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रमजान: जिंदगी गुजारने की ट्रेनिंग

- जावेद आलम

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असल में तो रमजान एक ट्रेनिंग है कि इस दुनिया में रहते हुए, पूरी दुनिया के कामकाज करते हुए हमें कैसी जिंदगी गुजारना चाहिए। यह सिखाता है कि आम दिनों में भी हम अपनी इच्छाओं पर काबू रखें। मन को भटकने न दें। ऐसे तमाम कामों से दूर रहें जिनसे अल्लाह नाराज होता है। अपने हाथ-पैर, यहाँ तक कि अपनी आँखों और कानों को भी बुरे कामों को करने, देखने-सुनने से रोकें।

रमजान का एक पैगाम यह भी है कि हम दूसरों की दुःख-तकलीफों को महसूस करना सीखें। इसीलिए रमजान में भूखे रहने का हुक्म है जिससे हमें उन लोगों की तकलीफ का अहसास हो जिन्हें खाना नहीं मिल पाया। जो भूखे हैं। यह आज्ञा पालन व रब के समक्ष पूर्ण समर्पण का उदाहरण भी है। रोजेदार चाहें तो छुपकर कुछ भी खा-पी सकते हैं लेकिन रोजा रब के लिए रखा जाता है, सो पूरी अकीदत, पूरी श्रद्धा से इसके नियमों का पालन किया जाता है।

रमजान हमें रब के अहकामात पर चलना व उसकी बंदगी करना भी सिखाता है। यह सिखाता है अल्लाह के हुक्मों के आगे सिर झुकाना, नत मस्तक हो जाना। वह ऐसे कि बहुत से काम जो हम आम दिनों में करते हैं, रमजान में उनकी मनाही हो जाती है। जैसे दिन में खाना-पीना। आम दिनों में इस पर कोई रोक नहीं है लेकिन रमजान में दिन के समय खाना-पीना हो ही नहीं सकता, क्योंकि रोजा इसकी इजाजत नहीं देता है। रोजा हर बालिग मर्द व औरत पर फर्ज यानी अनिवार्य है। रोजे की हालत में आप सूरज उगने के कुछ समय पहले से सूर्यास्त होने तक न कुछ खा सकते हैं, न पी सकते हैं। इससे रोजा टूट जाता है और बिना किसी मजबूरी के रोजा तोड़ देना बहुत बड़ा गुनाह है।

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इसी तरह रमजान की रातों में तरावीह की विशेष नमाज पढ़ी जाती है। यह भी उसके हुक्मों को बिना हील-हुज्जत के मानने का ही स्वरूप है। रोजे में दिन भर के कामकाज से थके-मांदे इंसान की ख्वाहिश होती है कि रात को अच्छे से आराम किया जाए। लेकिन रब का हुक्म और उसके रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) का तरीका है कि रात को विशेष बंदगी की जाए। सो तरावीह की लंबी नमाज के जरिए बंदा रब से कहता है कि मैं तेरे हुक्म को मानने वालों में से हूँ।

इसी तरह सहरी का मामला है। इसमें सूर्योदय से कुछ पहले थोड़ा-बहुत खाते हैं। सहरी के लिए हजरत मुहम्मद ने फरमाया है कि सहरी खाया करो, इसमें बरकत है। सहरी खाने का सवाब भी बहुत है। यहां भी वही बात है कि दिन भर की थकान, फिर रात की लंबी नमाज, उस पर अलस्सुबह उठना। जाहिर है ऐसे में बंदे का जी तो बहुत चाहता है कि बिस्तर बिलकुल न छोड़े, लेकिन हुक्म भी तो पूरा करना है। सो सहरी खाकर रोजा रखा जाता है।

असल में यह सारी ट्रेनिंग है। इसकी कि अल्लाह के नेक बंदे अपनी पूरी जिंदगी इसी तर्ज पर गुजारें। वे अल्लाह के हुक्मों को मानें, हराम यानी बुरी बातों से बचें, दीन-दुखियों का दुःख-दर्द महसूस करें व उनकी मदद करें। रोजा रखने वालों को इन बातों पर गौर करना चाहिए ताकि दुनिया के सामने वे एक मिसाल पेश कर सकें।

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