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आपातकाल का खतरा अभी शेष है!

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अनिल जैन

आपातकाल यानी भारतीय लोकतंत्र का एक स्याह और शर्मनाक अध्याय....एक दुःस्वप्न...एक मनहूस कालखंड! पूरे चालीस बरस हो गए जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता की सलामती के लिए आपातकाल लागू कर समूचे देश को कैदखाने में तब्दील कर दिया था।
 
विपक्षी दलों के तमाम नेता और कार्यकर्ता जेलों में ठूंस दिए गए थे। सेंसरशिप लागू कर अखबारों की आजादी का गला घोंट दिया गया था। संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका आदि सभी संवैधानिक संस्थाएं इंदिरा गांधी के रसोईघर में तब्दील हो चुकी थी, जिसमें वही पकता था जो वे और उनके बेटे संजय गांधी चाहते थे। सरकार के मंत्रियों समेत सत्तारूढ़ दल के तमाम नेताओं की हैसियत मां-बेटे के अर्दलियों से ज्यादा नहीं रह गई थी। आखिरकार पूरे 21 महीने बाद जब चुनाव हुए तो जनता ने अपने मताधिकार के जरिए इस तानाशाही के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से ऐतिहासिक बगावत की और देश को आपातकाल के अभिशाप से मुक्ति मिली।
 
आपातकाल की चालीसवीं सालगिरह के मौके पर इसी पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने देश में फिर से आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जता कर देश के राजनीतिक हलकों में खलबली मचा दी है। हालांकि आडवाणी इससे पहले भी कई मौकों पर आपातकाल को लेकर अपने विचार व्यक्त करते रहे हैं, मगर यह पहला मौका है जब उनके विचारों से आपातकाल की अपराधी कांग्रेस नहीं, बल्कि उनकी अपनी पार्टी भाजपा अपने को हैरान-परेशान महसूस करते हुए बगले झांक रही है। वह भाजपा जो कि आपातकाल को याद करने और उसकी याद दिलाने में हमेशा आगे रही है। 
 
गौरतलब है कि आडवाणी ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया है कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर है और पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर दोहराई नहीं जा सकतीं।
 
बकौल आडवाणी, 'भारत का राजनीतिक तंत्र अभी भी आपातकाल की घटना के मायने पूरी तरह से समझ नहीं सका है और मैं इस बात की संभावना से इनकार नहीं करता कि भविष्य में भी इसी तरह से आपातकालीन परिस्थितियां पैदा कर नागरिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है। आज मीडिया पहले से अधिक सतर्क है, लेकिन क्या वह लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध भी है? कहा नहीं जा सकता। सिविल सोसायटी ने भी जो उम्मीदें जगाई थीं, उन्हें वह पूरी नहीं कर सकी हैं। लोकतंत्र के सुचारु संचालन में जिन संस्थाओं की भूमिका होती है, आज भारत में उनमें से केवल न्यायपालिका को ही अन्य संस्थाओं से अधिक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।'  
 
आडवाणी ने देश में आपातकाल जैसी स्थिति की वापसी को लेकर जो आशंका जताई है, उसे एक दल विशेष के क्षुब्ध या असंतुष्ट नेता के बयान के रूप में ही नहीं लिया जा सकता। दरअसल, यह आधुनिक भारत के राजनीतिक विकास के सफर में लंबी और सक्रिय भूमिका निभा चुके एक तजुर्बेकार राजनेता की चिंता है। भाजपा आज जिस मुकाम पर है, उसे वहां तक पहुंचाने में आडवाणी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। केंद्र के साथ ही कई राज्यों में शासन कर रही इस पार्टी में नए नेतृत्व ने आडवाणी को आज भले ही औपचारिक तौर पर 'मार्गदर्शक' बनाकर हाशिए पर डाल दिया हो पर उन्होंने देश में लोकतंत्र विरोधी प्रवृत्तियों के पनपने पर चिंता जताकर भाजपा के नहीं, देश के भी मार्गदर्शक के रुप में खुद को पेश करने की कोशिश की है।
 
आपातकाल संबंधी आडवाणी के विचारों को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष ने चाहे जैसी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हों, लेकिन आपातकाल की चालीसवीं सालगिरह को हमें अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और संचालन संबंधी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।
  
