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हमारी उज्ज्‍वल आर्थिक प्रगति में बाधक न बने अवरोधों के अंधरे

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शरद सिंगी

दीपावली पर पारम्परिक माटी के दीयों की असंख्य कतारें घर आँगन से लेकर पूरे राष्ट्र को सदियों से प्रकाशित करती आई हैं। अब समय है जब इस प्रकाश की तीव्रता इतनी अधिक हो कि वह भारत की कीर्ति को भारतीय सीमाओं के बाहर भी पहुँचा दे। जब हम भारत के वैभव एवं ऐश्वर्य की बात करते हैं तो निश्चित ही हम उसकी अर्थव्यवस्था की बात करते हैं। 
विश्व में शायद ही किसी को संदेह होगा कि इक्कीसवीं सदी याने वर्तमान सदी में विश्व की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में एशिया का महत्वपूर्ण योगदान रहेगा। एशिया में भी विशेष भूमिका रहेगी चीन और भारत की अर्थव्यवस्था की। ये ही ऐसे दो देश हैं जिनकी अर्थव्यवस्था आज विश्व के अन्य कई विकसित और विकासशील देशों से निरंतर आगे बनी हुई है। अब एक रोचक प्रश्न है कि इन दोनों देशों में कौन आगे निकलेगा। सन् 1990 तक लगभग समानांतर चलने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से चीन की अर्थव्यवस्था ने आज भारत को बहुत पीछे छोड़ दिया है। क्या भारत इसे पकड़ पाएगा? हाथी और ड्रेगन में जीत किसकी होगी?
 
इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए हमें इन दोनों देशों की सामर्थ्य और निर्बलता का अध्ययन करना होगा। चूंकि चीन ने आर्थिक सुधारों की शुरुआत भारत की अपेक्षा बहुत पहले कर दी थी, अतः आज उसके पास एक उच्च स्तर का बुनियादी ढांचा तैयार है जो आधुनिक उद्योगों की जरूरतों को पूरी करता है जिनमें यातायात, पानी, बिजली आदि की सुविधाएँ शामिल हैं। वहीं चीन में एक तंत्रीय शासन प्रणाली होने से सरकार के नीतिगत निर्णयों में फेरबदल बार-बार नहीं होते, इस स्थिरता से आश्वस्त होकर ही विदेशी उद्योग आकर्षित होते हैं। वहां बढ़ते मध्यमवर्ग से घरेलू उपभोग भी निरंतर बढ़ रहा है जो नए उद्योगों की प्राणवायु हैं। दूसरी ओर चीन की अर्थव्यवस्था के कुछ दोष भी हैं। 
 
विशेषज्ञों  के अनुसार चीन का सबसे बड़ा दोष उसकी राजनैतिक प्रणाली है। आधुनिक युग में उसकी एक तंत्रीय प्रणाली समय के अनुकूल नहीं है। समीक्षकों का मानना है कि  आज नहीं तो कल यहाँ  बगावत के स्वर गूंजेगें और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी इससे निपटने में असफल रहेगी। तब वहां एक अशांति का दौर होगा। दूसरा बड़ा अवरोध, चीन में कम होती युवाओं की संख्या।  
 
चीन ने एक बच्चे की नीति का कड़ाई से पालन किया और अब घटती युवाओं की संख्या से निपटने के लिए चीन के पास तत्काल कोई इलाज नहीं है। भविष्य में उद्योगों में काम चाहने वाले युवाओं की संख्या कम से कमतर होने वाली है। अन्य समस्या है 14 पड़ोसी देशों से जुड़ी चीन की सीमा और लगभग इन सभी पड़ोसी देशों से चीन के सीमा विवाद। पहले तो केवल थल सीमा ही समस्या थी, किन्तु अब जल सीमा भी एक विश्स्तरीय समस्या बन चुकी है। 
 
निश्चित ही चीन की कमज़ोरियां भारत को एक अवसर देती हैं लाभ उठाने का। भारत का सबसे मज़बूत बिंदु है उसकी परिपक्व प्रजातान्त्रिक प्रणाली। यह प्रणाली  विदेशी निवेशकों को प्रोत्साहित करेगी यदि हमारे यहां भी बुनियादी सुविधाएँ (यातायात, बिजली, संचार, पानी, सुरक्षा आदि) एक बार अंतरराष्‍ट्रीय स्तर की हो जाएँ। उद्योगों को आकर्षित करने के लिए आवश्यकता है मूलभूत सुविधाओं की और निवेशकों की मांग है एक परिपक्व राजनीतिक प्रणाली ताकि निवेश सुरक्षित रहे। 
 
दूसरी ओर युवाशक्ति की बढ़ती संख्या भारत की स्थिति को  मज़बूत करेगी क्योंकि भारत के पास सन् 2045 तक युवाओं की संख्या को लेकर कोई चिंता नहीं है। जहाँ तक पड़ोसी  देशों का सवाल है, भारत के अव्वल तो इतने पड़ोसी देश हैं नहीं और पाकिस्तान तथा चीन को छोड़ दें तो मोटे तौर पर हमारे सभी पड़ोसी राष्ट्रों से मित्रता के रिश्ते हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भी भारत का पलड़ा चीन से बहुत भारी है।
 
ऐसे में यदि भारत को आधारभूत सुविधाएँ जुटाने में जापान और स्वयं चीन से सहयोग मिल गया तो भारत की अर्थव्यवस्था की उड़ान निश्चित है। भारत के पक्ष में जो सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है वह है भारत का सफल प्रजातंत्र, किन्तु ध्यान रहे यही प्रजातंत्र देश के विकास लिए अवरोध भी हो सकता है यदि प्रजातन्त्र द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता का दुरुपयोग हो जिसकी झलक भारत की संसद से लेकर प्रशासकीय निर्णयों में देखने को मिलती है। यहीं कहावत चरितार्थ होती है 'दिया तले अँधेरा'। 
 
चीन के औद्योगिक विकास की गति दिखाती है कि यदि अवरोध न हों तो विकास किस तीव्रता से किया जा सकता है। देश की जनता को निर्णय करना है कि प्रजातंत्र को विकास की राह  में बाधा न बनने दिया जाय। यह सच है कि प्रजातान्त्रिक व्यवस्था 'प्रजा की, प्रजा के लिए, प्रजा के द्वारा' है परन्तु यह सिद्धांत नागरिकों को उच्छृंखलता के अधिकार नहीं देता। स्वतंत्रता की सीमा बंधना आवश्यक है। 
 
ये तथ्य सभी राजनीतिक दलों द्वारा जितनी जल्दी समझ लिए जाएँ उतना ही देश के उज्ज्‍वल एवं तीव्रतर आर्थिक विकास के लिए हितकर होगा। इस लेखक का मानना है कि बुनियादी ढांचा खड़ा होते ही भारत के पास सम्पूर्ण संसाधन हैं हाथी को उड़ाने के लिए। ड्रेगन के उड़ने की बात तो छोड़ दीजिए क्योंकि उसकी चाल भी अब आगे धीमी होने के संकेत दे रही है। यदि हम दिए के तले अँधेरे से निपटने में सफल रहे तो अगले कुछ दशक भारत के होंगे।

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