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हर एक घंटे में दो बलात्कार और राजनीतिक इच्छा शक्ति

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, मंगलवार, 9 दिसंबर 2014 (18:12 IST)
- सोनाली बोस

'हर घंटे में 2 बलात्कार' यह कथन अचंभित करने वाला तो है साथ ही सत्य भी है। अगर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर नजर डाले तो सारे तथ्य और भी गंभीर खुलासा करने वाले मिलेंगे। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि पूरे देश में हर रोज लगभग 50 या उससे ज्यादा बलात्कार के केस पुलिस स्टेशन में पंजीकृत होते हैं। यह किसी भी देश को शर्मसार करने वाला आकंड़ा है। यह आंकडा इस ओर इशारा करता है कि उस देश में महिलाओं की इज्जत कितनी महफूज है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े तो सिर्फ उन्ही बलात्कारों के बारे में बताते हैं जो पंजीकृत हुए हैं।


महिलाओं के शोषण और बलात्कार की फेहरिस्त बहुत ही लम्बी है। हर घंटे में दो बलात्कार सिर्फ वह आकड़े हैं जो पंजीकृत होते हैं, पर अगर हम दूरदराज या फिर भारत के ग्रामीण परिवेश में नजर डाले तो महिलाओं के हालात बहुत ही बदतर हैं। यहां खाप, पंचायत, दबंगों और लचर पुलिसिया रवैय्ये का बोल बाला है।  खाप, पंचायत, दबंगों और लचर पुलिसिया रवैय्ये के कारण यहां महिलाओं का न सिर्फ बलात्कार ही होता है बल्कि उनको हर तरह का मानसिक शोषण भी बर्दाश्त करना पड़ता है। यहां महिलाओं के पास अपना आत्मसम्मान बचाने का कोई सजग मार्ग उपलब्ध नहीं है। यहां न मीडिया हैं, न ही दिल्ली और दूसरी मेट्रो सिटी की तरह महिलाओं के हक में सड़कों पर उतरने वाला सामाजिक हुजूम। न कोई चैनलिया डिबेट और न ही कोई ऐसा बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता जो इनकी दर्द से करहाती, मजबूर, लाचार चींखों को देश और राज्य के साथ-साथ न्यायपालिका को भी इनके हक में कोई फैसला करने पर मजबूर कर दे।

महिलाओं के खिलाफ खाप, पंचायत, दबंगों और लचर पुलिसिया रवैय्ये का हर रोज कोई न कोई किस्सा सामने आ ही जाता है। इन तथाकथित पंचायतों के फैसले इतने महिला विरोधी होते हैं कि इनको अगर लिखा जाए तो कुल दुनिया का सारा साइबर स्पेस कम पड़ जाएगा। महिलाओं के खिलाफ लिए गए अगर इनके फैसलों की फेहरिस्त तैयार की जाए तो कई सालों का वक्त लगेगा। पर पता नहीं 'क्यूं' अभी तक देश के साथ-साथ सभी राज्य सरकारें और न्यायपालिका अभी तक इन तथाकथित पंचायतों के कर्मो पर 'मौन' व्रत धारण किए हुए हैं?

जब भी चुनाव आते हैं हर पार्टी अपने-अपने घोषणा पत्र में महिला सुरक्षा और महिलाओं के लिए बहुत बड़े-बड़े, लम्बे चौड़े वादे तो करतीं ही हैं साथ ही अपनी चुनावी रैलियों में महिलाओं के हक में जमकर भाषणबाजी भी होती है, लेकिन चुनाव के साथ-साथ सब घोषणा पत्र और चुनावी वादे माहिलाओं की हालत की तरह फिर वही पुराने रूटीन ढर्रे पर लौट आते हैं। फिर कोई खाप पंचायत या धार्मिक संगठन महिलाओं के खिलाफ कोई फरमान जारी कर रहे होते हैं और सरकार के साथ-साथ न्यायपालिका भी महिलाओं के मुद्दों से परे अपने-अपने काम कर रहे होते हैं।

