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कौन सी व्यवस्था निगल जाती है इन बच्चों को?

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अनिल जैन

अक्सर कहा जाता है कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं। आदतन बोले और लिखे जाने वाले इस वाक्य को शायद ही कोई गंभीरता से लेता हो। हमारी शासन व्यवस्था तो निश्चित रूप से नहीं लेती। यही वजह है कि बीते कुछ वर्षों से बच्चों के लापता होने के लगातार बढ़ते मामलों की त्रासद हकीकत एक बार नहीं, बार-बार, कई बार सामने आने के बावजूद हमारी सरकारों ने इसे कभी भी संजीदगी से अपने सरोकारों का मामला नहीं माना।
 
कई गैरसरकारी संगठनों और खुद सरकार के स्तर पर कराए अध्ययनों में भी यह त्रासद तथ्य उजागर हो चुका है कि लापता होने वाले बच्चों की तादाद हर साल लगातार बढ़ती जा रही है। अदालतें भी इससे निपटने का निर्देश कई बार सरकारों को दे चुकी हैं, लेकिन इस त्रासदी की भयावहता है कि बढ़ती ही जा रही है।
 
एक तरफ देश में कानून-व्यवस्था और सुरक्षा के मद में अकूत धनराशि खर्च की जाती है और इस मसले पर कोई समझौता न करने की बात कही जाती है, वहीं हर साल एक लाख से ज्यादा बच्चे गायब हो जाते हैं और उनका कभी पता नहीं चल पाता। पिछले साल गृह मंत्रालय द्वारा संसद में पेश आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि इस मामले में भारत पड़ोसी देशों को भी मात दे रहा है।
 
संसद में पेश आंकड़ों के मुताबिक 2011 से 2014 (जून तक) देश में तीन लाख 25 हजार बच्चे गायब हुए। यानी औसतन हर साल करीब एक लाख बच्चे अपने यहां गायब हो रहे हैं। जब भी इतने बड़े पैमाने पर बच्चों के गुम होने के तथ्य सामने आते हैं तो सरकारी तंत्र रटे-रटाए औपचारिक स्पष्टीकरणों और समस्या के समाधान के लिए नए उपाय करने की बातों से आगे कुछ नहीं कर पाता। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने गत 17 अप्रैल को केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि देश में बड़े पैमाने पर बच्चे गुम हो रहे हैं और सरकार के सचिव सिर्फ पत्र लिखने में लगे हुए हैं: सरकार इस मसले पर इतनी बेपरवाह कैसे हो सकती है और यह कैसा सुशासन है?
 
सुप्रीम कोर्ट ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से बीते इकतीस मार्च तक गुमशुदा बच्चों की बाबत पूरी जानकारी मांगी थी, लेकिन मंत्रालय इस निर्देश पर अमल करने में नाकाम रहा। लिहाजा मामले की सुनवाई कर रहे न्यायाधीशों को कहना पड़ा कि बच्चों की गुमशुदगी को लेकर सरकार का रवैया संवेदनहीन है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक हमारे यहां हर आठवें मिनट में एक बच्चा गायब हो रहा है। गौरतलब बात यह भी है कि गायब होने वालों मे 55 फीसद लड़कियां होती हैं और लापता बच्चों मे से 45 फीसद कभी नहीं मिलते।
 
पड़ोसी पाकिस्तान में हर साल गायब होने वाले बच्चों की संख्या तीन हजार है, जबकि हमसे अधिक आबादी वाले चीन में एक साल में दस हजार बच्चे गायब होते हैं। अपने देश में राज्यवार बात की जाए तो लापता होने वाले बच्चों की संख्या में महाराष्ट्र अव्व्ल नम्बर पर है, जहां पिछले तीन साल में 50 हजार बच्चे गायब हुए। उसके बाद मध्यप्रदेश से 24,836 बच्चे गायब हुए। दिल्ली (19,948) और आंध्रप्रदेश (18,540) का नम्बर क्रमशः तीसरा और चौथा है। लापता बच्चों से संबंधित आंकड़ों की एक हकीकत यह भी है कि एनसीआरबी सिर्फ अपहरण किए गए बच्चों की संख्या बताता है। फिर ज्यादातर मामलों में पुलिस प्राथमिकी दर्ज करने से इनकार कर देती है या टालमटोल करती है। 
 
आज से कोई दो साल पहले फरवरी 2013 में भी सुप्रीम कोर्ट ने लापता बच्चों की संख्या और उसके प्रति सरकारी बेसब्री के मद्देनजर प्रतिक्रिया जताते हुए कहा था कि यह विडम्बना ही है कि किसी को गायब बच्चों की फिक्र नहीं है। लेकिन इन दो सालों के दौरान दो लाख से अधिक बच्चे गायब हुए हैं और हालात जस के तस बने हुए हैं। जाहिर कि राज्यों की कानून-व्यवस्था की मशीनरी का बच्चों को ढूंढने पर कोई फोकस नहीं है और जिन राज्यों ने अपने यहां 'लापता व्यक्तियों के ब्यूरो' बनाए हैं, उन्होंने भी वहां काबिल या जिम्मेदार अफसरों को नियुक्त नहीं किया है। यह स्थिति इसी बात को दर्शाती है कि गुमशुदा बच्चों को ढूंढना किसी की प्राथमिकता में नहीं है। 
 
यह विडंबना ही है कि अनादि काल से बच्चों में ईश्वर का रूप देखने वाले हमारे देश में लाखों बच्चे खरीद-फरोख्त की वस्तु बनकर रह गए हैं। बच्चों के अवैध व्यापार में लिप्त अपराधी गिरोहों ने देश ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना नेटवर्क कायम कर रखा है, जो बच्चों को यौन व्यापार में धकेलने से लेकर बंधुआ मजदूरी के लिए मजबूर करने तक का काम करता है। बच्चों के अंग भंग कर उनसे भीख मंगवाने के काम में भी इन गिरोहों की संलिप्तता देखी गई है। कई मामलों में अपहृत बच्चों के अंगों को प्रत्यारोपण के लिए निकालने के बाद उन्हें उनके हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है।
 
