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दिल्ली की सड़कों पर दौड़ते सवाल

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जयदीप कर्णिक

देश की राजधानी दिल्ली में प्रचार का शोर थम चुका है। भोंगे वाली खुली जीपें और रनगाड़ों के पहिए भी रुक गए हैं। पर सवाल हैं कि तेजी से दौड़ रहे हैं। आप किसी बिजनेस मीटिंग में हों या बस यों ही किसी से मिल रहे हों ये सवाल आपका पीछा करते हुए तुरंत आपके सामने खड़े होंगे – क्या हो रहा है भाई दिल्ली में, यार ये केजरीवाल को इतनी सीटें मिल भी जाएँगी या यों ही हवा है बस.... मोदी जी की लहर कितना असर दिखाएगी? क्या ये विजय रथ रुकेगा या एक पड़ाव और पार हो जाएगा? क्या किरण बेदी को लाकर भाजपा ने ठीक किया? क्या भाजपा को इतना अधिक आक्रामक प्रचार करना चाहिए था? क्या व्यक्तिगत हमले ठीक थे? वो जो वोटर लोकसभा में 7-0 से भाजपा की महाविजय का कारण बने थे, क्या वो ग़ायब हो गए? वो बदल गए? क्या जनता ने अरविंद केजरीवाल को माफ कर दिया?
सवाल हैं कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे। कयास तो सभी चुनावों में लगाए जाते हैं, एकदम तय जीत वाले चुनाव तो कम ही होते हैं। कश्मकश हर चुनाव में होती है। पर दिल्ली के विधानसभा चुनाव तो मई के लोकसभा चुनावों से भी काफी रोचक हो गए हैं। गोया कोई ट्‍वेंटी-20 का मैच चल रहा हो और फैसला आख़िरी गेंद पर होने वाला है।
 
बहरहाल फैसला तो 10 फरवरी को आएगा, पर कल 7 फरवरी को दिल्ली के लिए बड़ा दिन है। फैसला तो कल रात को ही ईवीएम में बंद हो जाएगा, धड़कनें 10 तक रुकी रहेंगी। इसमें कोई शक नहीं कि बाकी राज्यों के मुकाबले दिल्ली के चुनावों को थोड़ी ज़्यादा तवज्जो मिलती रही है, पर पिछले चुनावों में आम आदमी पार्टी के उदय ने दिल्ली के चुनाव कवरेज का पैमान ही बदल दिया। अन्ना आंदोलन से लेकर चुनाव तक दिल्ली देश पर छाई रही। परिणाम भी रोमांचक ही रहे। अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बन गए। बन गए वहाँ तक तो ठीक पर शुरुआती गलतियों ने ताबूत तैयार कर दिया था और इस्तीफा देकर आख़िरी कील भी ख़ुद ही ठोक दी। बदलाव की चिंगारियाँ शोला बनने से पहले ही राख हो गईं। लोकसभा में 400 से ज्यादा उम्मीदवार उतारकर अरविंद केजरीवाल वो माचिस भी ख़ुद वाराणसी जाकर गंगा में फेंक आए थे जो आगे आग जला सकती थी। 16 मई को इस राख पर पानी भी जमकर बरस गया। 
 
