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दिल की फ़ाँस को पैरों से निकालने की कोशिश...

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जयदीप कर्णिक

शीर्षक थोड़ा अजीब लग सकता है, पर जब आप पत्रकार विजय मनोहर तिवारी की हाल ही में प्रकाशित किताब– ‘भारत की खोज में मेरे पाँच साल’, पढ़ेंगे तो आप पैरों के छालों से दिल की फाँस के इस सफर को भी तय कर लेंगे और इस अंतरसंबंध को भी समझ लेंगे। विजय तिवारी ने अपनी पूरी यायावरी के दौरान जो घोषित लक्ष्य था, अपने अख़बार के लिए कवरेज करना, रिपोर्टिंग करना, एक्सक्लूसिव स्टोरी ढूँढना उस पर तो काम किया ही है, पर वो एक अघोषित लक्ष्य को भी लगातार भेदने की कोशिश करते रहे। 
ये अघोषित लक्ष्य महज इन लेखों और रिपोर्ताज़ को पुस्तक आकार दे देना कतई नहीं था, वो तो साधन है। साध्य कुछ और है। साध्य है भारत को, उसके इतिहास को, उसमें व्याप्त विसंगतियों को लेकर उनके भीतर मौजूद बेचैनी को सतह पर लाना। भीतर और भी कुछ है जो खदबदा रहा है। एक अजीब सी उत्कंठा, एक छटपटाहट जिसे मंच देने के लिए अखबार के पन्ने काफ़ी नहीं हैं। किताब भी शायद ही साध्य को पा सके, पर हाँ अख़बार के पन्नों में बिखरी वो छटपटाहट एक जगह तो आई। उसने एक आकार तो लिया। ये भी तय है कि वो आगे भी नए मौके ज़रूर तलाशेगी। 
 
बहरहाल विजय मनोहर तिवारी की ये पुस्तक – भारत की खोज में मेरे पाँच साल, मुझे मिले कुछ समय हो गया। कुछ स्वभावगत आलस्य और कुछ अस्त-व्यस्त रहने की आदत के चलते इसे तुरंत नहीं पढ़ पाया। जब पढ़ना शुरु किया तो रुक नहीं पाया... क़िताब ख़ुद ही आपको खींचने लगती है। हालाँकि किताब स्वयं आपको बीच में विराम के मौके भी देती है। क्योंकि क़िताब में कुल 25 धाराएँ हैं (लेखक ने उन्हें कहानियाँ कहा है) मैं धाराएँ इसलिए कह रहा हूँ कि अलग-अलग होते, बहते हुए भी वो एक ही समुद्र में मिलने को आतुर हैं। सब एक ही तरफ दौड़ रही हैं। 
 
इन 25 मोतियों में दौड़ता एक महीन धागा है, जो सबको एक ही सूत्र में जोड़े हुए है, माला बनाने की कोशिश करता है। नहीं, वह लेखक नहीं है, वह उसके अवचेतन में व्याप्त बेचैनी है, कुछ इतिहास की पीड़ा है, कुछ दिल के छाले हैं। ये भी सिर्फ़ संयोग नहीं है कि उन्होंने अपनी बात इज़रायल के ओल्ड ज़ेरुशलम से कहते हुए अपनी इस पुस्तक को शुरू करना पसंद किया... यह ना केवल, प्रासंगिक और अपेक्षित ही है बल्कि पूरी 25 कहानियों को पिरोने वाले सूत्र को पकड़ने के लिए पर्याप्त है। 
 
इन तमाम यात्राओं में दिल में चुभी फाँस को निकालने की कोशिश में हुई घुमक्कड़ी के दौरान पैरों में पड़े छालों पर लगाने के लिए थोड़ा मरहम तो उन्हें जेरुशलम में मिल ही गया होगा। ये मरहम लगाते वक़्त ही एक हूक सी उठी होगी जिसने इन यात्राओं को उन्हें रील की तरह आँखों के सामने घुमा दिया। यों भी जब आप भीतर होते हैं, गहरे उतरते हैं तो अलग तस्वीर बनती है। जब आप बाहर निकलते हैं तो अलग। दोनों का ही अपना महत्व है। बाहर से दिखी भारत की तस्वीरों को कॉलाज के रूप में जोड़ने में उन्हें मदद मिली होगी। 
 
लेखक के इन शब्दों को देखिए – “भारत अपने हर हिस्से में और हर हरकत में एक अलग परिचय देता है। भारत के बारे में आप कितना भी पढ़ लें, घूम लें, लेकिन एक राय कायम नहीं कर सकते। भारत यानि कुछ जलसे। कुछ ज़ख़्म। कुछ धोखे। कुछ पाखंड। कुछ आहें। कुछ कराहें। कुछ हैरतअंगेज़ सा। कुछ ऐसा जिस पर आप गर्व करेंगे तो कुछ चीज़ें आपको शर्मसार भी करेंगी। एक बेबूझ सी पहेली। मगर कुछ ऐसा भी जिसे आप प्यार करना चाहेंगे। अगर एक बार आप पूरा भारत घूम लें तो जल्दी ही यह अहसास हो जाता है कि यह ऐसा मुल्क है जो अतीत में पीछे पसरी कई सदियों में जी रहा है। कभी-कभी आप महसूस करेंगे कि आप अलग-अलग सदियों में ही घूम रहे हैं।“ 
 
