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आखिर ये तमाशा बंद क्यों नहीं होता?

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सीमान्त सुवीर

इस देश की संस्कृति ऐसी है कि यहां मरने के बाद इंसान के बुरे कारनामों को कभी याद नहीं किया जाता लेकिन याकूब मेमन का शुमार ऐसे इंसानों में करना गुनाह है...इसलिए कि उसके हाथों से कोई नेक काम नहीं हुआ, उसने इन्हीं हाथों से मुंबई में सिलसिलेवार 13 जगहों पर तबाही मचाई थी जिसमें 257 लोग मारे गए थे जबकि 713 लोग घायल हुए थे। करीब 27 करोड़ रुपए की संपत्ति को नुकसान पहुंचा था।
29 जुलाई 2015 की रात जब देश की सवा सौ करोड़ आबादी में से 1 फीसदी से भी कम आबादी जागकर टीवी चैनलों पर चल रहे तमाशे को देख रही होगी, उसमें से कई के मन में यह भी विचार ‍आया कि मुंबई बमकांड के जिस मुलजिम को 30 तारीख की सुबह 7 बजे फांसी मुकर्रर की गई है, उसको बचाने के लिए आखिर क्यों इतनी जद्दोजहद की जा रही है? 
 
याकूब की पैरवी करने वालों में कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने कभी डॉ. अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाए जाने का विरोध किया और कुछ लोग ऐसे भी थे जो बलात्कारियों को फांसी देने के लिए दिनभर टीवी पर चिल्लाते रहते थे। क्या कभी इन लोगों ने ब्लास्ट में मारे गए लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त की? उनके परिवार के बारे में सोचा? खैर..
 
इन लोगों के कारण ही पहली बार सुप्रीम कोर्ट की बत्तियां रात 2 बजे जलाई गईं और लायब्रेरी खोली गई ताकि कानून की किताबें सामने रखी जाएं और पूर्व फैसलों को दोबारा बांचा जाए। एक सजायाफ्ता कैदी के लिए वकीलों की जमात इस जुगत में लगी थी कि किसी तरह फांसी टल जाए..ये वो लोग थे जो अपनी वकालत को राष्ट्रीय स्तर पर हीरो बनाना चाहते थे।
 
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नागपुर जेल में बंद खुद याकूब मेमन भी कह चुका था कि उसकी फांसी का राजनीतिकरण किया जा रहा है। दिल्ली में कभी 'आप' पार्टी के अगुआ रहे प्रशांत भूषण को याकूब की सबसे ज्यादा फिक्र थी। 17 जुलाई को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को 'कपटी' और 'बेशर्म' कहने वाले प्रशांत भूषण 29 जुलाई की रात दलबल सहित सीएम हाउस पहुंचते हैं और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से समय देने की गुहार लगाते हैं। 
 
जब वहां बात उनकी नहीं बनी तो वे खुद ही मुख्य न्यायाधीश के निवास पर पहुंच जाते हैं और इसके बाद 'रतजगा' की शुरुआत हो जाती है जिसका पटाक्षेप सुप्रीम कोर्ट में 4 बजकर 50 मिनट पर होता है और यह भी तय होता है कि याकूब मेमन 14 दिन की मोहलत का नहीं बल्कि 'मनीला' रस्सी के फंदे में 7 फीट तक के गड्‍ढे में लटकने का हकदार है।
 
यह पहला मौका है कि जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल खड़े करते हुए किसी आतंकी के साथ हमदर्दी जताने वालों की इतनी बड़ी तादाद देखने को मिली। 1993 में मुंबई में आतंकी हमला हुआ था। मुंबई से दिल्ली काफी दूर है और दूर तो मुंबई से हैदराबाद भी है। 
 
जो लोग आखिरी वक्त तक आतंकी मेमन को फांसी से बचाने में लगे थे वे दिल्ली, मुंबई और हैदराबाद में बसर करते हैं। ये लोग मुंबई में मारे गए बेकसूरों के दर्द को महसूस नहीं कर रहे थे। यदि उनका कोई सगा इन हमलों में मारा जाता तो वे इन आंसुओं की कीमत का मोल आंकते। ये लोग तो अपनी-अपनी रोटियां सेकने में लगे हुए थे। 
 
दिल्ली में तो जैसे होड़-सी लगी थी 'हीरो' बनने की कि किसी तरह यह हत्यारा कुछ दिनों की जिंदगी पा सके, लेकिन भारतीय न्याय व्यवस्था ने याकूब की फांसी को बरकरार रखा और सारी दलीलें अस्वीकार कर दीं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को देश की जनता ने जरूर सलाम किया होगा।
 
भारतीय लोकतंत्र में बोलने की आजादी का जितना गलत उपयोग होता है, शायद ही दुनिया के दूसरे मुल्क में होता होगा। पिछले कुछ दिनों से चैनलों पर एक याकूब मेमन नाम के आतंकी के जिंदा रहने पर बहस हो रही थी और अब उसके फांसी पर टंगने के बाद भी हो रही है। आखिर ये तमाशा बंद क्यों नहीं होता? जब याकूब के सगे भाई सुलेमान को भारतीय कानून व्यवस्था पर पूरा भरोसा है तो फिर अन्य मामलों में फंसे अपराधियों को फांसी के तख्ते तक पहुंचाने की बहस करने वाले लोग क्यों नहीं कर रहे हैं?

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