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श्रोताओं की सचमुच कमी है?

हमें फॉलो करें श्रोताओं की सचमुच कमी है?

उमेश चतुर्वेदी

हिन्दी में पाठकों की कमी का रोना रोने की परिपाटी अब पुरानी पड़ चुकी है। राष्ट्रीय पाठक सर्वे और ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन द्वारा तैयार की जाने वाली भारतीय अखबारों की टॉप टेन की सूची में हर बार 5 से 6 अखबारों का नाम होने के बावजूद हिन्दी के प्रकाशकों को पाठकों की कमी की समस्या अब भी परेशान करती है।
 
अब यह बताना-लिखना और पूछना भी बेमानी हो गया है कि पाठकों की कमी के बावजूद प्रकाशकों के गालों की लाली क्यों बढ़ती जा रही है? क्यों उनका जीवन स्तर लगातार ऊंचा उठता जा रहा है? 
 
अव्वल तो हिन्दी का लेखक क्रांति, कॉमरेडवाद और जन सरोकार के साथ राजनीतिक नाइंसाफी की बड़ी-बड़ी चर्चाएं करता है, वक्त-बेवक्त इन सवालों को कभी आसान तरीके से तो एक-आध बार गंभीर तरीके से उठाने का कई बार दावा तो कई बार स्वांग जरूर करता है। लेकिन हिन्दी में पाठकों की कमी के रुदन का वास्तविक मीमांसा करने से घबराता रहा है।
 
अभी पाठकों की कमी के सवाल पर कायदे से विचार हुआ ही नहीं, इस सवाल का जवाब तलाशा भी नहीं गया कि अब हिन्दी में श्रोताओं की कमी का सवाल उछलकर विमर्श में आ गया है। इस सवाल को उठाया है मशहूर कवि और सांस्कृतिक प्रशासक अशोक वाजपेयी ने। 
 
दरअसल, बस्तर की बोली बानी पर हाल ही में दिल्ली के अभिजात्य इंडिया हैबिटेट सेंटर में समन्वय नाम से कार्यक्रम आयोजित किया गया था।
 
बस्तर के इतिहास और संस्कृति पर काम कर रहे राजीव रंजन प्रसाद समेत कुछ लेखकों ने इस कार्यक्रम में शिरकत की। इसी कार्यक्रम में अशोक वाजपेयी भी शामिल हुए थे, जहां श्रोता ही नहीं पहुंचे। वाजपेयी ने इसी बहाने श्रोताओं की कमी का सवाल उछाल दिया और इसे लेकर हिन्दी में चिंताओं का दौरा-दौर शुरू हो गया है।
 
यह ठीक है कि समन्वय के इस कार्यक्रम को सुनने कम लोग आए। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं निकाला जा सकता कि हिन्दी की रूह अपने रसिक श्रोताओं से खाली होती जा रही है। श्रोता दो-तरह से जुटते हैं। आयोजन की प्रकृति, उसके दिन और उसके प्रचार पर श्रोताओं की मौजूदगी कहीं ज्यादा निर्भर करती है।
 
आर्थिक उदारीकरण के बाद जिंदगी में वक्त की कमी वैसे ही बढ़ गई है। ज्यादा काम करने की नवउदारवादी अवधारणा ने मध्यवर्गीय जीवन में पराधीनता का बोध बढ़ा दिया है। समन्वय के लिए पाठक नहीं जुटे तो निश्चित तौर पर ये कारण भी कहीं न कहीं जिम्मेदार रहे होंगे। अगर पाठकों-श्रोताओं की सहज मौजूदगी का ध्यान न रखा जाए तो समन्वय जैसी हालत किसी अन्य कार्यक्रम की भी हो सकती है।
 
हिन्दी के श्रोताओं की एक खास प्रवृत्ति अब भी बाकी है। वह अभिजात्यपन की पश्चिमी अवधारणा के साथ ही हिन्दी लेखकों में व्याप्त ‘मौं तुम्हें मीरक हूं, तुम मुझे गालिब कहां’ की प्रवृत्ति को नापसंद करने लगा है। मुख्यधारा के कथित साहित्य और उसके कार्यरत रसिक प्रवाचकों में पाठकों-श्रोताओं की दिलचस्पी कम हो रही है।
 
अंग्रेजी के लेखक चेतन भगत को वह भी पसंद करने लगा है। उसे ‘कुमार विश्वास’ भी पसंद आते हैं और अशोक चक्रधर भी। लेकिन मठों और गढ़ों की सीमाओं में बंधी हिन्दी की साहित्यकारिता हमें पचा नहीं पा रही है इसलिए उसे श्रोताओं की कमी महसूस होने लगी है। ऐसा करके दरअसल वह अपनी सीमाओं को जांचने-परखने और पर-मनन करने की बजाय नई तरह की बहसबाजी में उलझ रही है।
 
मुख्यधारा की साहित्यिकता में रचे-पगे राजेन्द्र यादव के हंस के सालाना जलसे की भीड़ हो या प्रखर पत्रकार प्रभाष जोशी की याद में होने वाले कार्यक्रम हों, उसमें मौजूद श्रोताओं की भीड़ इस तथ्य को झुठलाने के लिए काफी है कि हिन्दी में पाठकों-श्रोताओं की कमी नहीं है। 
 
लेकिन उन्हीं राजेन्द्र यादव के जाने के बाद हुए पहले आयोजन में न तो पुरानी रवानी रही और न ही श्रोताओं की भीड़... मतलब साफ है कि अभिजात्यपन से दूर जनता से जुड़ने वाले वैचारिक आलोड़न ही श्रोताओं को बांधते और आकर्षित करते हैं। सवाल यह है कि हिन्दी की कथित अभिजात्य मुख्यधारा हमें समझने की कोशिश करेगी।

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