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किसकी नजर लग गई हमारी खुशमिजाजी को?

'वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक 2017'

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अनिल जैन

हम भारतीयों का जीवन-दर्शन रहा है- 'संतोषी सदा सुखी।' हालात के मुताबिक खुद को ढाल लेने और अभाव में भी खुश रहने वाले समाज के तौर पर हमारी विश्वव्यापी पहचान रही है। दुनिया में भारत ही संभवत: एकमात्र ऐसा देश है, जहां आए दिन कोई न कोई तीज-त्योहार-व्रत और धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सव मनते रहते हैं, जिनमें मगन रहते हुए गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने सारे अभाव और दुख-दर्द को अपना प्रारब्ध मानकर खुश रहने की कोशिश करता है। 
 
इसी भारत भूमि से वर्धमान महावीर ने 'अपरिग्रह' का संदेश दिया और इसी धरती पर बाबा कबीर भी हुए जिन्होंने इतना ही चाहा जिससे कि उनकी और उनके परिवार की दैनिक जरूरतें पूरी हो जाए और दरवाजे पर आने वाला कोई साधु-फकीर भी भूखा न रह सके। 
 
लेकिन दुनिया को योग और अध्यात्म से परिचित कराने वाले इस देश की स्थिति में पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बदलाव आया है। अब लोगों की खुशी और आत्मसंतोष के स्तर में लगातार गिरावट आती जा रही है। इस बदलाव की पुष्टि हाल ही में जारी वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक से भी होती है जिसमें भारत को 122वां स्थान मिला है। 
 
यह 'प्रसन्नता सूचकांक' संयुक्त राष्ट्र का एक संस्थान हर साल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वे करके जारी करता है। इस बार सर्वे में शामिल 155 देशों में भारत का स्थान इतना नीचे है, जितना कि अफ्रीका के कुछ बेहद पिछड़े देशों का है। सवाल उठता है कि पिछले 1 साल में भारत 118 से 4 सीढ़ियां फिसलकर 122वें पायदान पर क्यों चला गया? 
 
'विकास पुरुष' नरेन्द्र मोदी जैसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री के रहते हुए तो अच्छे दिन आने चाहिए थे लेकिन ये बुरे दिनों की शुरुआत क्यों हो गई? सुखी देशों की कतार में भारत इतना फिसड्डी क्यों हो गया है? यह जनसंख्या के हिसाब से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है और सबसे बड़ा लोकतंत्र है।
 
नोटबंदी के सदमे के बावजूद भारत की अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा बताया जा रहा है। वह सुरक्षा परिषद का सदस्य बनने के लिए बेताब है। वह दक्षिण एशिया की बेजोड़ महाशक्ति है, फिर भी क्या वजह है कि वह सुखी देशों की कतार में बेहद पिछड़ा हुआ है? 
 
हैरान करने वाली बात यह है कि इस सूचकांक में पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, भूटान और नेपाल जैसे छोटे-छोटे पड़ोसी देश भी प्रसन्नता के मामले में भारत से ऊपर हैं यानी इन देशों के नागरिक भारतीयों के मुकाबले ज्यादा खुश हैं। यह देखकर हम यह नहीं कह सकते कि संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में कुछ न कुछ घपला या गड़बड़ी की है। 
 
संयुक्त राष्ट्र की मूल्यांकन पद्धति वैज्ञानिक होती है इसलिए उसके निष्कर्ष आमतौर पर सही ही होते हैं। वह हर देश के हालात को 6 पैमानों पर नापने की कोशिश करता है, ये हैं- सुशासन, प्रति व्यक्ति आय, स्वास्थ्य, भरोसेमंदी, स्वतंत्रता, उदारता। इन पैमानों पर भारत पिछड़ा हुआ है इसीलिए उसे दुखी देशों में ऊंचा स्थान मिलता है। ऐसा नहीं है कि भारत सभी पैमानों पर इतना पिछड़ा हुआ है कि उसे 122वें स्थान पर उतार दिया गया है। यह सही है कि हमारी प्रति व्यक्ति और सकल उत्पाद दर में वृद्धि हुई है लेकिन आर्थिक उन्नति ही सुखी होने का एकमात्र साधन नहीं है। किसी भी देश की तरक्की को मापने का सबसे प्रचलित पैमाना सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) या विकास दर है। 
 
