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विपरीत समय-चक्र से जूझता पाकिस्तान

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शरद सिंगी

यह बात पढ़ने में अटपटी लग सकती है किन्तु यथार्थ यही है कि पाकिस्तान की विश्व समुदाय में आज ऐसी स्थिति है जो एक समाज से निष्कासित व्यक्ति की होती है। अमेरिका और यूरोपीय देशों से उसकी मित्रता तो बस केवल एक-दूसरे से काम निकालने तक ही सीमित है जिसमें आपसी विश्वास के लिए कोई स्थान नहीं है। संसार में कुल जमा तीन तो उसके मित्र राष्ट्र हैं।  चीन, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई)। 
सच कहा जाए तो  वह चीन का मित्र कम, मोहरा अधिक है।  शेष  दोनों अरब देशों ने पाकिस्तान को हर मुश्किल समय में वित्त्तीय सहायता दी।  पिछले वर्ष ही सऊदी अरब ने कंगाल होती पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को सहारा देते हुए डेढ़ बिलियन डॉलर की राशि दी थी किन्तु आज जब अरब देशों को पहली बार पाकिस्तान की जरुरत पड़ी तो उसने अपने ही इन  रहनुमाओं के साथ विश्वासघात करके अपनी साख खो दी है। दूसरे शब्दों में उसने एक बहुत बड़ा कूटनीतिक अपराध करके अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। 
 
कहानी यह है कि यमन अरब देशों में एक सबसे गरीब राष्ट्र है जो वर्षों से अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। पहले उत्तरी और दक्षिणी यमन दो अलग-अलग राष्ट्र थे जो 1990 में एकीकृत होकर यमन गणराज्य बने किन्तु तभी से सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर दक्षिणी यमन को शिकायत रही और 1994 में वापस पृथक होने के लिए गृहयुद्ध भी हुआ जो अंततः असफल रहा। एक कमज़ोर और अप्रभावी सरकार द्वारा शासित होने से यमन उग्रवादियों और आतंकवादियों का आश्रय स्थल बनता गया।
 
यमन की आधिकारिक सरकार को जब से ईरान समर्थित अल हौथी शिया उग्रवादियों ने उखाड़ा  है तब से मध्यपूर्व  के सुन्नी देशों में  चिंता मिश्रित उत्तेजना है।  इन उग्रवादियों ने यमन की राजधानी सना से राष्ट्रपति हादी को भागने पर मज़बूर कर दिया।  अरब देशों की एक बैठक में, यमन में उत्पात मचा रहे ईरान समर्थित अल हौथी उग्रवादियों से लड़ने के लिए व्यूह रचना की गई। पहली बार सभी देशों ने एक साझा सेना बनाने का प्रस्ताव स्वीकार किया।  पाकिस्तान और टर्की ने  अरब देशों को भरोसा दिलाया कि इन उग्रवादियों के साथ लड़ाई में वे अरब दुनिया के साथ हैं। सऊदी अरब के नेतृत्व में नौ देशों की सेनाओं ने यमन पर हवाई हमले शुरू किए और फिर अरब देशों को जरूरत पड़ी जमीनी लड़ाई के लिए पाकिस्तान की थलसेना की और इसीलिए पाकिस्तान से सेना भेजने का अनुरोध किया गया।  किन्तु यह अरब देशों के लिए यह एक विश्वासघात से कम नहीं था कि अब तक पाकिस्तान के भरोसे रहे उन राष्ट्रों के इस अनुरोध पर  पाकिस्तान ने पहले तो टालमटोल की और अंततः उस आग्रह को ठुकरा ही दिया। यह उन देशों के लिए एक बड़े आघात से कम नहीं था।    
 
