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कश्मीरी पंडितों की वापसी ऐसे तो होने से रही!

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अनिल जैन

आजादी के बाद कई वर्षों तक जिस मसले को हम 'कश्मीर समस्या' के रूप में जानते थे, वह पिछले लगभग ढाई दशक से 'कश्मीर प्रश्न' बना हुआ है। यह प्रश्न बीज रूप में वैसे तो हमेशा ही मौजूद रहा है, किंतु इसे सींचने और विकसित करने का श्रेय उन राजनीतिक शक्तियों को ही जाता है जिनकी कश्मीर नीति अंधराष्ट्रवाद और संकुचित लोकतंत्र की देन है। बेशक साम्राज्यवादी ताकतों का कश्मीर विलाप सिर्फ उनके न्यस्त स्वार्थों की गुर्राहट है और पाकिस्तान के लिए अपने कुंठा जनित विकृत इस्लामवाद के विस्तार का मामला। लेकिन असल सवाल तो यह है कि कश्मीर का मुस्तकबिल क्या शक्ल लेने जा रहा है?
 
कश्मीर घाटी के हालात अब भी सामान्य नहीं हैं और ऐसे में निर्वासित कश्मीरी पंडित समुदाय की घाटी में वापसी की मौजूदा केंद्र सरकार की योजना और उस पर उठ रहे सवालों ने इस सवाल को अचानक ही महत्वपूर्ण बना दिया है।
 
कश्मीर घाटी में सीमापार आतंकवाद ने वैसे तो समूची कश्मीरियत को ही गहरे जख्म देकर लहुलूहान किया है लेकिन जिस एक समुदाय का सबसे ज्यादा नुकसान किया है, वह है कश्मीरी पंडित समुदाय। पिछले ढाई दशक में अपनी जमीन से बेदखल हुए इस समुदाय के लगभग 62,000 परिवारों में से एक बड़ी आबादी को राहत शिविरों और तंग कोठरियों में जिस मजबूरी में रहना पड़ रहा है, वह न सिर्फ कश्मीरियत को बल्कि समूची इंसानियत को शर्मसार करने वाला है। इसलिए उनकी घर वापसी की पहल होती है और वे फिर से कश्मीर घाटी में अपनी जमीन पर बसते हैं तो इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है।
 
गौरतलब है कि नब्बे के दशक यानी में कश्मीर घाटी में आतंकवादी वारदातें तेज होने और स्थानीय अलगाववादी संगठनों का हथियारबंद आंदोलन शुरू होने के साथ ही घाटी में रहने वालें हजारों पंडित परिवार अपने घर-बार छोड़ कर चले गए और उन्होंने देश के अलग-अलग शहरों में पनाह ले ली। तभी से कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी एक राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है। 
 
कश्मीर घाटी को रेल नेटवर्क के जरिए पूरे देश से जोड़कर और घाटी में चुनावी प्रक्रिया को सर्वस्वीकार्य बनाकर हमारी सरकारों ने कश्मीर में विकास के प्रति जिस तरह अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है, कश्मीरी पंडितों को उनके घरो में ले आना उस दिशा मे अगला कदम होगा। उन्हें फिर से उनके उनके घरों में लौटाना पाकिस्तान के मंसूबों को मंशा को भी करारा जवाब होगा। केंद्र ने कश्मीरी पंडितों की घर वापसी को अपने एजेंडे में रखकर और राज्य की पीडीपी-भाजपा सरकार ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में इस पर जोर देकर वाकई जरूरी पहलकदमी का संदेश दिया है। अच्छी बात यह भी है कि देश में हर कोई कश्मीर पंडितों की घर वापसी की पहल का समर्थन कर रहा है, यहां तक कि कश्मीर के अलगाववादी संगठन भी कह रहे हैं कि वे कश्मीरी पंडितों की वापसी के खिलाफ नहीं है। विवाद है तो सिर्फ इस बात पर कि कश्मीरी पंडितों को घाटी में फिर से कैसे बसाया जाए। 
 
भाजपा ने लोकसभा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव के दौरान पंडितों की घाटी में वापसी का वायदा किया था। इसी के वायदे को निभाते हुए दिखने को आतुर केंद्र की मोदी सरकार ने यह योजना प्रस्तावित की है कि कश्मीर के विभिन्न शहरों मे पंडितों के लिए अलग बस्तियां बसाकर उन्हें वापस लाया जाए। लेकिन यह योजना घोषित होने के साथ विवादों मे घिर गई है। शुरू में ऐसा लग रहा था कि मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद भी इस योजना को आगे बढ़ाने के इच्छुक हैं, लेकिन उन्होंने इस योजना के विरोध में बयान देकर अपना रुख साफ कर दिया।
 
