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संवत्सर का स्वर्णिम इतिहास

गुड़ी पड़वा विशेष

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ज्योतिर्मय
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त्योहारों को ले कर सारे विवाद ही खत्म हो जाएँ अगर आप लोग तिथियों के स्थान पर तारीखों के अनुसार उनका समय निश्चित कर दें। अंग्रेजी त्योहारों के बारे में कभी कोई समस्या नहीं होती। उनकी तारीख और समय निश्चित है। भारतीय त्योहारों के बारे में भी ऐसा क्यों नहीं हो सकता। ज्योतिषी और धर्माचार्य मिल कर कोई ऐसा फार्मूला तय कर लें कि बार-बार उत्पन्न होने वाली यह समस्या ही खत्म हो जाए।

काँची के शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती से 1982 में कुछ पत्रकारों ने कहा था। उस वर्ष संवत्‌ 2039 था। उस वर्ष दो अधिक मास थे आश्विन और फाल्गुन। एक क्षयमास भी था पौष। इस कारण दशहरा और होली के त्योहार दो-दो बार मनाए जा रहे थे। उस स्थिति पर आत्मनिंदा और हीनता का विचित्र माहौल बना हुआ था। शंकराचार्य ने कहा कि समस्या पद्धति में नहीं, हमारी समझ में है। कालगणना की हमारी पद्धति ज्यादा जीवंत और सूक्ष्म है। उसे समझें, तो आनंद आएगा।

जिसे संवत्सर कहा गया है वह मोटे तौर पर ऋतुओं के एक पूरे चक्र का लेखाजोखा है। सामान्य धारणा है कि ऋतुएँ सूर्य और पृथ्वी की स्थिति और अंतर्संबंधों के कारण आती-जाती है। पिछली शताब्दी तक विज्ञान भी यही प्रतिपादित करता था। भारत की मनीषा के निष्कर्ष अलग और सूक्ष्म हैं। कुछ वर्षों से ज्योतिर्विज्ञान भी इन निष्कर्षों के करीब पहुँच रहा है। उनके अनुसार ऋतुओं का निर्धारण सूर्य और पृथ्वी के अंतर्संबंध ही नहीं चंद्रमा, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र और शनि के अलावा आकाश में स्थित तारों के सत्ताईस समूह(नक्षत्र) भी होते हैं।

वर्षों की गणना करते हुए संवत्सर का उपयोग दो हजार साल से ज्यादा पुराना नहीं है। प्राचीनतम उल्लेख विक्रम संवत्‌ का ही मिलता है। इस संवत्‌ का प्रवर्तन सम्राट विक्रमादित्य द्वारा किए जाने की मान्यता पर संदेह है। इतिहास की दृष्टि में तो इस नाम के किसी सम्राट या राजा का कभी अस्तित्व ही नहीं था।

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पुराण, साहित्य और लोकस्मृति ने इस तरह के संदेह को महत्व नहीं दिया है। इन स्रोतों और संदर्भों के अनुसार मर्यादा, चरित्र, शौर्य पराक्रम, नीति और न्यायनिष्ठा में विक्रमादित्य का स्थान राम के बाद निश्चित होता है। लोकस्मृति में महानायक की तरह जीवंत रहने वाले विक्रमादित्य ने ईसा से 57 वर्ष पूर्व इस संवत्‌ की स्थापना की। इतिहास की दृष्टि में विक्रम संवत चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (375-413 ईस्वी) नाम के राजा ने शुरू किया था। उससे पहले यह संवत्‌ मालव और कृतसंवत के नाम से भी प्रचलित था।

शालिवाहन या शक संवत का उल्लेख भी ज्योतिष ग्रंथों में मिलता है। विक्रमीय संवत से यह 165 वर्ष बाद या ईस्वी सन 78 में आरंभ हुआ। कश्मीर में सप्तर्षि संवत का उल्लेख मिलता है। इस संवत का उपयोग करते समय शताब्दियों का उल्लेख नहीं किया जाता। संवत और भी हैं।

वर्धमान, बुद्ध निर्वाण, गुप्त, चेदि, हर्ष, बंग, कोल्लम आदि करीब तीस तरह के संवतों का उल्लेख आता है। इनमें कई नाम के लिए है। प्रचलित और लोकप्रिय संवतों में विक्रमीय और शालिवाहन ही मुख्य हैं। शालिवाहन या शक संवत का उल्लेख विक्रमीय संवत के साथ ही आता है। स्वतंत्र रूप से इसे ज्योतिष के कुछ ग्रंथों में गणना के लिए किया गया है।

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