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तेरा भ्रष्टाचार, मेरा भ्रष्टाचार...

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अनिल जैन

दो महीने पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार का एक साल पूरा होने पर सीना तानकर कह रहे थे कि एक साल में उनके किसी भी मंत्री पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा है और सरकार के कामकाज से दुनियाभर में भारत की साख बढ़ी है। 
 
एक साल पूरा होने पर जश्न के माहौल में वित्त मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली भी कह रहे थे कि हमने एक साल में ही देश की राजनीतिक शब्दावली से भ्रष्टाचार शब्द को निकाल फेंका हैं, जो कि एक बड़ी उपलब्धि है। लेकिन सरकार के कार्यकाल का दूसरा साल शुरू होने के साथ ही इन दावों का दम निकलता नजर आने लगा है। अब भाजपा अपने दागी नेताओं के बचाव में एक के बाद एक वही लचर और फूहड़ दलीलें पेश कर रही है, जो कभी कांग्रेस अपने दागी मंत्रियों के बचाव में पेश किया करती थी।
 
इस समय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया 'ललितगेट' में फंसी हैं तो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान समेत भाजपा और संघ के कई वरिष्ठ नेता उस व्यापमं घोटाले में घिरते जा रहे हैं जो अभी तक लगभग पचास लोगों की मौत का कारण बन चुका है। मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की कथित फर्जी डिग्री का मामला अदालत में है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमणसिंह से 36,000 करोड़ रुपए के धान घोटाले को लेकर जवाब देते नहीं बन रहा है तो महाराष्ट्र में महिला एवं बाल विकास मंत्री पंकजा मुंडे पर लगभग 200 करोड़ रुपए के ठेकों में गड़बड़ी करने का आरोप है।
 
भाजपा शासित राज्यों में इसी तरह के और भी कई मामले हैं। जैसे-जैसे ये सारे विवाद गरमाते जा रहे हैं, कांग्रेस आक्रामक होती जा रही है। बचाव में 'प्रधान सेवक' की पार्टी ने नैतिक आचरण और लोकलाज का चोला उतार फेंका है और उसके वाणी-शूर प्रवक्ता निर्लज्जता का दामन थामे सबूतों की खामियों का हवाला देते और कहते नजर आ रहे हैं कि महज नैतिकता के आधार पर हमारा कोई नेता इस्तीफा देकर विपक्ष को उपकृत नहीं करेगा।
 
विपक्ष के आरोपों का तार्किक जवाब देने के बजाय यूपीए के शासनकाल में हुए घोटालों का जिक्र कर एक तरह से यह साबित करने की फूहड़ कोशिश की जा रही है कि हमारे घोटालों से तुम्हारे घोटाले ज्यादा बड़े थे। यह एक किस्म की राजनीतिक नंगाई है।
 
जहां तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात है- उन्होंने इन सारे मामलों पर चुप्पी साध रखी है, जबकि यूपीए सरकार के दौरान हुए घोटालों को उन्होंने बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था। जाहिर है कि अपनी पार्टी के नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों ने 'खजाने के चौकीदार' नरेंद्र मोदी से 'न खाऊंगा, खाने दूंगा' की रोमांचक गर्जना छीन ली है। काले धन की वापसी के मसले पर मोदी के वादे को तो उनके पार्टी अध्यक्ष अमित शाह पहले ही चुनावी जुमला बता चुके हैं।
 
मोदी सिर्फ भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों पर ही मौन नहीं है, बल्कि वे महंगाई, आतंकवाद, पाकिस्तान की ओर से सीमा पर बार-बार हो रहे संघर्ष विराम के उल्लंघन आदि को लेकर भी चुप्पी साधे हुए हैं, जबकि इन सवालों पर भी प्रधानमंत्री बनने के पहले तक वे खूब दहाड़ते थे। प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के इसी रवैये ने कांग्रेस को मुखर होने का मौका दे दिया है। वही कांग्रेस, जो चुनावों में मिली करारी हार से बुरी तरह सदमे में थी। वह न सिर उठा कर चल पाने की स्थिति में थी और न ही संसद में उसकी आवाज निकल पा रही थी और उसकी ओर से पिछले एक साल से सरकार को संसद में कोई खास चुनौती नहीं मिल रही थी।
 
