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सुशासन के सूर्य की प्रतीक्षा में पाकिस्तानी अवाम

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, बुधवार, 3 सितम्बर 2014 (15:46 IST)
-शरद सिंगी 
पाकिस्तान में प्रजातंत्र एक बार फिर शहीद होने की कगार पर है और इस देश में बढ़ती अराजकता से सारा विश्व चिंतित है। मोदीजी की तरह ही नवाज़ शरीफ को पिछले वर्ष पाकिस्तान के आम चुनावों में भारी बहुमत मिला था। पाकिस्तान की अवाम ने उन्हें एक सुनहरा अवसर दिया था, पाकिस्तान को आतंकवाद के मार्ग से हटाकर विकास के मार्ग पर आगे ले जाने का किन्तु अफ़सोस, अपने एक वर्ष के कार्यकाल में ही शरीफ पूरी तरह अलोकप्रिय हो चुके हैं।
 
शरीफ साहब के पास अवसर था कठोर कदम उठाने का किन्तु इस भारी जनादेश का उन्होंने कोई लाभ नहीं लिया। न तो भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए कोई कदम उठाए और न ही आतंकवाद के विरुद्ध कोई स्पष्ट नीति की घोषणा की। नवाज़ शरीफ, नरेंद्र मोदी के हम उम्र हैं और दोनों आज़ादी के बाद की पैदाइश हैं। अतः नवाज़ शरीफ की तुलना मोदीजी से होना स्वाभाविक है।  
 
दोनों के शिखर पर पहुँचने की परिस्थितियाँ एक जैसी थीं। दोनों देशों में भ्रष्टाचार चरम पर था और तत्कालीन सरकार अक्षम हो चुकी थी। जनसैलाब हर उस छोटी बड़ी शख्सियत के आव्हान पर जुटने लगा था जो  देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करने की बात करता था। मोदी और शरीफ दोनों, जनता के इस गुस्से को अपने पक्ष में भुनाने में सफल रहे। मोदीजी ने कांग्रेस के खिलाफ जंग जीती तो नवाज़ शरीफ ने पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को शिकस्त दी। इन दोनों ही हारे हुए दलों पर परिवारवादी होने के आरोप हैं। 
 
किन्तु इन दोनों नेताओं की कार्यशैली में ज़मीन आसमान का अंतर है। प्रजातंत्र में  प्रधानमंत्री देश का सेवक होता है, जिसे मोदी जी ने लालकिले से अपने भाषण में दोहराया भी है। दूसरी तरफ शरीफ साहब सेवक नहीं शासक बन कर बैठ गए हैं। कहा  जाता है कि वे सदन में भी कम ही आना पसंद करते हैं। मोदीजी ने देश में एक नया उत्साह खड़ा किया और विदेशों में भी अपनी राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया। भारत की अमेरिका के साथ परमाणु सहयोग आगे बढ़ाने की बातें हो रही हैं। रूस के साथ संयुक्त रक्षा परियोजनाएँ शुरू हो सकती हैं क्योंकि एफडीआई के जरिये विदेशी निवेश के लिए इस क्षेत्र में रास्ते खोल दिए गए हैं। उसी तरह जापान के साथ भी कई रक्षा परियोजनाएं विचाराधीन हैं। भारत की अगले कुछ वर्षों की स्थिरता को देखते हुए स्थितियाँ विदेशी निवेश के अनुकूल हैं। साथ ही गुजरात के अनुभव से कह सकते हैं कि मोदीजी में विदेशी उद्योगों को आकर्षित करने की क्षमता भी है। इस तरह मोदीजी ने जनता के निर्णय का बखूबी लाभ उठाया है वहीँ नवाज़ इसमें चूकते नज़र आ रहे हैं। 
 
पाकिस्तान की अवाम सड़कों पर उतर चुकी है। इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाडी इमरान खान और एक इस्लामिक विद्वान से राजनैतिक नेता बने कादरी। दोनों ने राजनीति किसी दल से शुरू न कर, खुद अपने समर्थकों को शासन के विरुद्ध खड़ा किया है। इमरान खान के आरोप हैं कि पिछले आम चुनावों में बड़े पैमाने में धांधली हुई  और अनैतिक साधनों का उपयोग करके नवाज़ शरीफ चुनाव जीते हैं अतः नवाज़ शरीफ को इस्तीफा दे देना चाहिए। वहीं कादरी पूरी राजनीतिक व्यवस्था बदलना चाहते हैं। 
 
नवाज़ शरीफ मुसीबत में हैं। एक तरफ तो चिंता है इस आंदोलन के बड़ा होने की। कादरी मिस्र के तहरीर चौराहे से बड़े आंदोलन की धमकी दे रहे हैं। दूसरी तरफ सरकार को चिंता है कि कहीं हर बार की तरह इस आंदोलन का बहाना लेकर सेना, चुनी हुई सरकार का तख्ता पलट करके सत्ता पर स्वयं अधिकार न कर ले। पाकिस्तान की सरकार के पास अंदरुनी राजनीतिक आपदा से ध्यान बटाने का एक ही सूत्र है, भारत विरोधी माहौल बनाकर जनता में एक राष्ट्रवादी जुनून पैदा करना ताकि मुख्य मुद्दों से जनता का ध्यान हटाया जा सके। इसी रणनीति के तहत भारत स्थित पाकिस्तान के राजदूत ने कश्मीर अलगाववादी नेता से चर्चा की और पाकिस्तानी सेना ने सीमा पार गोलीबारी शुरू की। अंतरराष्ट्रीय दबावों के चलते इससे बड़ा कोई दुस्साहस करना इतना आसान नहीं है। अतः इन छोटे-मोटे प्रकरणों से ध्यान बंटाने की कोशिश की जाती है, किन्तु अब इन राजनीतिक आकाओं को समझना पड़ेगा कि जनता को बेवकूफ समझने के दिन लद चुके हैं। जनता विकास चाहती है और भ्रष्टाचार से छुटकारा। 
 
पाकिस्तान का दुर्भाग्य कहिए कि आज़ादी के पूर्व की अँधेरी रात के बाद से इस देश में सवेरा हुआ ही नहीं। सूरज के उग जाने भर से सवेरा नहीं होता। राष्ट्र का चरित्र जब जागता है तब  सवेरा होता है। कुछ लोगों को अंधियारों की इतनी आदत हो जाती है कि प्रकाश की एक किरण से भी उन्हें डर लगने लगता है और आँखें मूँद लेते हैं। नवाज़ शरीफ और पाकिस्तान की सेना जितनी जल्दी इस बात को समझ सकें पाकिस्तान के लिए उतना ही हितकर होगा अन्यथा इस अँधियारी रात का कोई अंत नहीं।

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