सत्ता में कोई भी पार्टी हो सबकी महिलाओं के लिए मानसिक स्तिथि एक जैसी ही होती हैं। सभी पार्टी महिलाओं का वोट पाकर सत्ता पर काबिज तो होना चाहती हैं पर खाप पंचायतों, महिलाओं के खिलाफ घार्मिक संगठनों पर कोई भी कार्यवाही करने से एक दम कतराती रहती हैं। महिलाओं पर विपक्ष एक दम सक्रिय भूमिका निभाते हुए धरना प्रदर्शन के अलावा संसद की कार्यवाही को भी रोक कर महिलाओं के सम्मान में बड़ी-बड़ी बाते तो करेगा पर वहीँ सत्ता पक्ष का कोई सेनापति किसी खाप और धार्मिक संगठन के साथ बैठकर वोट बैंक की रणनीति को साध रहा होगा। महिला आयोग में भी हालात कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। देश के तकरीबन सभी आयोगों की तरह महिला आयोग की अध्यक्षा के साथ-साथ और कई सदस्यों की नियुक्ति भी राजनीतिक नियुक्ति है।

महिला आयोग में यह राजनीतिक नियुक्तियां महिलाओं की चिंता से ज्यादा, ये नियुक्त सदस्या अपनी अपनी कुर्सी की चिंता में ज्यादा रहती हैं। महिला आयोग की सभी नियुक्त सदस्या अपनी पार्टी की राजनीतिक विचारधारा के खिलाफ कभी कुछ नहीं बोलती हैं। न ही नियुक्त सदस्या अपनी पार्टी या अपने पोलिटिकल आका के खिलाफ कुछ कर पाती हैं। महिला आयोग भी विपक्ष और सत्ता पक्ष की अपनी अपनी पार्टी के लिए काम करने मशगूल रहती हैं। क्योंकि जिस दिन महिला आयोग किसी भी नियुक्ता सदस्या ने अपनी पार्टी की विचारधारा के खिलाफ कोई भी काम किया उसी दिन इनको न सिर्फ महिला आयोग से ही बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा बल्कि आगे का राजनीतिक जीवन खतरे की घंटी से बंध जाएगा।

महिलाओं के हक के लिए अब कोई भी राजनीतिज्ञ अपना पोलिटिकल करियर दांव पर तो लगाने से रहा?

‘निर्भय काण्ड’ के बाद देश में कई कानून बने पर उनका समाज के साथ-साथ बलात्कारी व्यवस्था पर क्या फर्क पड़ा। क्या बलात्कार होने बंद हुए या फिर पंजीकृत बलात्कार के केसों में कोई कमी आई 'नहीं'। फिर देश में कोई ऐसा कानून क्यों नहीं बनता की इस कानून के बाद किसी की बलात्कार तो क्या किसी महिला की तरफ आंख उठाने की हिम्मत नहीं हो। आज देश में सरकार बहुत सारे सिस्टम दूसरे देशों से अपडेट कर रहीं हैं, तो क्यूं हम महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान के लिए किसी और मुल्क का कानून सिर्फ बलात्कारियों को सजा देने के लिए अपना ले। क्यूं कोई सरकार इतना हौसला दिखाती हैं कि महिला आयोग को राजनितिक नियुक्तिओं से आजाद कर दे। ताकि महिला आयोग को किसी भी अपने पोलिटिकल आका के साथ-साथ पार्टी की विचार धारा का ख्याल से ज्यादा महिलाओं के हक का ज्यादा ध्यान हो?

मुस्लिम समाज में महिलाओं की क्या स्तिथी है यह बात जग जाहिर हैं, लेकिन अगर हम बांग्लादेश और पाकिस्तान के अलावा कुछ और देशों के अपवाद को दूर कर दें, तो सयुंक्त अरब अमीरात और दूसरे खाड़ी देशों में बलात्कार के लिए इतने सख्त कानून और सजा हैं कि यहां बलात्कार का आंकड़ा बाकी कुल दुनिया से सबसे नीचे हैं। हमारे देश में अब क्या न्यायपालिका के साथ सभी राजनीतिक पार्टियां उस दिन का इंतजार कर रहे हैं जिस दिन इस देश में महिलाएं और बद से बदतर हालात में आ जाएंगी?

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