आज वही कांग्रेस भ्रष्टाचार के मुद्दे सरकार के खिलाफ बेहद आक्रामक नजर आ रही है। उसके उग्र तेवरों से संसद में कोई काम नहीं हो पा रहा है। कुल मिलाकर 'जैसे को तैसा' की तर्ज पर उसने वही रवैया अपना रखा है, जैसा यूपीए के दस सालों में भाजपा का था। याद करें- 2जी, कोयला घोटाला, पवन बंसल, अश्विनी कुमार आदि के मामलों में भाजपा ने कई-कई दिनों तक संसद नहीं चलने दी थी। उस समय संसद न चलने पर जो बातें कांग्रेस की ओर से कही जाती थी, लगभग वही बातें अब भाजपा के प्रवक्ताओं और संसदीय प्रबंधकों की ओर से की जा रही हैं। 
 
भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर सिर्फ विपक्ष ही आक्रामक नहीं है, बल्कि भाजपा के भीतर से भी चिंता के स्वर उठ रहे हैं। पार्टी के आधिकारिक मार्गदर्शक लालकृष्ण आडवाणी को याद दिलाना पड़ रहा है कि राजनीति तर्क से नहीं, विश्वसनीयता से चलती है। इस सिलसिले में उन्हें खुद का भी उदाहरण देना पड़ रहा है कि कैसे उन्होंने 1996 में जैन हवाला मामले में अपना नाम आने पर नैतिकता के आधार पर लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था।
 
यही बात सोलह वर्षों तक एनडीए की छतरी के नीचे भाजपा के साथ रहे जनता दल यू के अध्यक्ष शरद यादव भी कह रहे हैं। उन्होंने भी हवाला कांड में अपना नाम भर आते ही लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था। वे और आडवाणी 1998 में तभी संसद में लौटे थे जब अदालत ने उन्हें आरोप से बरी कर दिया था। लेकिन अब भाजपा को आडवाणी और यादव की नसीहत रास नहीं आ रही है। 
 
भाजपा ने अपने नेताओं और अपनी राज्य सरकारों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के जवाब में कांग्रेस से जुड़े भ्रष्टाचार के पुराने मामलों को उठाने की रणनीति बनाई है। उसे लगता है कि ऐसा करके वह कांग्रेस के हमलों की धार कुंद कर सकती है। लोकसभा में अपने संख्याबल और मीडिया प्रबंधन के बूते वह ऐसा करने में भले ही सफल हो जाए, मगर जो आरोप केंद्र और उसकी कुछ राज्य सरकारों पर लगे हैं, जनता उनका जवाब जरूर जानना चाहेगी। जाहिर है, कांग्रेस को चुप करा देने भर से बात नहीं बनेगी। 
 
भाजपा में सिर्फ आडवाणी ही नहीं, शांता कुमार जैसे वरिष्ठ नेता भी मौजूदा हालात से चिंतित और बेचैन हैं और उन्होंने पार्टी अध्यक्ष को लेकर अपनी चिंताओं का इजहार भी किया है। संघ से जुड़े पूर्व भाजपा महासचिव गोविंदाचार्य ने भी चेतावनी के अंदाज में कहा है कि ललितगेट भी बोफोर्स तोप सौदे की तरह घातक साबित हो सकता है।
 
पार्टी के एक अन्य वरिष्ठ नेता अरुण शौरी भी मोदी सरकार और पार्टी नेतृत्व की कार्यप्रणाली पहले ही कई सवाल उठा चुके हैं। भाजपा के कुछ सहयोगी दल भी कई मसलों पर सरकार और खासकर प्रधानमंत्री की कार्यशैली से खुश नहीं हैं। इस सिलसिले में हाल ही में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने कहा है कि मोदी सरकार के प्रति देश का भरोसा टूटने की कगार पर है।
 
कुल मिलाकर मोदी सरकार की हालत अभी कुछ हद तक यूपीए-2 के शुरुआती दौर जैसी है, जब एक के बाद एक सामने आते घोटालों ने देश को हैरत में डाल दिया था। फर्क सिर्फ इतना है कि तब ज्यादातर आरोप केंद्र सरकार से संबंधित थे और अभी ज्यादातर आरोप राज्य सरकारों पर केंद्रित हैं। फिर भी जन-विश्वास की कसौटी पर मोदी सरकार और भाजपा की राज्य सरकारों की साख और इकबाल तो संकट में है ही। 

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