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लाठी, गोली, सेंट्रल जेल-जालिमों का यही था खेल

हमें फॉलो करें लाठी, गोली, सेंट्रल जेल-जालिमों का यही था खेल
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अनिल जैन

साठ और सत्तर के दशक में विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं खासकर समाजवादियों के बीच सरकार विरोधी दो नारे खूब प्रचलित थे। एक था- 'लाठी-गोली-सेंट्रल जेल, जालिमों का अंतिम खेल' और दूसरा था- 'दम है कितना दमन में तेरे, देखा है और देखेंगे-कितनी ऊंची जेल तुम्हारी, देखी है और देखेंगे।' दोनों ही नारे आपातकाल के दौर में खूब चरितार्थ हुए। विपक्षी दलों के तमाम नेता-कार्यकर्ता, सरकार से असहमति रखने वाले बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार, पत्रकार आदि जेलों में ठूंस दिए गए थे। यही नहीं, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की रीति-नीति का विरोध करने वाले सत्तारूढ़ कांग्रेस के भी कुछ दिग्गज नेता जेल के सींखचों के पीछे भेज दिए गए थे। 
 
दरअसल, बिहार और गुजरात के छात्र आंदोलनों ने इंदिरा गांधी की हुकूमत की चूलें हिला दी थीं और उसी दौरान समाजवादी नेता राजनारायण की चुनाव याचिका पर आए इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले ने आग में घी काम किया था। इसी सबसे घबराकर इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए देश पर आपातकाल थोपा था। इंदिरा गांधी इतनी सशंकित और भयाक्रांत हो चुकी थी कि आपातकाल लागू करने से कुछ घंटे पहले ही उन्होंने अपने विश्वस्त और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे से मंत्रणा के दौरान आशंका जताई थी कि वे अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की 'हेट लिस्ट' में हैं और कहीं ऐसा तो नहीं कि निक्सन उनकी सरकार का भी उसी तरह तख्ता पलट करवा दें, जैसा कि उन्होंने चिली के राष्ट्रपति सल्वादोर अलेंदे का किया है।
 
उन्हें इस बात की भी शंका थी कि उनके मंत्रिमंडल में शामिल कुछ लोग सीआईए के एजेंट हो सकते हैं। उनके शक और डर का आलम यह था कि उन्होंने उस समय के उत्तरप्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा के बंगले पर भी जासूसी के लिए आईबी का डीएसपी रैंक का अधिकारी तैनात कर दिया था।
आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए। अभिव्यक्ति का ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया।
 
25 जून की रात से ही देश भर में विपक्षी नेताओं-कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का दौर शुरू हो गया। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चौधरी चरणसिंह, अटलबिहारी वाजपेयी, मधु लिमए, बीजू पटनायक, लालकृष्ण आडवाणी, मधु दंडवते आदि तमाम विपक्षी नेता मीसा यानी आंतरिक सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिए। जो लोग पुलिस से बचकर भूमिगत हो गए, पुलिस ने उनके परिजनों को परेशान करना शुरू कर दिया। किसी के पिता को, तो किसी की पत्नी या भाई को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी का आधार तैयार करने के लिए तरह-तरह के मनगढ़ंत और अविश्सनीय हास्यास्पद आरोप लगाए गए।
 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. रघुवंश को रेल की पटरियां उखाड़ने का आरोप लगाकर गिरफ्तार किया गया। जबकि हकीकत यह थी कि उनके दोनों हाथ भी ठीक से काम नहीं करते थे। इसी तरह मध्यप्रदेश के एक बुजुर्ग समाजवादी कार्यकर्ता पर आरोप लगाया गया कि वे टेलीफोन के खंभे पर चढ़कर तार काट रहे थे। प्रख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा को उनकी लिखी बहुत पुरानी एक कविता का मनमाना अर्थ लगाकर गिरफ्तार करने की तैयारी इलाहबाद के जिला प्रशासन ने कर ली थी। लेकिन जब श्रीमती गांधी को उनके करीबी एक पत्रकार ने यह जानकारी देने के साथ ही याद दिलाया कि महादेवी जी पंडित नेहरू को अपने भाई समान मानती थीं, तब कहीं जाकर श्रीमती गांधी के हस्तक्षेप से उनकी गिरफ्तारी रुकी।  
 
बात गिरफ्तारी तक ही सीमित नहीं थी, जेलों में बंद कार्यकर्ताओं को तरह-तरह से शारीरिक और मानसिक यातनाएं देने का सिलसिला भी शुरू हो गया। कहीं-कहीं तो निर्वस्त्र कर पिटाई करने, पेशाब पिलाने, उन्हें खूंखार अपराधी और मानसिक रूप से विक्षिप्त कैदियों के साथ रखने और उनकी बैरकों सांप-बिच्छू और पागल कुत्ते छोड़ने जैसे हथकंडे भी अपनाए गए। ऐसी ही यातनाओं के परिणामस्वरुप कई लोगों की जेलों में ही मौत हो गई, तो कई लोग गंभीर बीमारियों के शिकार हो गए।
 