स्मरण रहे नवाज़ शरीफ को फांसी के तख्ते से बचाने  वाला राष्ट्र सऊदी अरब ही था।  बेनज़ीर और ज़रदारी को पनाह देने वाला राष्ट्र यूएई (दुबई) था। जनरल मुशर्रफ को भी पनाह दुबई ने दी। पाकिस्तान के हर बुरे वक्त में काम आने वाले ये देश अब पाकिस्तान की अहसानफ़रामोशी पर हैरान हैं। न केवल वे पाकिस्तान के निर्णय की निंदा कर रहे हैं बल्कि यूएई के विदेश मंत्री ने तो पाकिस्तान को स्पष्ट धमकी  तक दे डाली कि पाकिस्तान को इस निर्णय की  भारी  कीमत चुकानी पड़ेगी। 
 
सच तो यह है कि पाकिस्तान, ईरान के डर से इस लड़ाई में शामिल नहीं होना चाहता।  पाकिस्तान के पूर्व में भारत की सीमा है, उत्तर पश्चिम में अफगानिस्तान की सीमा है जहां से सेना को हटाया नहीं जा सकता और यदि ईरान से उसने पंगा ले लिया तो पश्चिमी सीमा भी असुरक्षित हो जाएगी। ईरान और अरब देशों की लड़ाई में, पाकिस्तान अभी तक दो नावों की सवारी कर रहा था किन्तु अब उसे एक को चुनने का साहस करना पड़ेगा जो उसमें नहीं है। एक ओर वह ईरान से दुश्मनी लेने की स्थिति में नहीं है तो दूसरी ओर वह अरब देशों से मिल रही खैरात को त्यागने की स्थिति में भी नहीं है। 
 
पाकिस्तानी समीक्षक पाकिस्तान की इस दुर्दशा पर अत्यंत दुखी हैं। पाकिस्तान में सत्ता के दो केंद्र हैं।  प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष।  प्रधानमंत्री यदि चाहें भी तो सेनाध्यक्ष की अनुमति के बिना सेना से सम्बंधित कोई निर्णय नहीं ले  सकते। ऐसे में नवाज़ शरीफ के पास कोई विकल्प  नहीं था सिवाय इसके कि सेना भेजने के  निर्णय को संसद के ऊपर छोड़ दिया जाए और संसद से नामंज़ूर करवा लिया जाए ताकि सऊदी से नवाज़ शरीफ के व्‍यक्तिगत संबंधों में कोई नुकसान न हो। अब खबर यह है कि  सऊदी की नाराज़ी से प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष दोनों सऊदी को समझाने/ मनाने की यात्रा पर जाने वाले हैं। अगले कुछ दिनों में यह स्पष्ट हो जाएगा कि पाकिस्तान की मजबूरी और अरब राष्ट्रों की जरूरत दोनों में कैसे संतुलन बैठाया जाता है। सम्पन्न और सक्षम अरब राष्ट्र तो अपनी जरूरतों से कोई समझौता करने के लिए कभी तैयार नहीं होंगे। समय चक्र पाकिस्तान के ही विरुद्ध घूमता दिखाई देता है। 
 
धर्म के नाम पर आतंक को पोषित करने वाला यह राष्ट्र, जिसकी राजनीति विद्वेष से शुरू होकर विद्वेष पर समाप्त होती है, वह मित्र देशों की जरूरतों के वक्त काम आएगा ऐसा भ्रम टूटना भी जरूरी था। पाकिस्तान के विकास में भरपूर वित्तीय सहायता देने वाले अरब राष्ट्रों का भ्रम टूट चुका है। इतना बड़ा वित्तीय स्रोत सूखने के बाद पाकिस्तान की राजनीति में असैन्य सरकार का महत्व और कम होगा। कभी आतंकियों के साथ तो कभी आतंकियों के विरुद्ध लड़ते पाकिस्तानी सैनिक देश की दिशाहीन कूटनीति से त्रस्त हैं। कोई तीसरे देश की लड़ाई में वे अपनी जान देने को इच्छुक नहीं। ऐसे हालातों में भारत सहित विश्व के सभी देश उसके अगले कदम का इंतज़ार कर रहे हैं। 

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