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प्रकृति से खिलवाड़ भटका रही है मेघों को

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शरद सिंगी

ज्येष्ठ माह की तपन में  सुलगती वसुंधरा को श्यामल  वर्ण मेघ जब अपनी शीतल बौछारों से प्यासी धरा को तृप्त करते हैं तब यह धरा पुनः श्रृंगारित होती है। इस  मनोरम और मंगल छटा को निहारकर थलचर, नभचर एवं जलचर विभिन्न क्रीड़ाओं में लिप्त होकर आनंदित होते हैं। दो ऋतुओं के मिलने का यह अद्भुत संयोग कवियों की कल्पना को उत्प्रेरित करता है। अपनी प्रेयसी की  विरह अग्नि में जलता हुआ, महाकवि कालिदास के महाकाव्य मेघदूत का अर्धमृत यक्ष जब वर्षा ऋतु में पर्वतों पर उमड़ते काले मेघों के भव्य दृश्य को देखता है तो उसमें पुनः जीवन का संचार होता है और अपनी प्रिया तक सन्देश पहुंचाने के लिए मेघों से विनय करता है। 
यक्ष द्वारा अनुनय एवं अपनी प्रियतमा तक पहुंचने के मार्ग का अप्रतिम चित्रण मेघदूत और कालिदास दोनों को अमरत्व प्रदान करते हैं। रामचरितमानस के किष्किन्धा कांड में तुलसीदासजी ने विभिन्न उपमाओं के साथ वर्षा ऋतु  का मनोरम वर्णन किया है। वहीं भगवान राम बादलों की गर्जन तथा आकाश में दामिनी के तांडव स्वरूप को देखकर माता सीता की सुरक्षा को लेकर सौमित्र से अपना भय प्रकट करते हैं। यही समय है जब पृथ्वी के गर्भ में पड़े लगभग निष्प्राण बीज अंकुरित हो जाते हैं, असंख्य आत्माएं शरीर धारण कर लेती हैं। छोटी-छोटी नदियां भी इस ऋतु में विस्तार पा जाती हैं और इठलाती हुई परम समागम के मार्ग पर निकल पड़ती हैं। 
 
आइए, साहित्य की मनोरम दुनिया से अब यथार्थ के धरातल पर चलें।  अर्थशास्त्रियों के लिए मानसून के मायने कुछ और हैं। भारत की अर्थव्यवस्था का सम्पूर्ण आधार ही मानसून है।  वर्षा की हर बूंद का हिसाब रखने वाले इन विशेषज्ञों की निगाहें आने वाले वर्ष की अर्थव्यवस्था पर होती है। मानसून के आंकड़ों की सहायता से ये आने वाले वर्ष में अनाज का उत्पादन, व्यापार-व्यवसाय की स्थिति और सकल उत्पाद (जीडीपी ) का अनुमान लगाते हैं। पीने के पानी की उपलब्धता एवं बिजली उत्पादन भी मानसून पर निर्भर है।  
 
दूसरी ओर वैज्ञानिकों के लिए मानसून सिस्टम, प्राणी संसार को प्रकृति की  एक असाधारण देन है। इस सिस्टम को समझने और इसका गणितीय आकलन करने की वैज्ञानिकों की क्षमता को हर वर्ष चुनौती मिलती है। लगभग छह महीने तक भारत भूमि से अरब सागर और दक्षिण पश्चिमी हिन्द महासागर की ओर बहने वाली हवाएं जब विपरीत दिशा में बहने लगती हैं तब भारत में वर्षा ऋतु का आगाज़ होता है। ग्रीष्म ऋतु में ताप से पृथ्वी की हवाएं गर्म होकर आसमान की ओर उठती हैं जिससे कम दबाव का क्षेत्र बनता है।  इस कम दबाव के क्षेत्र को भरने आर्द्र मानसूनी हवाएं बादलों के साथ पहुंच जाती हैं और इस तरह मानसून पूरे भारत में विस्तार ले लेता है। 
 
मानसून सिस्टम भारत  के लिए एक वरदान है क्योंकि ये मानसूनी हवाएं हमारे ग्रीष्म काल को छोटा कर देती हैं।  यदि ये हवाएंन हों तो सितम्बर माह तक ग्रीष्म ऋतु जारी रहती। इसकी तुलना में यदि अरब देशों की बात की जाये तो यहां मानसून सिस्टम न होने से ग्रीष्म काल पूरा छह माह का होता है जो सितम्बर तक जारी रहता है। यह तब तक चलता है जब तक कि सूर्य नारायण दक्षिणायन यानि दक्षिणी गोलार्ध में प्रवेश न कर लें। 
 
विधाता का भी क्या अद्भुत  गणित है कि यदि दो-चार दिन इधर-उधर छोड़ दें तो हर वर्ष 1 जून को मानसून भारत की दक्षिण पश्चिमी  सीमा पर दस्तक देती है। प्रकृति ने तो अपने कायदे बांध रखे हैं किन्तु मनुष्य अपनी सीमाओं को लांघ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग से बढ़ती पृथ्वी की उष्णता, प्रकृति की चाल में मनुष्य का सीधे-सीधे हस्तक्षेप है। प्राकृतिक सम्पदा का दोहन मनुष्य की मजबूरी है किन्तु इसकी अति मनुष्य की अर्थ लिप्सा का परिणाम है। स्पष्ट है कि भारतीय उपमहाद्वीप का मानसून सिस्टम इस उपमहाद्वीप की जीवन रेखा है और यदि हम इस सिस्टम के साथ खिलवाड़ जारी रखते हैं तो हमें नतीजे भी भुगतने को तैयार रहना होगा। इसके कई संकेत कश्मीर में निरंतर आ रही बाढ़ों में, चेरापूंजी में वर्षों से रिकॉर्डतोड़ बारिश में आ रही कमी में, कहीं अनावृष्टि तो कहीं अतिवृष्टि में मिलने लगे हैं। 
 
संतोष की बात यह है कि नई पीढ़ी ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को समझती है और इस प्रक्रिया को रोकने के लिए प्रतिबद्ध है। इस घातक प्रक्रिया को रोकने के लिए चिंतित और क्रियाशील हैं। विश्वास है कि खतरों के बहुत बढ़ने के पहले ही उनकी रोकथाम के प्रयत्न सफल होंगे तब शायद फिर कोई कालिदास का यक्ष आनंदमग्न मुद्रा में अपने ठीक समय पर उभरे मानसूनी मेघों को अपनी प्रियतमा की ओर प्रेम सन्देश ले जाने को प्रेरित करेगा। भारत भूमि अपने स्वर्णिम अतीत की भांति सदा 'शस्य श्यामलाम' रहे यही इस लेखक की कामना है। 

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