सोशलिस्ट पार्टी की कार्यकर्ता रहीं कन्नड़ फिल्मों की अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी का नाम ऐसे ही लोगों में शुमार है, जिनकी मौत जेल में हो गई थी। समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस आपातकाल की घोषणा होते ही भूमिगत हो गए थे और उन्होंने अपने कुछ अन्य भूमिगत सहयोगियों की मदद से तानाशाही का मुकाबला करने का कार्यक्रम बनाया था। सरकार उनके इस अभियान को लेकर बुरी तरह आतंकित थी, लिहाजा जार्ज की गिरफ्तारी के लिए दबाव बनाने के मकसद से उनके भाई लॉरेंस और माइकल फर्नांडिस को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उनसे जॉर्ज का सुराग लगाने के लिए उन्हें जेल में बुरी तरह से यातनाएं दी गईं।
 
कई मीसा बंदियों ने अपने-अपने राज्यों के हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की थी, लेकिन सभी स्थानों पर सरकार ने एक जैसा जवाब दिया कि आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निलंबित है और इसलिए किसी भी बंदी को ऐसी याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है। जिन हाईकोर्टों ने सरकारी आपत्ति को रद्द करते हुए याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निर्णय दिए, सरकार ने उनके विरुद्ध न केवल सुप्रीम कोर्ट में अपील की बल्कि उसने इन याचिकाओं के पक्ष में फैसला देने वाले न्यायाधीशों को दंडित भी किया। 
 
असुरक्षा बोध से बुरी तरह ग्रस्त श्रीमती गांधी को उस दौर में अगर सर्वाधिक विश्वास किसी पर था तो वह थे उनके छोटे बेटे संजय गांधी। संविधानेत्तर सत्ता केंद्र के तौर उभरे संजय गांधी आपातकाल के पूरे दौर में सरकारी आतंक के पर्याय बन गए थे। सबसे पहले उन्होंने दिल्ली को सुंदर बनाने का बीड़ा उठाया। इस सिलसिले में उनके बदमिजाज आवारा दोस्तों की सलाह पर दिल्ली को सुंदर बनाने के नाम पर लालकिला और जामा मस्जिद के नजदीक तुर्कमान गेट के आसपास की बस्तियों को बुलडोजरों की मदद से उजाड़ दिया गया, जिससे बड़ी तादाद में लोग बेघर हो गए। कुछ लोगों ने प्रतिरोध करने की कोशिश की तो उन्हें गोलियों से भून दिया गया।
 
अपनी प्रगतिशील छवि बनाने के लिए संजय गांधी ने उस दौर में इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय कार्यक्रम से इतर पांच सूत्रीय कार्यक्रम पेश किया था, जिसके प्रचार-प्रसार में पूरी सरकारी मशीनरी झोंक दी गई थी। उस बहुचर्चित पांच सूत्रीय कार्यक्रम में सबसे ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था। इस कार्यक्रम पर अमल के लिए पुरुषों और महिलाओं की नसबंदी के लिए पूरा सरकारी अमला झोंक दिया गया था अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए जिला कलेक्टरों और अन्य प्रशासनिक अधिकारियों पर ज्यादा से ज्यादा लोगों की नसबंदी करने का ऐसा जुनून सवार हुआ कि वे पुलिस की मदद से रात में गांव के गांव घिरवाकर लोगों की बलात नसबंदी कराने लगे। आंकड़े बढ़ाने की होड़ के चलते इस सिलसिले में बूढ़ों-बच्चों, अविवाहित युवक-युवतियों तक की जबरन नसबंदी करा दी गई। सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गई थी, लेकिन कहीं से भी प्रतिरोध की कोई आवाज नहीं उठ रही थी।
 
उस कालखंड की ऐसी हजारों दारुण कथाएं हैं। कुल मिलाकर उस दौर में हर तरफ आतंक, अत्याचार और दमन का बोलबाला था। सर्वाधिक परेशानी का सामना उन परिवारों की महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को करना पड़ा, जिनके घर के कमाने वाले सदस्य बगैर किसी अपराध के जेलों मे ठूंस दिए गए थे। आखिरकार पूरे 21 महीने बाद जब चुनाव हुए तो जनता ने अपने मताधिकार के जरिए इस तानाशाही के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से ऐतिहासिक बगावत की और देश को आपातकाल के अभिशाप से मुक्ति मिली। लेकिन उन 21 महीनों में जो जख्म देश के लोकतंत्र को मिले उनमें से कई जख्म आज भी हरे हैं। 

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