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कूटनीतिक दूरदर्शिता से नियोजित हैं प्रधानमंत्री की विदेश यात्राएं

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शरद सिंगी

प्रधानमंत्री ने हाल की विदेश यात्रा में रूस के साथ मध्य एशियाई देशों को भी अपनी यात्रा में शामिल किया। रूस जाना, सत्ता संभालने के बाद से ही लंबित था तथा ब्रिक्स देशों के सम्मलेन में भी भाग लेना था किन्तु इन छोटे तथा आर्थिक एवं सामरिक दृष्टि से महत्वहीन राष्ट्रों में प्रधानमंत्री की यात्रा का क्या उद्देश्य  हो सकता है?
हम यह भी जानते हैं की राष्ट्रपति की किसी अन्य राष्ट्र में यात्रा औपचारिकता हो सकती है किन्तु प्रधानमंत्री की किसी भी देश की यात्रा योजनाबद्ध और दीर्घकालीन सोच के द्वारा नियोजित होती है न कि केवल मौसम की जानकारी लेने के लिए। इस यात्रा की व्यूहरचना  को समझने के लिए थोड़ा उसे सूक्ष्मदर्शी से देखते  हैं।  
 
सन् 1991 जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो रूस को मिलाकर कुल 15 देश बने थे। इनमे से तीन छोटे छोटे देश जो यूरोप से सटे थे  एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया, यूरोपीय संघ एवं नाटो के सदस्य बन गए। ये बाल्टिक देशों के नाम से जाने जाते हैं। शेष बारह राष्ट्रों ने मिलकर एक राष्ट्रमंडल बनाया जिसे सीआईएस कहते हैं। इन देशों में बेलारूस, मोल्दोवा, यूक्रेन पूर्वी यूरोप का हिस्सा हैं, अज़रबैजान, आर्मेनिया, जॉर्जिया दक्षिण काकेशस का तथा कज़ाख़स्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान एवं उजबेकिस्तान मध्य एशिया का भाग हैं। 
 
इन सभी देशों को सीआईएस देशों के नाम से जाना जाता है। इन देशों में अनेक भिन्नताएं  होने के बाद भी कई भाषाई, आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक समानताएं भी हैं अतः एक यूक्रेन को छोड़ दें तो सभी देश रूस की छत्रछाया में ही हैं। 
 
इनमे से अधिकांश राष्ट्र रूस की सीमा पर बसे हुए हैं। अतः रूस की रक्षा व्यवस्था में ये कवच का काम भी करते हैं। जाहिर है रूस इन देशों पर अमेरिका या पश्चिमी देशों की छाया नहीं पड़ने देना चाहता। हाल ही में हमने देखा है कि किस तरह यूरोपीय संघ यूक्रेन को फुसलाने में लगा था किन्तु  रूस ने अपनी सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को दांव पर लगा दिया और यूक्रेन को यूरोपीय संघ की झोली में नहीं जाने दिया। 
 
जाहिर है इन देशों में पश्चिमी देशों का प्रवेश आसान नहीं हैं वहीं रूस के एक मित्र देश होने के कारण इन देशों में भारत का प्रवेश अपेक्षाकृत सुगम है। विकासशील देश होने के कारण यहाँ भारतीय तकनीक एवं उत्पादों को बड़ी सुगमता  से बाजार मिलेगा क्योंकि पश्चिमी कंपनियों  से कोई स्पर्धा नहीं होगी। 
 
दूसरी महत्वपूर्ण बात है इन देशों से मित्रता याने थोक के भाव में संयुक्त  राष्ट्र संघ में भारत का समर्थन करने वाले देश फिर चाहे सुरक्षा समिति में स्थाई सदस्यता का मसला हो अथवा पाकिस्तान से सम्बंधित कोई मामला। 
 
तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात है मध्य एशिया में भारत की सामरिक उपस्थिति। मध्य एशिया के पांच देशों में इस लेखक की रूचि  सबसे ज्यादा ताजिकिस्तान  पर थी, यह जानने में कि प्रधानमंत्री की कूटनीतिक टीम ताजिकिस्तान  के साथ कौनसे रक्षा समझौते करने में सफल होती है। 
 
भारत का  इस देश से साथ रक्षा सहयोग  भारत की सामरिक शक्ति को नए आयाम देगा। यह देश पाकिस्तान नियन्त्रित कश्मीर के ठीक ऊपर बैठा है।  बीच में अफगानिस्तान की एक बहुत ही पतली सी पट्टी है जो ताजिकिस्तान को पाकिस्तान से अलग करती है। 
 
कुछ वर्ष पूर्व यह अफवाह थी कि भारत ताजिकिस्तान  से एक सैन्य हवाई अड्डा लीज पर लेने  की कोशिश कर रहा है।  मोदीजी की यात्रा से इस अफवाह को और बल मिला।  कुछ अफवाएं ताजिकिस्तान  में पाकिस्तानी सीमा के पास भारत की सैन्य उपस्थिति और संयुक्त सैन्य अभ्यास को लेकर भी उड़ीं थी।   
 
इस बात को समझने में देर नहीं लगना चाहिए कि शैतान पड़ोसी को नियंत्रण में रखने  के लिए सामरिक व्यूह रचना जरुरी है। पाकिस्तान के अन्य पड़ोसी  देशों में एक चीन को छोड़कर ईरान और अफगानिस्तान  का झुकाव पहले  ही भारत की तरफ है।  ऐसे में ताजिकिस्तान में भारत की सांकेतिक सैन्य उपस्थिति भी पाकिस्तान की रगों में सिहरन पैदा करने के लिए काफी है। 
 
एक अन्य देश कज़ाख़स्तान के साथ भारत ने 5000 टन यूरेनियम आपूर्ति का सौदा किया तथा व्यापक रक्षा सहयोग पर हस्ताक्षर हुए। इसी तरह अन्य देशों के साथ भी हुए भारत के समझौतों  को सार्वजानिक कर दिया गया किन्तु ताजिकिस्तान  से केवल एक दो छोटे छोटे समझौतों को ही सार्वजानिक किया गया। 
 
पाकिस्तान नियंत्रित आतंकवाद के ट्रेनिंग केम्प के समीप दोनों देशों की सीमाएं हैं और दोनों देशों ने आपसी बातचीत में आतंकवाद से निपटने के लिए अपनी प्रतिबद्धता घोषित की। ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या ताजिकिस्तान के साथ बड़े रक्षा समझौतों को गुप्त रखा गया है? जो भी हो भारत, पाकिस्तान और चीन दोनों के सभी पड़ोसी राष्ट्रों से अपने मित्रतापूर्ण रिश्ते बनाने में सफल हुआ है और यही उसकी रणनीतिक विजय है। 
 
भारतीय अख़बारों में मोदीजी की विदेश यात्राओं के बारे में बिना उनके मंतव्य की गहराई समझे हुए विरोधी दलों द्वारा या व्यक्तव्य देने के शौकीन सामान्य  बुद्धि के प्रवक्ता टीवी पर जब अनर्गल बात करते हैं तो उनकी बुद्धि पर तरस आता है। 
 
इस लेखक का उद्देश्य अपने सुधि पाठकों को आगाह करना है कि मोदीजी की दूरदृष्टिपूर्ण विदेश यात्राओं में बहुत से ऐसे दीर्घकालीन सोचयुक्त मंतव्य छुपे हैं जो राष्ट्र की कूटनीतिक शक्ति को हमारी कल्पना से परे बढ़ाने की ओर अग्रसर है। अज्ञान  आलोचकों की बेसमझी आलोचनाएँ जनमानस को गुमराह ही करती हैं।

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