि को कांग्रेस पेश करती है, वो महज एक छलावा है।
 
उदारीकरण को लेकर हमें यह समझना होगा कि बतौर राजनीतिक दल कांग्रेस अथवा बतौर अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह में से कोई भी कभी उदारीकरण का हिमायती नहीं रहा है। उदारीकरण न तो कांग्रेस की नीति रही है और न ही डॉ. मनमोहन सिंह का कभी विजन रहा है। भारत में उदारीकरण आर्थिक तंगी की मज़बूरी की देन से ज्यादा कुछ भी नहीं है। आपके पास जब कुछ नहीं बचा तो आप मज़बूरी में उदारीकरण को स्वीकार किए जबकि इसके पहले कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में समाजवादी व्यवस्था की प्रबलता थी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय अनेक बार सार्वजनिक क्षेत्रों के विस्तार पर कांग्रेस की सरकारों की आलोचना करते रहे थे। अब मज़बूरी में आए उदारीकरण को मनमोहन सिंह की आर्थिक दूरदृष्टि के रूप में पेश करके कांग्रेस देश को गुमराह नहीं कर सकती। उदारीकरण देश में उत्‍पन्न विकट परिस्थितियों की देन थी, न कि मनमोहन सिंह के आर्थिक विजन की। 
 
डॉ. मनमोहन सिंह का मूल्यांकन जब इतिहास करेगा तो दो बातें निकलकर आएंगी। पहली बात कि चार दशक से ज्यादा एक ख़ास राजनीतिक पृष्ठभूमि में लगातार महत्वपूर्ण एवं निर्णायक पदों पर रहने वाले भारत के चंद लोगों में से एक डॉ. मनमोहन सिंह हैं। दूसरी बात यह निकलकर आएगी कि डॉ. मनमोहन सिंह अवसरों के नायक रहे हैं। इनकी न अपनी कोई नीति रही है, न निर्णय रहा है और न ही ये किसी बदलाव के मौलिक निर्माता रहे हैं। 
 
(लेखक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम के संपादक हैं।)

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