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दिल्ली का भविष्य तय करेगा यह चुनाव

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वर्ष 2015 का दिल्ली विधानसभा का चुनाव बहुत सारे भविष्यों को तय करने का काम करेगा। विदित हो कि वर्ष 1993 में एक राज्य के रूप में जन्म लेने के बाद से दिल्ली में पहली बार इतनी उथल-पुथल देखी जा रही है हालांकि इस दौरान आम आदमी पार्टी (आप) का जन्म हुआ और अरविंद केजरीवाल दिल्ली की राजनीति के शीर्ष में आए। इससे पहले तीन बार की मुख्यमंत्री सत्ता से बाहर हुईं और अंत में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया। पर फरवरी माह के अंत तक यह अनिश्चितता समाप्त होना तय लगता है।
 
इन चुनावों के बाद यह तय हो जाएगा कि भाजपा का राजनीतिक प्रभुत्व बना रहेगा या फिर आप अपना राजनीतिक वजूद बनाए रखने में सफल होगी। कांग्रेस के राजनीतिक भाग्य से भी यह तय होगा कि यह राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बनी रहेगी या फिर इतिहास बनने की दृष्टि में अग्रसर होती रहेगी? दिल्ली में भले ही विधानसभा की 70 सीटें हैं लेकिन इसके साथ ही यह देश की सत्ता का केंद्रबिंदु भी है। इसके साथ ही, यह चुनाव सभी संबंधित दलों के नेतृत्व की कुशलता का भी परीक्षण करेगा। 
 
जहां तक आप की बात है तो केजरीवाल ने फरवरी में दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और इसके बाद वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। पार्टी को अपना यह फैसला अभी भी दुखी करता है। हालांकि आप और इसके मुखिया ने पहले तो अपने फैसले को उचित बताया, पर बाद में इसके लिए माफी मांगी और अपने फैसले को महत्वहीन साबित करने की कोशिश की। लेकिन भाजपा और कांग्रेस को उन्हें 'भगोड़ा' घोषित करने का मौका दे दिया इसलिए अब पार्टी को मतदाताओं को विश्वास दिलाना होगा कि इस बार वह ऐसी कोई गलती नहीं करेगी। 
 
इसलिए इस बार आप को पूरी तरह से बहुमत से कम या त्रिशंकु फैसला स्वीकार नहीं होगा। लोकसभा चुनावों में अपने खराब प्रदर्शन के बाद आप ने अन्य किसी राज्य में चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं दिखाई और अब इसका सारा ध्यान दिल्ली पर है। आप को पूरे देश में 4 सीटें मिली थीं और ये सीटें भी इसे पंजाब से मिली थीं। तब से इसने अपनी रणनीति बदल ली है और अब अपना सारा ध्यान दिल्ली पर ही केंद्रित कर रखा है। इस बार भाजपा की रणनीति भी बदली है और वर्ष 2013 में दिल्ली के मुख्यमंत्री पद के दावेदार डॉ. हर्षवर्द्धन अब केंद्रीय मंत्री हैं इसलिए सारा फोकस प्रधानमंत्री मोदी पर ही रहेगा। 
 
पार्टी के इस फैसले विशेष रूप से बूढ़े नेताओं को नाराजगी हो सकती है, क्योंकि वे अभी तक राष्ट्रीय नेतृत्व के अंतर्गत चुनाव लड़ने से हतोत्साहित अनुभव कर सकते हैं। लेकिन भाजपा ने प्रधानमंत्री के ही ‍नेतृत्व में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में जीत हासिल की है इसलिए क्या दिल्ली के शहरी मतदाताओं के मध्य भी यही फॉर्मूला चल सकेगा, कहा नहीं जा सकता है और इस मामले में कोई फैसला चुनाव परिणाम के तौर पर ही सामने आएगा। कांग्रेस के मामले में दिल्ली बहुत बेरहम साबित हुई है। इसकी तीन बार मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित केजरीवाल के मुकाबले चुनाव हार गईं और वे ही नहीं पूरी पार्टी भी उनके साथ चुनावों में खेत रही। पार्टी के पास जहां 2008 में 43 सीटें थीं लेकिन 2013 में यह संख्या 8 पर सिमट गई। 
 
पिछले कुछ महीनों में कांग्रेस ने राजधानी में युवा चेहरों को तरजीह दी है और राज्य का नेतृत्व युवा नेताओं जैसे अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली और हारून यूसुफ को सौंपा है लेकिन ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का बहुत से मामलों पर रुख साफ नहीं है। इतना ही नहीं, लगातार असफलताओं के बावजूद पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व सत्ता को विकेंद्रीकृत करने के बारे में नहीं सोचता है इसलिए संभव है कि 2015 के चुनावों के परिणाम कांग्रेस के एक और झटका साबित हों।

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