सईद का कहना है कि उनकी सरकार कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के ‍विरुद्ध कतई नहीं है, लेकिन वह उनके लिए अलग बस्तियां बसाने के खिलाफ है। उनका कहना है कि घाटी में कश्मीरी पंडितों की वापसी उसी रूप में होनी चाहिए जैसे वे निर्वासन से पहले वहां रहते थे यानी मिश्रित बस्तियों में। यही राय नेशनल कांफ्रेन्स, कांग्रेस आदि राजनीतिक दलों तथा अलगाववादी समूहों की भी है। 
 
गौरतलब है कि सात अप्रैल, 2015 को दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथसिंह और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के बीच हुई बैठक में इस बारे में बातचीत हुई थी। इस बातचीत के बाद केंद्र सरकार की तरफ से जारी बयान में कहा गया था कि गृहमंत्री ने घाटी में कश्मीरी पंडितों के लिए अलग बस्तियां बनाने के लिए राज्य सरकार से जमीन मांगी है। बयान में दावा किया गया था कि मुख्यमंत्री सईद ने इस पर अपनी रजामंदी जताते हुए जल्द से जल्द जमीन मुहैया कराने का आश्वासन दिया है। लेकिन इस खबर के सार्वजनिक होते ही तमाम राजनीतिक दलों और अलगाववादी समूहों ने इस पर तीव्र प्रतिक्रिया जाहिर की और मुख्यमंत्री सईद ने भी अपना रुख साफ कर दिया। हालांकि राज्य की भाजपा इकाई ने केंद्र सरकार की योजना का स्वागत किया। 
 
नेशनल कांफ्रेन्स और कांग्रेस जब सत्ता में थी, तब उन्होंने भी ऐसी एक योजना लागू करने की कोशिश की थी, लेकिन अब वे भी इसके विरोध में हैं। कुल मिलाकर जम्मू-कश्मीर में भाजपा के अलावा शायद ही कोई राजनीतिक संगठन या नेता हो, जो इसके विरोध में नही है। यहां तक कि जो कश्मीरी पंडित अभी घाटी में रह रहे हैं वे भी इस योजना से सहमत नहीं हैं और इसे अव्यावहारिक बता रहे हैं। इसके अलावा, इस योजना के सांप्रदायिक निहितार्थ खोजने और इसके पीछे षड्‍यंत्र देखने वाले बयान भी जारी होने लगे हैं और घाटी मे उग्र राजनीतिक तत्व सक्रिय होने लगे हैं।
 
अगर इस योजना की चर्चा मात्र से ही इतना बवाल हो सकता है, तो अंदाजा लगाया जा सकता कि यदि इस पर अमल शुरू हो गया तो क्या होगा? फिर सवाल यह भी है कि इतनी विवादास्पद योजना के तहत कश्मीरी पंडित घाटी में बसने आते हैं, तो वे कितने सुरक्षित होंगे? यह बात मुमकिन भी नहीं लगती कि ऐसी असुरक्षा की स्थिति में कश्मीरी पंडित घाटी में बसने का दुस्साहस करेंगे।
 
कश्मीर के शहरों में अलग से बस्तियां बसाकर उनमें कश्मीरी पंडितों को बसाने की एक परियोजना के तहत बड़गाम जिले के शेखपुरा में 200 फ्लैट बनाए गए थे। यह परियोजना वर्ष 2008 मे तैयार की गई थी, जो परवान नहीं चढ़ सकी थी। इसके बावजूद जम्मू-कश्मीर मे अमन-चैन बनाए रखने के लिए जरूरी है कि कश्मीरी पंडितों को उसी स्वाभाविक परिवेश मे लौटाया जाए, जिसमें वे अपने मुस्लिम पड़ोसियों के साथ पहले रहते थे। अगर मोदी सरकार और भाजपा को लगता है कि नई बस्ती ही एकमात्र विकल्प है तो फिर इसमें कश्मीर की पारंपरिक साझा संस्कृति परिलक्षित होनी चाहिए- वैसी ही जैसी कि पंडितों के घाटी से निर्वासन से पहले थी।
 
कश्मीरी मुसलमानों और पंडितों की दो पीढ़ियां एक दूसरे को जाने बिना गुजर गई हैं। इसलिए उन्हें इतना भौतिक और सामाजिक स्थान दिया जाना चाहिए कि वे सांस्कृतिक रूप से फिर एकाकार हो सकें। 
 
वाजपेयी की योजना से क्यों नहीं मेल खाती मोदी की योजना... पढ़ें अगले पेज पर....