एक विडम्बना यह भी है कि पुलिस का रवैया भी इस मामले में सकारात्मक नहीं दिखता है। सारी हकीकत से वाकिफ होने के बाद भी पुलिस की पूरी कोशिश यही रहती है कि वह अपना रिकॉर्ड साफ रखे। सुप्रीम कोर्ट के कड़े निर्देश के बावजूद पुलिस ऐसे मामलों में तत्काल रिपोर्ट दर्ज कर कार्रवाई करने में हीला-हवाला करती दिखती है। कई दिनों तक वह गुमशुदा बच्चे के माता-पिता को यह कहकर मामले को टालती रहती है कि कुछ समय बाद बच्चा खुद घर लौट आएगा। यह 'कुछ समय' मानव तस्करों के लिए अपना खेल खेलने के लिए पर्याप्त होता है।
 
मानव तस्करों के हत्थे चढ़े बच्चों के सामने शोषण और अपराध की अंधेरी दुनिया से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं होता। कहने को तो हमारे देश में बाल अधिकारों को लेकर कई कड़े कानून बने हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र में दर्ज बच्चों के सभी अधिकार सुनिश्चित कराने की वचनबद्धता भी भारत ने दी हुई है। 
 
मगर हकीकत यह है कि सरेआम सड़कों पर भीख मांगते, कचरा उठाते, घरों-दुकानों में कोल्हू के बैल की तरह खटते नाबालिग बच्चों पर प्रशासन की नजर ही नहीं जा पाती। नागरिक समाज भी इस बारे में उदासीन नजर आता है। इसीलिए इन बच्चों के पुनर्वास की योजनाएं व्यवहार के धरातल पर नहीं उतर पातीं। चूंकि लापता होने वाले ज्यादातर बच्चे गरीब परिवारों और झोपड़पट्टियों के होते हैं, इसलिए उनके माता-पिता कानूनी मदद हासिल हासिल नहीं कर पाते। पुलिस भी उनकी शिकायतों के प्रति उदासीन बनी रहती है। मानव तस्करी में लिप्त गिरोहों को भी यकीन होता है कि इस तबके के बच्चों को गायब करना उनके लिए ज्यादा आसान सुरक्षित है। साधारण लोगों की शिकायतों के प्रति पुलिस और प्रशासन के उदासीन रवैये के चलते यह समस्या दिन ब दिन भयावह होती जा रही है। 
 
कुछ महीनों पहले दिल्ली पुलिस ने लापता या अपहृत बच्चों के अनसुलझे मामलों की संख्या को अपने रिकॉर्ड के हिसाब से कम करने के लिए एक चालाकी भरा सुझाव पेश किया था। दिल्ली पुलिस के एक उच्च पदस्थ अधिकारी की तरफ से एक परिपत्र भेजा गया था कि गायब या अपहृत मामलों में अंतिम रिपोर्ट लगाने की समयावधि तीन साल के बजाय एक साल कर दी जाए। स्पष्ट है कि पहले किसी बच्चे के गायब या अपहृत होने के बाद कम से कम तीन साल तक उसका मामला पुलिस रिकॉर्ड मे दर्ज रहता था। यह अवधि एक साल कर देने से निश्चित ही पुलिस रिकॉर्ड बेहतर दिखेगा। इस परिपत्र पर दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने आपत्ति दर्ज की और रेखांकित किया गया कि अनसुलझे मामलों की संख्या कम करने के लिए पुलिस ऐसा मनमाना आदेश नही निकाल सकती क्योंकि बच्चे के यौन व्यापार में लिप्त गिरोह के चंगुल मे फंसे होने की प्रबल आशंका होती है। ऐसे मे पुलिस ने फाइल बन्द कर दी तो जांच अधूरी रह जाएगी। हैरानी की बात है कि आयोग के एतराज के बाद अपने उस परिपत्र को रद्द करने में दिल्ली पुलिस को चार माह लगे।
 
अलबत्ता सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों को लेकर जरूर संवेदनशीलता दिखाई। गायब एवं अपहृत बच्चों को लेकर एक जनहित याचिका पर कोई दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि आइंदा गायब होने वाले बच्चों के हर मामले को संज्ञेय अपराध के तौर पर दर्ज करना होगा और उसकी जांच करनी होगी। ऐसे तमाम लंबित मामले जिनमें बच्चा अब भी गायब है, मगर प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर नही की गई है, उनमें एक माह के अंदर रिपोर्ट दायर करनी होगी। गायब होने वाले बच्चों के हर मामले में माना जाएगा कि बच्चा अपहृत हुआ है या अवैध व्यापार का शिकार हुआ है। हर थाने मे कम एक ऐसा पुलिस अधिकारी भी अनिवार्यतः नियुक्त करने का आदेश अदालत ने दिया था, जिसे बच्चों के खिलाफ अपराधों की जांच के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया गया हो।
 
कहा जा सकता है कि हमारी ऊपरी अदालतें तो इस मामले में पर्याप्त रूप से सचेत रहकर अपनी जिम्मेदारी निभा रही हैं, लेकिन सवाल यही है कि इस मामले मे सरकारों की उदासीनता का सिलसिला कब टूटेगा और वे आने वाले कल की बुनियाद यानी बच्चों के गायब होने की त्रासदी की रोकथाम के लिए कारगर कदम उठाएंगी?

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