जहां तक राजनीतिक दलों का सवाल है, देश में इस समय सही मायनों में दो ही अखिल भारतीय पार्टियां हैं- कांग्रेस और भाजपा। कांग्रेस के खाते में तो आपातकाल लागू करने का पाप पहले से ही दर्ज है, जिसका उसे आज भी कोई मलाल नहीं है। यही नहीं, उसकी अंदरूनी राजनीति में आज भी लोकतंत्र के प्रति कोई आग्रह दिखाई नहीं देता। पूरी पार्टी आज भी एक ही परिवार की परिक्रमा करती नजर आती है।
 
आजादी के बाद लंबे समय तक देश पर एकछत्र राज करने वाली इस पार्टी की आज हालत यह है कि उसके पास लोकसभा में आधिकारिक विपक्षी पार्टी की शर्त पूरी करने जितने भी सदस्य नहीं हैं। ज्यादातर राज्यों में भी वह न सिर्फ सत्ता से बेदखल हो चुकी है बल्कि मुख्य विपक्षी दल की हैसियत भी खो चुकी है। दूसरी तरफ भाजपा के भीतर भी हाल के दिनों मे ऐसी प्रवृत्तियां मजबूत हुई है, जिनका लोकतांत्रिक मूल्यों और कसौटियों से कोई सरोकार नहीं है। सरकार में सारी शक्तियां एक समूह के भी नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटी हुई हैं। असहमति की आवाजों को चुप करा देने या शोर में डुबो देने की कोशिशें साफ नजर आ रही हैं। 
 
लेकिन बात नरेंद्र मोदी या उनकी सरकार की ही नहीं है, बल्कि आजादी के बाद भारतीय राजनीति की ही यह बुनियादी समस्या रही है कि वह हमेशा से व्यक्ति केंद्रित रही है। हमारे यहां संस्थाओं, उनकी निष्ठा और स्वायत्तता को उतना महत्व नहीं दिया जाता, जितना महत्व करिश्माई नेताओं को दिया जाता है। नेहरू से नरेंद्र मोदी तक की यही कहानी है। इससे न सिर्फ राज्यतंत्र के विभिन्न उपकरणों, दलीय प्रणालियों, संसद, प्रशासन, पुलिस, और न्यायिक संस्थाओं की प्रभावशीलता का तेजी से पतन हुआ है, बल्कि राजनीतिक स्वेच्छाचारिता और गैरजरूरी दखलंदाजी में भी बढ़ोतरी हुई है।
 
आडवाणी का कहना है कि नई पीढ़ी के नेताओं में लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थानों के प्रति वैसा सम्मान और प्रतिबद्धता नहीं दिखती, जैसी पिछली पीढ़ी बहुत सारे नेताओं में थी। यह बात भी कमोबेश सभी दलों के नेताओं पर लागू होती है और मामला गंभीर है। सारी पार्टियों में ऐसे नेताओं की बहुतायत और वर्चस्व है, जिनके लिए लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थानों को बनाए रखना और बेहतर बनाना मायने नहीं रखता। फौरी राजनीतिक लाभ के लिए वे इनकी अक्सर उपेक्षा करते रहते हैं।
 
हालांकि आडवाणी ने अपने पूरे वक्तव्य में आपातकाल के खतरे के संदर्भ में किसी पार्टी अथवा व्यक्ति विशेष का नाम नहीं लिया है। मगर चूंकि इस समय केंद्र के साथ ही देश के अधिकांश प्रमुख राज्यों में भाजपा या उसके गठबंधन की सरकारें हैं और नरेंद्र मोदी सत्ता के केंद्र में हैं, लिहाजा आमतौर पर माना यही जा रहा है कि आडवाणी की टिप्पणी का परोक्ष इशारा मोदी की ओर ही है। यह जगजाहिर है कि किसी समय मोदी के राजनीतिक संरक्षक माने जाने वाले आडवाणी को राष्ट्रीय राजनीति में मोदी का आगमन रास नहीं आया था। जब संघ के दबाव में मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया, तब भी आडवाणी ने खुलकर अपनी नाखुशी और असहमति जताई थी। लेकिन आडवाणी की टिप्पणी को महज भाजपा के अंदरूनी मामलों तक सीमित करके देखना एक किस्म का सतही विश्लेषण होगा। दरअसल मामला कहीं अधिक गंभीर है और आडवाणी की बात एक कड़वी हकीकत की ओर संकेत करती नजर आती है। 
 
आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी। आज फिर वैसा ही नजारा दिख रहा है। सारे अहम फैसले संसदीय दल तो क्या, केद्रीय मंत्रिपरिषद की भी आम राय से नहीं किए जाते; सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री की चलती है। इस प्रवृत्ति की ओर पिछले दिनों पत्रकार रहे भाजपा के ही एक अन्य वरिष्ठ नेता अरुण शौरी ने भी इशारा किया था। 
 
आपातकाल के दौरान संजय गांधी और उनकी चौकड़ी की भूमिका गैर-संवैधानिक हस्तक्षेप की मिसाल थी, तो आज वही भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निभा रहा है। आपातकाल के दौर में उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने चाटुकारिता और राजनीतिक बेहयाई की सारी सीमाएं लांघते हुए 'इंदिरा इज इंडिया-इंडिया इज इंदिरा' का नारा पेश किया था। आज भाजपा में भी ऐसे कई नेता हैं जो नरेंद्र मोदी को जब-तब दैवीय शक्ति का अवतार बताने में कोई संकोच नहीं करते। मोदी देश-विदेश में जहां भी जाते हैं, उनके उत्साही समर्थक किसी रॉक स्टार की तर्ज पर मोदी-मोदी का शोर मचाते हैं और मोदी इस पर मुदित नजर आते हैं।
 
अन्य छोटे-बड़े दलों की भी हालत भी भाजपा या कांग्रेस से भिन्न नहीं है। सभी पार्टियां सुप्रीमो संस्कृति की शिकार होकर एक व्यक्ति या परिवार विशेष की जागीरें बनी हुई हैं जिनमें कार्यकर्ताओं की स्थिति बंधुआ मजदूरों या फिर सत्ता के दलालों जैसी है। आंतरिक लोकतंत्र के लिए किसी पार्टी में कोई जगह नहीं है। अलबत्ता वामपंथी दलों को इसका अपवाद कहा जा सकता है। असहमति और शांतिपूर्ण विरोध पर दमन के मामले में तमाम गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेस सरकारों का रिकॉर्ड भी उजला नहीं हैं। लेकिन इस सबके बावजूद आज विपक्ष में बैठी कांग्रेस या या अन्य पार्टियां इस स्थिति में यानी इतनी ताकतवर नहीं हैं कि वे नागरिक अधिकारों के निलंबन का खतरा पैदा कर पाएं। जाहिर है कि आडवाणी की टिप्पणी का फौरी ताल्लुक मोदी-राज के तौर-तरीकों से है। 
 
लेकिन आडवाणी की चिंताएं सिर्फ राजनीतिक दलों तक ही सीमित नहीं है। उन्हें आज देश में लोकतंत्र का पहरूए कहे जा सकने वाले ऐसे संस्थान भी नजर नहीं आते, जिनकी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता संदेह से परे हो। आज की पत्रकारिता आपातकाल के बाद जैसी नहीं रह गई है। इसकी अहम वजहें हैं- बड़े कॉरपोरेट घरानों का मीडिया क्षेत्र में प्रवेश और मीडिया समूहों में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होड़। व्यावसायिक वजहों से से तो मीडिया की आक्रामकता और निष्पक्षता बाधित हुई ही है, पेशागत नैतिक और लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों के प्रति प्रतिबद्घता का भी कमोबेश लोप हो चुका है। 
 
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आपातकाल के बाद से अब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था तो चली आ रही है, लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षरण जारी है। इसके बावजूद अगर भारत में लोकतंत्र मजबूत हो रहा है, तो इसकी वजह जनता मे बढ़ती लोकतांत्रिक चेतना है। जनता ज्यादा मुखर हुई है और नेताओं से ज्यादा जवाबदेही की अपेक्षा रखती है।
 
सत्तर के दशक तक में केंद्र के साथ ही ज्यादातर राज्यों मे भी कांग्रेस का शासन था, इसलिए देश पर आपातकाल आसानी से थोपा जा सका। अब ऐसी निर्द्वंद्व सत्ता होना तकरीबन नामुमकिन है। लेकिन यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए, यह जरूरी नहीं। वह लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड़ में भी हो सकता है। इस दिशा में शासक वर्ग की कोशिशें जारी भी हैं। आडवाणी की चिंता को इसी परिपेक्ष्य मं  देखने और समझने की दरकार है। 

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