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भारतीय कूटनीति की सफलता का एक और आयाम

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शरद सिंगी

पश्चिम देशों और ईरान के बीच परमाणु करार हो जाने के पश्चात ईरान पर एक दशक से चले आ रहे कठोर आर्थिक प्रतिबंध उठा लिए गए हैं। ईरान के नागरिकों के लिए यह एक बहुत ही राहत की बात है जो आधुनिक तकनीक और सुविधाओं में एक दशक पीछे छूट चुके हैं। अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नागरिक उड्डयन के क्षेत्र में पिछड़ा ईरान अब तुरंत 500 हवाई जहाज खरीदना चाहता है।
 
ईरान के प्रधानमंत्री हसन रोहानी शीघ्र यूरोप पहुंच गए और उन्होंने धड़ाधड़ व्यापारिक समझौते करना आरंभ कर दिए हैं। दुनिया भर से व्यापारिक संस्थाओं के प्रतिनिधि ईरान में डेरा डाल चुके हैं क्योकि व्यापार की अनेक संभावनाएं खुल चुकी हैं। 
 
ईरान से इन प्रतिबंधों के उठ जाने से भारत पर होने वाले प्रभावों की चर्चा करते हैं। ईरान से भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक रिश्ते सदियों पुराने हैं क्योंकि पाकिस्तान बनने से पहले ईरान भारत का पड़ोसी राष्ट्र था। ईरान पर प्रतिबंधों के बावजूद भारत, ईरान से तेल खरीदता रहा और उसकी सहायता करता रहा। इन प्रतिबंधों के हट जाने से भारत सबसे अधिक व्यापारिक लाभ की स्थिति में होगा। 
 
इसके अतिरिक्त भारत के सामने एक बहुत ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दा है जिसको लेकर भारत चिंतित है और इन प्रतिबंधों के उठ जाने के पश्चात भारत सबसे पहले इस मुद्दे पर ईरान से सहयोग चाहता है। किंतु इस मुद्दे पर चर्चा करने से पहले हम इसकी पृष्ठभूमि समझते हैं। 
 
पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में एक अविकसित बंदरगाह था जिसका नाम है ग्वादर पोर्ट। इस पोर्ट को विकसित करने और संचालित करने के लिए पाकिस्तान ने इसे सन 2013 में चीन को 40 वर्षों के लिए दे दिया है। इस पोर्ट की स्थिति बहुत ही मौके की है जहां तीन मार्गों का संगम होता है। यह पोर्ट होर्मुज़ मार्ग  के मुहाने पर है जहां से वर्ष भर में लगभग एक लाख जहाज गुजरते हैं। इसमे से 70 फीसदी जहाज कच्चा तेल ढोते हैं।
 
यह पोर्ट अरब देशों तक पहुंचने का ऐसा मुहाना हैं जहां विश्व के 48 प्रतिशत कच्चे तेल और 38 प्रतिशत प्राकृतिक गैस के भंडार हैं। इस पोर्ट के अधिकार में आने से चीन ने अपने कच्चे तेल की आपूर्ति को सुरक्षित कर लिया है। दूसरी ओर वह पाकिस्तान के सड़क मार्ग का उपयोग कर मध्य एशिया के उन राष्ट्रों तक अपना माल पहुंचाना चाहता है जिन राष्ट्रों के पास समुद्री किनारा न होने से कोई बंदरगाह नहीं हैं और महत्वपूर्ण बात यह कि इस पोर्ट के जरिये वह अमेरिकी युद्ध पोतों  की गतिविधियों पर नज़र रख सकेगा जो अरब देशों की तरफ आवाजाही करते हैं साथ ही भारत और अमेरिका के बीच होने वाली नौसैनिक अभ्यास पर भी वह निगाहें रख सकेगा। गुजरात और मुंबई के नौसैनिक अड्डे उसकी रेंज में होंगें। यह पोर्ट अरब सागर में एक सामरिक ठिये का काम करेगा जहां वह अपने सामरिक बेड़े और पनडुब्बियां रख सकता है। 
 
अब भारत की बात करें। भारत की भी यही जरूरतें हैं जो चीन की हैं। उसे भविष्य के लिए ऊर्जा की सुरक्षा चाहिए अर्थात कच्चे तेल अनवरत आपूर्ति। मध्य एशिया का बाजार चाहिए और अफगानिस्तान तक माल पहुंचाने के लिए कोई वैकल्पिक मार्ग। ध्यान रहे अफगानिस्तान के पास कोई समुद्री सीमा नहीं है। इन सब के लिए उसे पाकिस्तान का ग्वादर पोर्ट मिलने से तो रहा। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारत की निगाहें ईरान के चाबहार पोर्ट पर टिकी थी।
 
यह पोर्ट भी ईरान के दक्षिण में एक अविकसित पोर्ट है जिसे विकसित कर भारत उसका उपयोग ग्वादर की तरह करना चाहता है। यह पोर्ट ग्वादर पोर्ट से मात्र 77 किमी पश्चिम में होर्मुज़ के मुहाने पर है। अतः यह पोर्ट ग्वादर की तरह ही व्यापारिक पोर्ट की तरह आसानी से विकसित किया जा सकता है। यदि आप मानचित्र देखेंगे तो पाएंगे कि ये दोनों पोर्ट बहुत निकट हैं और दोनों ही सामान रूप से महत्वपूर्ण हैं समुद्री व्यापार के लिए।  इस पोर्ट के भारत के पास आ जाने से भारत, ईरान से कच्चे तेल का आयात निर्बाध रूप से कर सकेगा।
 
अफगानिस्तान के साथ व्यापार करने का एक वैकल्पिक मार्ग मिलेगा। इस बाबद अफगानिस्तान, भारत और ईरान के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता भी हो चुका है। थल मार्ग से मध्य एशिया के देशों के साथ व्यापार करने में आसानी होगी जो ईरान के उत्तर में हैं, जैसे तुर्कमेनिस्तान, कजाखस्तान, उज़्बेकिस्तान इत्यादि। इस पोर्ट का सामरिक उपयोग करने की बात भी भारत के रणनीतिकारों के दिमाग में निश्चित ही होगी। अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण बात, यह पोर्ट बलूचिस्तान से लगा हुआ है। पाकिस्तान के लिए यह समझौता एक बहुत बड़ा सिरदर्द होगा। जैसा सब जानते हैं बलूचिस्तान को लेकर पाकिस्तान, भारत के ऊपर कई प्रकार के आरोप लगा चुका है। इस पोर्ट के जरिये वह पाकिस्तान को चारों ओर से घेरने में सफल होगा।
 
इस डील को अंजाम देने के लिए भारत 15 करोड़ डॉलर का ऋण लेकर तैयार बैठा है। भारत को बहुत उम्मीदें हैं कि यह प्रोजेक्ट उसे मिल जाएगा। दोनों तरफ से वार्ताओं का दौर जारी है। उधर चीन, भारत को इस बंदरगाह से दूर रखना चाहता है, अतः उसकी ओर से इस डील को असफल करने के प्रयास होंगे। भारत की रणनीति और रणनीतिकारों के लिए यह समय परीक्षा की घड़ी हैं। यदि वे अपनी शर्तों पर इस पोर्ट को लेने में कामयाब होते हैं तो भारत के लिए यह एक बहुत बड़ी कूटनीतिक सफलता होगी जो मध्य एशिया में चीन के प्रभाव को संतुलित करेगी। विश्वास है फरवरी माह यह खुश खबर लेकर आएगा। 

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