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चुनावों से विदेशों में भी मोदीजी की छवि में और निखार

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शरद सिंगी

हाल ही के प्रादेशिक चुनावों में यद्यपि जीत भाजपा की हुई है किन्तु इन चुनावों को विश्व में मोदी और विपक्ष की जंग के रूप में अधिक देखा गया। मनमोहनसिंहजी के दस वर्षों के कार्यकाल में प्रान्तों में अनेक बार चुनाव हुए थे किन्तु कांग्रेस के जीतने या हारने पर प्रधानमंत्री के रूप में उन पर मुश्किल से ही कभी कोई सवाल उठे। वर्तमान प्रधानमंत्री के इस चुनावी समर में सीधे उतर जाने की वजह से ये चुनाव देश में ही नहीं वरन विश्व मीडिया में भी चर्चा का विषय बन गए थे। वैसे देखा जाए तो अंतरराष्ट्रीय जगत में प्रादेशिक स्तर पर हुई भाजपा की जीत का कोई अर्थ नहीं क्योंकि विभिन्न देशों के प्रान्तों में भिन्न-भिन्न दलों की सरकारें बनती बिगड़ती रहती हैं और उनका प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति तक ही सीमित रहता है। अब चूँकि इन चुनावों ने अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि पा ली थी इसलिए चलिए देखते हैं कि विदेशी मीडिया ने मोदीजी की इस जीत को किस तरह से लिया।  
 
जैसा कि हम जानते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनावों में दशकों बाद भारत में एक दल को बहुमत मिला था। इस परिणाम के पहले तो यह मान लिया गया था कि भारत में बिना किसी गठबंधन के सरकार बनना नामुमकिन है। तब एक दल के बहुमत की सरकार बनने के बाद यह मिथ टूटा। इसमें संदेह नहीं कि राष्ट्रीय स्तर पर जब स्थिर और सशक्त सरकार होती है तब उस सरकार को विश्व परिप्रेक्ष्य में अधिक शक्तिशाली माना जाता है। छोटे प्रदेशों को छोड़ दें तो लोकसभा के तुरंत बाद हुए दिल्ली और बिहार के चुनावों ने (जहाँ भाजपा पिछड़ गई थी) एक बार तो विदेशी विशेषज्ञों को यह सोचने को मज़बूर कर दिया था कि 2014 की भाजपा की भारी जीत कोई तुक्का तो नहीं थी। यद्यपि वर्तमान सरकार को पांच वर्ष तक बने रहने का जनादेश है किन्तु इस हार से मोदीजी के लंबी दूर तक चलने पर प्रश्नचिन्ह सा लग गया था। अब वर्तमान चुनावों के परिणामों ने दुनिया को एक स्पष्ट संकेत भेजा है कि मोदीजी ही इस समय भारत के सबसे ताकतवर नेता हैं। क्षेत्रीय दलों से लोगों का मोहभंग हुआ है तथा केजरीवाल और ममता बनर्जी जैसे नेताओं की महत्वाकांक्षाओं पर सही समय पर आघात हुआ है। ध्यान रहे, अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपना रुतबा ज़माने के लिए पहले अपने घर में शक्तिशाली  होना जरुरी है और निश्चित ही यह शक्ति और साख मोदीजी को इस जीत से प्राप्त हुई है।
 
मोदीजी की जीत और योगी के मुख्यमंत्री बनने की सबसे अधिक मिर्ची पाकिस्तान को लगनी ही थी। पाकिस्तानी अख़बारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया  में इस जीत का हिन्दू कट्टरवादियों की जीत के रूप में उल्लेख हुआ। भारतीय मुसलमानों द्वारा पाकिस्तान को बार-बार प्रताड़ित किए  जाने के बावजूद वह भारतीय मुसलमानों का रहनुमा बनने की कोशिश करना कभी नहीं छोड़ता है। चीन को भी इस जीत से कोई हर्ष नहीं हुआ। उसके अख़बारों के अनुसार, यह जीत मोदी को और मजबूत करेगी जो  चीन के हित में नहीं है। 
 
पश्चिमी मीडिया का रुख करें तो स्पष्ट होता है कि मोदीजी की इस जीत से राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनका कद बढ़ा है। अमेरिका के 'लॉस एंजिल्‍स टाइम्स', 'वॉशिंगटन पोस्ट', न्यूयॉर्क टाइम्स तो लन्दन के 'द गार्जियन'  जैसे कई अख़बारों ने मोदीजी की जीत का स्वागत किया है। इन अख़बारों ने उन्हें अत्यधिक लोकप्रिय और  मंत्रमुग्ध कर देने वाला वक्ता बताया। वे लिखते हैं कि कालेधन को समाप्त करने के लिए नोटबंदी करने के प्रधानमंत्री के निर्णय को जनता का अपार समर्थन मिला। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तीन वर्षों की सरकार के बाद भी मोदी ने अपनी लोकप्रियता को अक्षुण्ण बनाए  रखा है।  
 
दुःख की बात केवल यह रही की हमारे ही देश के कुछ पत्रकारों ने, जो विदेशी अख़बारों में अपना कॉलम लिखते हैं, भाजपा की इस जीत को साम्प्रदायिकता के रंग में रंग दिया। उन्होंने मोदीजी को भारत के ट्रंप की तरह चित्रित किया। साथ में यह भी लिखा है कि वैसे देखा जाय तो मोदी ट्रंप की तरह न तो अमीर हैं और न ही ट्रंप की तरह बड़बोली करते हैं। वे ट्रंप की तरह मीडिया को गाली भी नहीं देते। तब  कौनसे तर्क से अंत में मोदीजी को भारत का ट्रंप घोषित कर दिया जाता है, समझ से परे है। सच तो यह है कि कुछ पत्रकार केवल अपने क्षुद्र मौद्रिक लाभ के लिए अपने ही देश और उसके प्रधानमंत्री का गलत चित्रण करने से परहेज नहीं करते। ऐसा करने से उन्हें विदेशी अख़बारों में जगह तो मिल जाती है, किन्तु उनकी इस घृष्टता के लिए यदि भारत की जनता उन्हें देशद्रोही करार दे तो फिर उन्हें तकलीफ क्यों होती है? देश के ऐसे कुछ लोग हैं, जो अपने हित के लिए देश को बेच सकते हैं। ख़ुशी बस इस बात की है कि देशहित में अपने को खपा देने वालों की तुलना में इनकी संख्या नगण्य है। इन कुछ अपवादों को छोड़ दें तो निस्संदेह देश का सर्वानुमत अपने कर्तव्यनिष्ठ नायकों के साथ है। 

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