भाजपा इस संदर्भ मे अपने 'प्रेरणा पुरुष' पू्‌र्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को याद कर सकती है, जिन्होंने कश्मीर में हालात सामान्य बनाने के लिए इन्सानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत की बहाली को सबसे जरूरी बताया था। पर मोदी सरकार की प्रस्तावित योजना वाजपेयी के सोच से कतई मेल नहीं खाती है। दरअसल, इस मामले में भाजपा का रुख बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं है। 
 
अव्वल तो एक आबादी को स्थानीय संस्कृति से काटकर अलग-थलग बसाना समझदारी नहीं है, तिस पर भाजपा उस कश्मीर मे ऐसा जोखिम उठाने के बारे में सोच रही है, जो मजहबी आधार पर ध्रुवीकृत है। वहां इस तरह की योजना पर आगे बढ़ना एक तरह से आग से खेलने जैसा होगा। हालांकि घाटी में आतंकवादी वारदातों में काफी कमी आ गई है, लेकिन वहां राजनीतिक रूप से हालात सामान्य नहीं कहे जा सकते।
 
दरअसल, घाटी में कश्मीरी पंडितों को अलग बस्तियों में बसाना सूबे के मूल पारंपरिक चरित्र के खिलाफ होगा और इससे सांप्रदायिक अलगाव को भी बढ़ावा मिलेगा। साथ ही दूसरी तरफ आतंकवादी समूहों के लिए भी अलग-अलग बसे परिवारों के बजाय पंडितों की बस्ती एक आकर्षक और आसान निशाना हो सकती है। इस खतरे की आशंका से ये बस्तियां न सिर्फ घैट्‌टो (द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले जर्मनी में यहूदियो की अविकसित बस्तियां) में बदल जाएंगी बल्कि भारी सैन्य दस्तों से घिरे परिसर में तब्दील होकर रह जाएंगी। ऐसा होने पर इन बस्तियों में बसे लोगों के लिए सामान्य जीवन की संभावनाएं क्षीण हो जाएंगी। इन अलग-थलग बस्तियों पर आतंकवादियों की नजर तो रहेगी ही, कश्मीरी पंडित जब भी किसी कारण से अपनी बस्ती से बाहर निकलेंगे, तो आशंका और खतरे के साये में होंगे।
 
जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ भाजपा की साझा सरकार बनने से कश्मीर घाटी में एक नई शुरुआत हुई है। इसलिए भाजपा को किसी तरह का उतावलापन दिखाने के बजाय इस राजनीतिक प्रयोग की कामयाबी की दिशा में काम करना चाहिए। हालांकि यह गठबंधन बहुत सहज नहीं है, क्योंकि भाजपा कश्मीर के मामलों पर एक किस्म का सख्त रुख रखने वाली पार्टी है, तो पीडीपी उसके उलट किस्म का सख्त रुख रखती है। इन दो विपरीत ध्रुवों की पार्टियों का गठबंधन चलाना आसान नहीं है, लेकिन इसी वजह से यह गठबंधन एक नई संभावना का भी संकेत देता है। अगर यह चल गया तो कश्मीर में हालात सामान्य होने का रास्ता आसान हो जाएगा और उग्र राष्ट्रवादी और अलगाववादी अप्रासंगिक हो जाएंगे।
 
इसलिए भाजपा और केंद्र सरकार को ऐसी विवादास्पद योजनाओं की बजाय राज्य में सरकार चलाने पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, ताकि दोनों ध्रुवों के उग्र लोगों को अपनी राजनीति चलाने का मौका न मिले। कश्मीरी पंडित घाटी में लौट सके, यह सभी चाहते है, लेकिन जरूरत इसके लिए माकूल माहौल बनाने की है। जब ऐसा माहौल बनने लगेगा तो कश्मीरी पंडित अपने आप सहज रूप से अपनी मूल जमीन पर लौट सकेंगे।


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