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विचारधारा की राजनीतिक लड़ाई

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- श्याम नारायण रंगा

विचार व्यक्ति व समाज को आईना दिखाता है और यह विचार ही है, जो किसी व्यक्ति या संगठन को खड़ा करता है या रसातल में ले जाता है। व्यक्ति का निर्माण भी विचार से ही होता है और विचार की लड़ाई लड़कर ही व्यक्तियों ने इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाया है।
 
महात्मा गांधी व्यक्ति के रूप में एक स्थूल काया थे और जब विचार बनकर समाज के सामने आए, तब 'राष्ट्रपिता' भी लोग कहने लगे। यही विचारधारा राष्ट्र व समाज की दिशाएं निर्धारित करती है और निर्माण और विनाश भी करती है।
 
यहां मैं यह जरूर कहना चाहूंगा कि विचारधाराएं भिन्न होती हैं इसलिए मतांतर मान्य है, परंतु किसी भी विचार को इसलिए दरकिनार कर देना कि वो अपने खुद के विचारों से मेल नहीं खाता, लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता है।
 
अगर कोई व्यक्ति या संगठन किसी भी विचार को इसलिए सिरे से खारिज करता है कि वो विचार उसके स्वयं के विचार से मेल नहीं खाता तो ऐसे व्यक्ति को हम फासिस्ट या तानाशाह कह सकते हैं। कुछ ऐसी ही वैचारिक लड़ाई वर्तमान में भारतीय राजनीतिक पटल पर देखने को मिल रही है।
 
जबसे नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार भारत के केंद्र में सत्ता में आई है तबसे यह वैचारिक लड़ाई खुलेआम नजर आने लगी है। मुझे याद है, जब आम चुनावों के समय राहुल गांधी ने कहा था कि यह पार्टियों की नहीं, विचारों की लड़ाई है और भारतीय लोकतंत्र ने कांग्रेस विचारधारा को एकदम से नकार दिया था। लेकिन यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी विचार पर देश ने पिछले कई दशकों तक इस विचार को अपने सिर बैठाकर रखा था।
 
नरेन्द्र मोदी एक उदार चेहरा नहीं हैं और इसके साथ ही अपने से विपरीत विचारों को मानने वाले व्यक्तित्व भी नहीं हैं, यह उन्होंने अपने कार्यों और आदेशों से साबित किया है।
 
इस केंद्र सरकार ने आजादी के बाद पहली बार एक ऐसा आदेश निकाला कि पूर्व प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति सहित केंद्र के पूर्व स्वर्गीय मंत्रियों की पुण्यतिथि व जयंती अब सरकारी स्तर पर नहीं, बल्कि उनके पारिवारिक स्तर पर मनाई जाएगी और कोई भी सरकारी व्यक्ति इसमें हिस्सा नहीं लेगा, यह इस मानसिकता का जीता-जागता उदाहरण है। इसी कारण इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि पर राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति चाहकर भी शक्तिस्थल नहीं जा सके।
 
इस आदेश से यह बात समझ में आती है कि वर्तमान में जिस विचारधारा के लोग सत्ता में हैं, वे लोग अपने से विपरीत विचारधारा वाले व्यक्तियों की समाधि पर जाकर पुष्पांजलि व श्रद्धांजलि अर्पित करने के सामान्य शिष्टाचार में भी विश्वास नहीं रखते। जो भी हो, विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के पूर्व प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के लिए इस तरह के आदेश क्या तत्कालीन लोकतांत्रिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ाने जैसा नहीं है? क्या वे प्रधानमंत्री बिना जनादेश के बने थे या तत्कालीन जनता का दिमाग खराब था?
 