भाजपा का विजय रथ आगे ही बढ़ता जा रहा था, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड...भाजपा विजय मद में चूर। इधर केजरीवाल धूल झाड़कर उठने की कोशिश कर रहे थे, उस राख में फिर फूँक मार रहे थे कि फिर जल जाए जिसे वो ख़ुद बुझाकर निकल गए थे। इधर भाजपा दिल्ली को लेकर ख़ूब पसोपेश में रही। चुनाव आगे बढ़ाती रही। केजरीवाल और टीम सिर खुजाते हुए भी अपने काम में लगी रही। चुनाव घोषित हुए तब भी पलड़ा भाजपा का ही भारी था। सभी को भाजपा 50 या अधिक सीटों पर खड़ी दिखाई दे रही थी। सभी मान रहे थे कि ये ‘भगोड़ा केजरीवाल' कहीं रेस में ही नहीं है। भाजपा मोदी जी को ही लेकर आगे बढ़ी, फिर अचानक किरण बेदी को ले आई। इसे ‘मास्टर स्ट्रोक’ माना गया। फिर अचानक यों लगने लगा कि हवा कुछ बदल रही है। टिड्डी दल की तरह गली मोहल्ले में उतरे आप के टोपी वाले कार्यकर्ता कहाँ से आए और प्रचार करने लगे पता नहीं। पर माहौल तो बन रहा था। माहौल तो वाराणसी में भी बनाया था, कितना वोट में बदलेगा पता नहीं। पर भाजपा ने इसे हल्के में नहीं लिया। कांग्रेस का तो जिक्र भी नहीं किया और अरविंद केजरीवाल पर हमले तेज़ कर दिए। दोनों और से जीतने की ज़िद चरम पर दिखाई दी और मर्यादाएँ भी लाँघी गई। प्रचार की इस लगातार बढ़ रही आग में ही कहीं केजरीवाल को वो चिंगारी दिखाई दी जिसे वो खोज रहे थे। क्या ये उधार की चिंगारी आग में बदल पाएगी? ये तो 10 तारीख को ही पता चलेगा। एक सवाल ये भी है कि जितना माहौल दिख रहा है रस्साकशी का वो बस हवा ही है और दरअसल दिल्ली का वोटर तो अपना मन बना चुका है... इतने सवालों के मकड़जाल में तीनों ही पार्टियों से चंद सवाल पूछते हुए इस रोमांचक मुकाबले के नतीजों का इंतज़ार करेंगे, क्योंकि जवाब तो जनता को ही देने हैं –
 
भाजपा से –
1. क्या लोकसभा के साथ ही या तुरंत बाद ही चुनाव नहीं करवा लिए जाने चाहिए थे?
2. क्या मोदी जी के ही दम पर चुनाव नहीं लड़ना था?
3. क्या किरण बेदी को लाना मास्टर स्ट्रोक है या सबसे बड़ी भूल?
4. क्या आपने लगातार व्यक्तिगत हमलों से अरविंद केजरीवाल को ज़रूरत से ज़्यादा महत्व नहीं दे दिया?
5. केंद्र और राज्य के साथ-साथ विकास का मुद्दा क्या ज़्यादा प्रभावी नहीं होता?
 
आम आदमी पार्टी से –
1. आपने उम्मीदवार चुनने के लिए पिछली बार जो प्रक्रिया अपनाई थी वो क्यों त्याग दी?
2. हर फैसले में जनता की रायशुमारी कहाँ है?
3. दागी उम्मीदवार आपके यहाँ भी हैं, ग़लत तरीके से पैसा लेने के आरोप आप पर भी हैं, शराब बाँटने के भी आरोप लग रहे हैं – तो आप अलग कैसे हुए?
4. सड़क पर उतरे सारे टोपी वाले समर्थक हैं या “पेड वॉलेंटियर”?
5. अपना घर संभला नहीं, लोग छोड़-छोड़कर चले गए, देश क्या संभालोगे?
 
कांग्रेस से –
1. लोकसभा से पहले और उसके बाद की लगातार हार से आपने क्या सबक लिया?
2. पंद्रह साल की सत्ता हारने और आप को हल्के में लेने के बाद एक और मौका मिला था, फिर आप हल्के क्यों पड़ गए?
3. जो काम आम आदमी पार्टी ने कर लिया, भाजपा को चुनौती देने का, विकल्प के रूप में सामने आने का, आप क्यों नहीं कर पाए?
4. शीर्ष नेतृत्व का मसला कब हल होगा? इस सवाल का जवाब दिए बगैर आप सफलता की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
5. सत्ता छोड़िए, एक सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने की भी आपकी तैयारी है क्या?
 
सवालों की इस भीड़ में एक कयास भी, शायद दिल्ली के भाग्य में इस बार पूर्ण बहुमत लिखा हो.... किसका ये तो 10 तारीख को ही पता लगेगा।
 

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