लेकिन इसे लेकर कई सवाल उठते रहे हैं। एक तो यह कि यह किसी देश की कुल अर्थव्यवस्था की गति को तो सूचित करता है, पर इससे यह पता नहीं चलता कि आम लोगों तक उसका लाभ पहुंच रहा है या नहीं। दूसरे, जीडीपी का पैमाना केवल उत्पादन वृद्धि के लिहाज से किसी देश की तस्वीर पेश करता है। 
 
ताजा प्रसन्नता सूचकांक में नॉर्वे सबसे ऊपर है। डेनमार्क, आइसलैंड, स्विट्जरलैंड, फिनलैंड, हॉलैंड, कनाडा आदि देश पहले 10 सुखी देशों में हैं। इन सभी देशों में प्रति व्यक्ति आय काफी ज्यादा है यानी भौतिक समृद्धि, आर्थिक सुरक्षा और व्यक्ति की प्रसन्नता का सीधा रिश्ता है। फिर इन देशों में भ्रष्टाचार भी कम है और सरकार की ओर से सामाजिक सुरक्षा भी काफी है। परिवार या आर्थिक सुरक्षा का दबाव कम है इसलिए जीवन के फैसले करने की आजादी भी ज्यादा है जबकि भारत की स्थिति इन सभी पैमानों पर बहुत अच्छी नहीं है।
 
पर हम पाकिस्तान, बांग्लादेश या इराक से भी बदतर स्थिति में हैं, यह बात हैरान करने वाली है। लेकिन इस हकीकत की वजह शायद यह है कि भारत में विकल्प तो बहुतायत में हैं लेकिन सभी लोगों की उन तक पहुंच नहीं है जिसकी वजह से लोगों में असंतोष ज्यादा है। इस स्थिति के बरक्स कई देशों में जो सीमित विकल्प उपलब्ध हैं, उनके बारे में भी लोगों को ठीक से जानकारी ही नहीं है इसलिए वे अपने सीमित दायरे में ही खुश और संतुष्ट हैं। फिर भारत में तो जितनी आर्थिक असमानता है, वह भी लोगों में असंतोष या मायूसी पैदा करती है, मसलन भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च ज्यादा होता है, पर स्वास्थ्य के मानकों के आधार पर पाकिस्तान और बांग्लादेश हमसे बेहतर स्थिति में है। 
 
दरअसल, किसी देश की समृद्धि तब मायने रखती है, जब वह नागरिकों के स्तर पर हो जबकि भारत और चीन का जोर आम लोगों की खुशहाली के बजाय राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाने पर है इसलिए आश्चर्य की बात नहीं कि लंबे समय से जीडीपी के लिहाज से दुनिया में अव्वल रहने के बावजूद चीन वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक में 79वें स्थान पर है। अमेरिका सबसे अधिक उन्नत देश है लेकिन डोनाल्ड ट्रंप की 'कृपा' से वह अब कई पायदान नीचे उतर गया है। 
 
सूचकांक में बताई गई भारत की स्थिति चौंकाती भी है और चिंतित भी करती है। आश्चर्य की बात यह भी है कि आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त भोग-विलास का जीवन जी रहे लोगों की तुलना में वे लोग अधिक खुशहाल दिखते हैं, जो अभावग्रस्त हैं। हालांकि अब ऐसे लोगों की तादाद में लगातार इजाफा होता जा रहा है जिनका यकीन 'सांईं इतना दीजिए...' के उदात्त कबीर दर्शन के बजाय 'ये दिल मांगे मोर' के वाचाल स्लोगन में है। 
 
यह सब कुछ अगर एक छोटे से तबके तक ही सीमित रहता तो कोई खास हर्ज नहीं था। लेकिन मुश्किल तो यह है कि 'यथा राजा-तथा प्रजा' की तर्ज पर ये ही मूल्य हमारे राष्ट्रीय जीवन पर हावी हो रहे हैं। जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं या जिनकी आमदनी सीमित है, उनके लिए बैंकों ने 'ऋणम् कृत्वा, घृतम्‌ पीवेत' की तर्ज पर क्रेडिट कार्डों और कर्ज के जाल बिछाकर अपने खजाने खोल रखे हैं। लोग इन महंगी ब्याज दरों वाले कर्ज और क्रेडिट कार्डों की मदद से सुख-सुविधा के आधुनिक साधन खरीद रहे हैं। शान-ओ-शौकत की तमाम वस्तुओं की दुकानों और शॉपिंग मॉल्स पर लगने वाली भीड़ देखकर भी इस वाचाल स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। 
 