नहीं बल्कि बात यह है कि आजादी के बाद पहली बार गैरकांग्रेसी विचारधारा पूर्ण बहूमत के साथ सत्ता में आई है और अब इनके पास अपनी विचारधारा को थोपने का पूरा मौका है और ये लोग ऐसे पूरे प्रयास कर रहे हैं, चाहे ऐसे प्रयासों से किसी का अनादर भी क्यों न होता हो। निश्चित ही ऐसे आदेश लोकतांत्रिक शिष्टाचार तो हर्गिज नहीं कहे जा सकते हैं। 
 
एक दूसरा उदाहरण तब देखने को मिला, जब नरेन्द्र मोदी हाल ही में अपनी बांग्लादेश की यात्रा पर गए और वहां से माननीय अटल बिहारी वाजपेयी को बांग्लादेश की आजादी का सम्मान दिलवाकर ले आए। वहां पर भारतीय प्रधानमंत्री ने बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई का जिक्र किया, परंतु जिस लौह महिला कही जाने वालीं इंदिरा गांधी के कारण ऐसा संभव हो पाया था उसका जिक्र तक न करके एक बार फिर साबित कर दिया कि जैसे वे इंदिरा की समाधि पर जाकर श्रद्धांजलि अर्पित नहीं कर सकते, वैसे ही वे बांग्लादेश के निर्माण का सेहरा भी इंदिरा के सिर बंधा देख नहीं सकते।
 
नरेन्द्र मोदी ने उस संघर्ष में बांग्लादेश का साथ निभाने के लिए तत्कालीन समय में इंदिरा गांधी को शक्ति, दुर्गा व मां कहने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की प्रशंसा की और सम्मानित करवाकर भी लाए। जबकि पूरी दुनिया जानती है कि उस समय वो प्रयास इंदिरा गांधी की महत्वाकांक्षा व मजबूत इच्छाशक्ति के बिना किसी भी रूप में संभव नहीं था।
 
अब ऐसा ही कुछ नजारा 21 जून को देखने को मिलेगा, जब पूरा देश योग दिवस मनाएगा। ये वो विचारधारा वाले लोग हैं, जो शांतिवन, शक्तिस्थल, वीरभूमि पर जाकर सिर नहीं झुका सकते, परंतु केशव बलिराम हेडगेवार की पुण्यतिथि को योग दिवस के रूप में मनाकर पूरे देश को इस बात के लिए बाध्य जरूर कर सकते हैं कि आज 21 जून का दिन याद करें।
 
यहां मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं योग का विरोधी नहीं हूं सिर्फ जो 21 जून का दिन तय किया गया है, इसके पीछे जो विचार है उसको यहां प्रकट करने की कोशिश कर रहा हूं। 2 अक्टूबर की छुट्‌टी को निरस्त करने वाली सरकार 21 जून का महत्व बढ़ाना चाहती है। पूरे देश को योग करवाने के लिए किसी और दिन का भी निर्धारण किया जा सकता था, परंतु 21 जून का दिन इसलिए चुना गया, क्योंकि जिस विचारधारा से नरेन्द्र मोदी निकलकर आते हैं उस विचारधारा के सर्वोच्च व्यक्ति उस दिन स्वर्ग सिधारे थे।
 
इस तरह एक ही परिवार और विचार को स्थापित करने का जो आरोप बरसों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के लोग कांग्रेस पर लगा रहे हैं, कुछ वैसा ही काम वर्तमान सरकार खुद कर रही है कि एक ही व्यक्ति के पीछे चलना और एक ही विचार को पूरे राष्ट्र पर थोपना और एक आंख से पूरे देश को देखने की कोशिश करना है।
 
इस विषय में वाल्टेयर का यह कथन जरूर याद आता है कि 'हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं, पर विचार प्रकट करने के अपने अधिकारों की रक्षा अवश्य करूंगा।'
 
मैं यह कह अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा कि विचारों की कद्र करना सभ्य व लोकतांत्रिक राष्ट्रों व सभ्य समाज की पहचान होती है, परंतु किसी विचार व विचार से जुड़े लोगों की बेइज्जती करना, अपमान करना निश्चित ही पतन का कारण बनता है, क्योंकि जहां विचार की कद्र नहीं, वहां विकास नहीं। 

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