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पेशावर आतंकी हमला : क्योंकि यह दर्द हर मां का है....

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स्मृति आदित्य

16 दिसंबर था कल। भारत में हम याद कर रहे थे 2012 के उस नृशंस बलात्कार की जिसने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया था। 'ब' से बलात्कार, एक खौलता हुआ भयानक शब्द जो दर्द की किसी टिस को कम होने ही नहीं दे रहा था कि सरहद पार से हमने सुना 'ब' से बच्चे, 'ब' से बंदूक, 'ब' से बदहवास, 'ब' से बर्बर और 'ब' से बेशर्म. .... जाने कितने खौफनाक शब्द... और यह शब्द जिन परिस्थितियों से उपजे वह और भी दर्दनाक और दरिंदगी से सनी...
 

 

 

 
चंचल, चहकती खुशियां अचानक चित्कार बन गई। गुलाबी-गुलाबी बच्चों से उठकर आती खिलती कच्ची खुशबू खून की बदबू में तब्दील हो गई। कितनी मां के 'कलेजे के टुकड़े' स्कूल से टुकड़े-टुकड़े होकर निकले। बच्चों के साथ बस्ते, किताबें, टिफिन, पेन, पेंसिल, कॉपी, टाई, जूते, मोजे, स्वेटर, बेल्ट, घड़ी, स्कार्फ और बॉटल सबने देखे खून के छींटें-बौछारें-फव्वारे और फिर बहता हुआ-हर तरफ चिपचिपाता खून... 
 
जिन हाथों ने खून की यह कायराना और क्रूर होली खेली कभी वे भी तो इस धरती पर उतने ही मासूम बनकर पैदा हुए होंगे फिर वह कौन सी सोच और मजबूरी है जिसने उन्हें राक्षस बना दिया, हैवान बना दिया। आखिर सारी जड़ सोच में ही तो है वरना हम मनुष्य तो सभ्य और सुसंस्कृत कहे जाते हैं। तहज़ीब और तमीज हमारी पहचान है। संस्कृति जब विकृति में बदलती है तब हम उसकी तरफ से आंखें बूंद लेते हैं। यह वक्त नहीं है कि हम उन्हें अपने जख्म गिनाए लेकिन इंसानियत के नाम पर याद तो सब आता है जवान का कटा सिर भी, मुंबई का ताज होटल भी... ताज हादसे के लिए जिम्मेदार हफीज को दी जाने वाली विशेष सुविधा भी... अभी ज्यादा दिन नहीं हुए और वहां की हॉकी टीम ने भारत को हरा कर नंगा नाच किया था... यह भी तो सोच ही है ना.. क्यों कोई आतंकवाद 'आंतकवाद' नहीं जेहाद है और कोई आतंकवाद.... जघन्य...  

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नहीं यह वाकई फूहड़ता है कि जब इंसानियत पर हमला हो तो हम स्वार्थी हो जाए.. हम कतई वैसे नहीं है और कोई सभ्य नागरिक ऐसा हो ही नहीं सकता....भारत के किसी घर में इस कृत्य को 'अच्छा हुआ, अब पता चलेगा वाली' नजर से नहीं देखा गया है क्योंकि मां चाहे वह सरहद पार की हो या भारत की वह सिर्फ मां होती है। 
 
मासूम का कत्ल उसकी नजर में सिर्फ वहशियाना कत्ल ही है और कुछ नहीं.... उसके दिल से खूनी हाथों के लिए गालियां और उजड़ी कोख के लिए संवेदना से आपूरित आह ही निकली है। हर मां ने कल से कितनी ही बार अपनी आंखें पोंछीं है.. अपने लाड़ले-लाड़ली को ना जाने कौन से डर के मारे अपने से चिपका लिया है।

यह दर्द इंसानियत का है जो साझा है। यहां राजनीति नहीं है, यहां धर्म नहीं है, यहां दुश्मनी नहीं है, यहां उनका देश मेरा देश भी नहीं है.... यहां है सिर्फ मां, मां का गर्भ, कच्ची आंखों के साथ दुनिया में गुदगुदा आगमन, नन्हे कदमों से डग-डग चलता राजदुलारा,कभी रूठता, कभी मानता, हंसी, खुशी, शैतानी, किलकारी, मस्ती, चुंबन, छोटे-छोटे हाथ, स्कूल का पहला दिन, पहली किताब, कलम पकड़ते हाथ, प्रतियोगिता में जीतते  नौनिहाल, कभी मचलते कभी उछलते बच्चे हैं और लगातार उनके लालन-पालन की चिंता में घुलती भविष्य के सपने संजोती मां है और कुछ नहीं...
 
  और अचानक हर मां देख रही है अपने हाथ में खून से सनी, आतंकवाद की भेंट चढ़ी अपने बच्चे की लाश...यह दर्द हर मां का है, क्योंकि कत्ल हर बच्चे का हुआ है क्योंकि आतंकवाद हर देश का जहर है... दोष 'तुम्हारा' और 'हमारा' नहीं दोष सोच का है, दोष 'संस्कार' के नाम पर दिए जाने वाले 'विकार' का है दोष 'संस्कृति' के नाम पर दिमाग में 'इंजेक्ट' की जाने वाली 'विकृति' का है...
 
  आज हर मां आहत है क्योंकि वह राजनीति नहीं जानती, धर्म नहीं जानती, सरहद नहीं जानती....  

आज तुम्हारे तो कल हमारे बच्चे हैं कल किसी और के होंगे ....  आतंकवाद ने जिनकी बलि ली है वे सब हमारे बच्चे हैं पर जो बच्चे आतंकवादी बन गए हैं आखिर वे किसके बच्चे हैं... उनकी मां कहां है...?  क्या आज वे अपने हत्यारे बच्चों को उनकी नीच हरकत पर प्यार करेंगी?  वे भी तो मर गए हैं... उनकी मां आज किसका मातम करेंगी? अपनी कोख से जन्मे वहशी के मरने का या उनके द्वारा कुचल दिए गए सैकड़ों कोमल फूलों का .... 
 
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