कुल मिलाकर हर तरफ लालसा का तांडव ही ज्यादा दिखाई पड़ रहा है। तृप्त हो चुकी लालसा से अतृप्त लालसा ज्यादा खतरनाक होती है। देशभर में बढ़ रहे अपराधों- खासकर यौन अपराधों की वजह यही है। यह अकारण नहीं है कि देश के उन्हीं इलाकों में अपराधों का ग्राफ सबसे नीचे है जिन्हें बाजारवाद ज्यादा स्पर्श नहीं कर पाया है। यह सब कहने का आशय विपन्नता का महिमामंडन करना नहीं है, बल्कि यह अनैतिक समृद्धि और उसके सह-उत्पादों की रचनात्मक आलोचना है। 
 
भारतीय आर्थिक-दर्शन और जीवन-पद्धति के सर्वथा प्रतिकूल 'पूंजी ही जीवन का अभीष्ट है' के अमूर्त दर्शन पर आधारित नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों और वैश्वीकरण से प्रेरित बाजारवाद के आगमन के बाद समाज में बचपन से अच्छे नंबर लाने, करियर बनाने, पैसे कमाने और सुविधाएं-संसाधन जुटाने की एक होड़-सी शुरू हो गई है। इसमें जो पिछड़ता है, वह निराशा और अवसाद का शिकार हो जाता है, लेकिन जो सफल होता है वह भी अपनी मानसिक शांति गंवा बैठता है। 
 
एकल परिवारों के चलन ने लोगों को बड़े-बुजुर्गों के सान्निध्य की उस शीतल छाया से भी वंचित कर दिया है, जो अपने अनुभव की रोशनी से यह बता सकती थी कि जिंदगी का मतलब सिर्फ सफल होना नहीं, बल्कि समभाव से उसे जीना है। जाहिर है, इसी का दुष्प्रभाव बढ़ती आत्महत्याओं, नशाखोरी, घरेलू कलह, रोडरेज और अन्य आपराधिक घटनाओं में बढ़ोतरी के रूप में दिख रहा है।
 
दरअसल, विकास और बाजारवाद की वैश्विक आंधी ने कई मान्यताओं और मिथकों को तोड़ा है। कुछ समय पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन की आई एक अध्ययन रिपोर्ट में भी बताया गया था कि भारत दुनिया में सर्वाधिक अवसादग्रस्त लोगों का देश है, जहां हर तीसरा-चौथा व्यक्ति अवसाद के रोग से पीड़ित है। यह तथ्य भी इस मिथक की कलई उतारता है कि विकास ही खुशहाली का वाहक है। 
 
अध्ययन में दुख, निराशा, अरुचि, अनिद्रा आदि अवसाद के जो मानक बनाए गए थे, उनके आधार पर हमारे देश को स्वाभाविक रूप से सर्वाधिक अवसादग्रस्त कहा जा सकता है, क्योंकि हमारे यहां व्यवस्था के जितने भी प्रमुख अंग हैं, चाहे वह राजनीतिक नेतृत्व हो, कार्यपालिका हो, न्याय प्रणाली हो, पुलिस हो- सभी से आम आदमी को निराशा-हताशा ही हाथ लगी है। देश के प्राकृतिक संसाधनों पर मुट्‌ठीभर लोगों के कब्जे के चलते भी देश में आर्थिक और सामाजिक विषमता को बढ़ावा मिला है। 
 
लोक-विमुख विकास की सरकारी नीतियों के चलते देशभर में व्यापक पैमाने पर लोगों का विस्थापन हुआ है। उनका यह विस्थापन महज अपने घर जमीन से ही नहीं, बल्कि अपनी सामाजिकता और संस्कृति से भी हुआ है जिसने उनमें दुख और नैराश्य भर दिया है। विपन्नता और बदहाली के महासागर में समृद्धि के चंद टापू खड़े हो जाने से पूरा महासागर समृद्ध नहीं हो जाता। 
 
संयुक्त राष्ट्र का प्रसन्नता सूचकांक और विश्व स्वास्थ्य संगठन का भारत को सर्वाधिक अवसादग्रस्त देश बताने वाला सर्वे इसी 'हकीकत' की ओर इशारा करता है।

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