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आध्यात्मिक साधना से होंगे रोग दूर

विपश्यना : मनोविकारों को दूर करने की कुँजी

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शरीर को स्वस्थ रखने के लिए तो हम शारीरिक व्यायाम करते हैं, परंतु मन को स्वस्थ रखने के लिए कुछ नहीं करते। हमारा मन जब प्रदुष्ट होता है तो मनोरोग उत्पन्न होते हैं। मन को सर्वविध स्वस्थ और मनोविकारों से स्थाई रूप से विरत रखने की कुँजी है- 'विपश्यना'।

प्राचीन युग में ऋषि-मुनियों ने आध्यात्मिक स्वास्थ्य की दृष्टि से जिस सात्विक जीवन पर बल दिया, वह सब कुछ विपश्यना से सहज सुलभ है। नई पीढ़ी में कुछ मिथ्या धारणा बन गई है कि ऐसी आध्यात्मिकता की ओर केवल वे बूढ़े व्यक्ति अग्रसर होते हैं, जिन्हें समय बिताना कठिन होता है। जवानी में ये सब बातें निरर्थक लगती हैं।

अभी तो मनोरंजन, कमाई और समाज में स्थापित होने के दिन हैं। मृत्यु परम सत्य होते हुए भी बड़ी दूर दिखाई देती है। जब व्याधियाँ-बीमारियाँ शरीर पर दस्तक देने लगती हैं और सारी चिकित्सा-पद्धतियाँ उसे दूर करने में नाकामयाब रहती हैं। मृत्यु साक्षात सिर पर खड़ी दिखाई देती है, तब जीने की लालसा और बढ़ती है। तब वह रहस्यमयी आध्यात्मिक शक्तियों और क्रियाओं की खोज करता है। शायद उससे कोई राहत मिले-दवाइयों से छुटकारा मिले।

प्रश्न उठता है कि आध्यात्मिक साधना क्या रोगों को ठीक करने में मदद करती है? प्राकृतिक चिकित्सा की मान्यता है कि ईर्ष्या-द्वेष के बाहुल्य से तनाव बढ़ता है और मनुष्य में बुढ़ापे के लक्षण कम उम्र में ही आ जाते हैं। क्रोध तनाव का कारण है और कुण्ठा का संबंध 'हार्ट-अटैक' एवं ब्लडप्रेशर या पेष्टिक अल्सर (मैस्ट्रिक) जैसी बीमारियों से है। ब्लडप्रेशर कालांतर में फालिज का कारण बनता है। भय एवं क्रोध पाचन क्रिया को खराब करते हैं और संग्रहणी के जनक हैं। अशांति और व्याकुलता मधुमेह को बढ़ाती है और उसके कारण भी हो सकते हैं।

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तनाव, बेचैनी, अशांति, भय, उदासी और अनिद्रा तो सर्वमान्य मन के रोग हैं ही तथा इन्हें दूर करने के लिए मनुष्य नशे का सहारा लेने लगता है एवं उसे उससे भी बड़ा रोग नशे का लग जाता है। नशे की लत चाहे पान में जर्दे की हो, चाहे पान-मसाले, गुटका, खैनी या गुलकी हो, चाहे सिगरेट, बीड़ी की हो, चाहे भाँग, शराब या अफीम के सेवन की हो सब तलब पर निर्भर है और तलब शरीर में होने वाली संवेदना पर निर्भर करती है। नई पीढ़ी में अब पेथेर्डान, हीरोइन मेंड्रेक्स, कोकीन आदि नशे की लत पड़ती जा रही है। किसी-किसी का तो इनके बगैर जीना दूभर होता दिखाई देता है। तलब हुई कि नशे की ओर बढ़े और डूबते ही गए।

इतनी भिन्न दिखने वाली सारी बीमारियों की जड़ मन के विकार हैं, जिन्हें निर्मूल करने में कोई आध्यात्मिक साधना ही मदद कर सकती है। 'विपश्यना' साधना से हम विकार से विमुक्त हो सकते हैं और अंततः रोगमुक्त भी। यही इसका वैज्ञानिक पहलू है। आधुनिक वैज्ञानिक चिकित्सा-पद्धति का भी मानना है कि मानसिक विकारों- जिनमें तनाव, दब्बू व्यक्तित्व, दूसरे पर निर्भरता, हीनता की भावना, अहंकार, क्षमता से अधिक महत्वाकांक्षा, ईर्ष्या आदि प्रमुख हैं- से अनेक रोग हो सकते हैं, जिन्हें मनोजन्य शारीरिक (साइकोसोमैटिक) रोग कहा जाता है। इसमें प्रमुख हैं-

1. उदर रोग- गैस, पेट में जलन, अल्सर आदि।
2. फेफड़े के रोग- दमा।
3. हृदय रोग- रक्तचाप, हार्ट-अटैक, एन्जाइना।
4. मस्तिष्क रोग- सिरदर्द, अर्धकपाली, शरीर में जगह-जगह दर्द।
5. चर्म रोग- एक्जिमा, सोराइसिस आदि।

मन के विकार ही इन रोगों के कारण हैं एवं वे ही इनका संवर्धन करते हैं। जब-जब इन रोगियों के मन शांत एवं विकार रहित होते हैं तो ये रोग घटने लगते हैं। मानसिक रोग जैसे-तनाव, उदासी, चिंता, अवसाद, अनिद्रा, हिस्टीरिया आदि तो मन के विकारों से उत्पन्न होने वाले रोग ही हैं।'विपश्यना' इन भिन्न दिखने वाले रोगों को मन में निर्मलता लाकर ठीक करती है।
'विपश्यना' में पहले साँस और मन एकाग्र करना बताया जाता है। हम जानते हैं कि मन और साँस का गहरा संबंध है। भय, क्रोध आदि विकार जागने पर साँस तेज चलने लगती है और इनके समाप्त होने पर फिर अपनी सरल, साधारण धीमी गति पर वापस आ जाती है। साँस में जब मन केंद्रित हो जाता है तो उसी क्षण मन विकार रहित होता है।

(डॉ. श्रीप्रेमनारायण सोमानी भूपू निदेशक चिकित्सा विज्ञान संस्थान काशी हिविविद्यालय, वाराणसी)

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