अलग-अलग सदियों में जी रहे इसी भारत को जीने और उसे पुस्तक रूप में पेश करने की कोशिश विजय मनोहर तिवारी ने बहुत मेहनत और शिद्दत से की है। सभी 25 कहानियाँ आपके सामने से ऐसे गुजरती हैं जैसे आप कोई बायस्कोप देख रहे हों। एक के बाद एक कहानियों रूपी शब्द चित्र आँखों के सामने से गुजरते हैं। फिर वो दिल की फाँस और धागा तो है ही, बस जो आप उसे पकड़ लें तो....। 
 
पहली धारा अयोध्या से शुरू हुई है और यह भी संयोग नहीं है। उच्च न्यायालय के रामजन्मभूमि पर आए ऐतिहासिक फैसले के दिन वो अयोध्या में थे और बात उन्होंने वहीं से उठाई है। जन्मभूमि विवाद के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समेटने की भी अच्छी कोशिश उन्होंने की है। अयोध्या से निकलकर वह सीधे सच्चिदानंद भारती के पुण्यकर्म से आपका परिचय करवाने उत्तराखंड पहुँच जाते हैं। वह अपनी यात्रा में नए साल के चमकते सूरज को देखने अरुणाचल के दोंग भी जाते हैं, दिवाली की जगमग देखने तमिलनाडु के वेल्लोर भी गए, केरल के पद्मनाभस्वामी मंदिर भी गए, कन्याकुमारी और धनुष कोडी भी गए। 
 
मंदिरों की यात्राओं को उन्होंने – ‘यहाँ बसती है आत्मा’ का शीर्षक दिया तो वहीं चार राज्यों के पाँच पिछड़े जिलों की सारी रिपोर्टिंग - माथे पर कलंक शीर्षक से एक जगह पेश की। इन दो खंडों में भारत की जो विसंगतियाँ और जो कंट्रास्ट उन्होंने पेश किया है वह हर शहर हर गली में पसरा वह सच है जो भारत को लेकर सतत अचंभित, बेचैन, दु:खी, प्रसन्न, हताश, आनंदित ... सब एकसाथ करता है। 
 
दुनिया का कोई मुल्क ऐसे विरोधाभासों को इतने तरीके से एकसाथ नहीं जीता होगा। जेपी और विनोबा की पड़ताल भी उन्होंने खादीग्राम और बैरांई के जरिए की है। नए जमाने के जिन लोगों के पास जयप्रकाश नारायण और विनोबा भावे के बारे में पढ़ने का धैर्य और समय नहीं है वो इसमें कुछ ऐसा निचोड़ पा सकते हैं जो उन्हें और जानने के लिए प्रेरित करे। 
 
लेखक की ये पंक्तियाँ पढ़िए – “यह कहानी हम भारतीयों के उस शर्मनाक चारित्रिक पहलू को भी सामने लाती है जिसमें हम ख़ुद को अपनी ही विरासत के प्रति गैर जिम्मेदार पाते हैं। हम जल्दी ही अपनी उस असलियत पर आ जाते हैं जिसने इस देश को हमेशा से नुकसान पहुँचाया। हम सपनों को अधूरा छोड़ देते हैं। लोगों का भरोसा तोड़ते हैं। अवसरों को फिजूल जाने देते हैं। प्रतिभाओं को कुंठित करते हैं। हम तब तक नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों के खंडहरों पर खैनी चबाते हुए खेती करते रहते हैं, जब तक पुरातत्व का जानकार कोई विद्वान विदेशी ख़ुद आकर हमें अपनी भूली-बिसरी विरासत का सही पता नहीं दे देता!” 
 
उत्तर प्रदेश, बिहार और दक्षिण भारत से उनकी चुनावी रिपोर्टिंग भी पठनीय है। उत्तर प्रदेश के 2012 के चुनावों के कुछ सिरे, तथ्य और मुद्दे अभी फिर 2017 के चुनावों में उत्तर प्रदेश की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों के काम आ सकते हैं। फिर भी यह सब वह है जो स्थूल है, जो दिखता है, जो सूक्ष्म है वह गहरा, महत्वपूर्ण और गंभीर है। पैर में चुभे काँटे को निकालने के लिए जिस तरह अपने हाथों से बारीक सुई लेकर अपनी ही चमड़ी को हौले-हौले उघाड़ने की हिम्मत एहतियात के साथ करनी होती है, कुछ वही कोशिश लेखक विजय मनोहर तिवारी ने अपने इन लेखों, रिपोर्टिंग, यात्रा-वृत्तांत और चलते-फिरते के माध्यम से की है। कुछ लोग इस काँटे तक पहुँच जाएँगे और कुछ को जतन करना होगा। 
 
अपने यात्रा वृत्तांत में विजय जिस तरह से वर्तमान घटनाओं और स्थानों को पुरातन से जोड़ते हैं, वह दिलचस्प और पठनीय है। वह छोटे और सुंदर पुल बनाते चलते हैं वर्तमान और अतीत के बीच। उनके भीतर मौजूद इतिहास का विद्यार्थी और पत्रकार इन पुलों में करीने से ईंट और सीमेंट लगाता चलता है। इनमें से बहुत से पुल उनके दिल की फाँस से होकर ही गुजरते हैं और यह समझा जा सकता है। इस पूरे क्रम में वो नर्मदा बाँध के विस्थापन के दर्द और उनकी हरसूद की रिपोर्टिंग और बाद में लिखी पुस्तक को भी नहीं भूल पाए हैं। सो एक अध्याय उस पर भी है। 
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कुल मिलाकर ये पुस्तक पठनीय भी है और संग्रहणीय भी। पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए भी और वर्तमान भारत की खोज में छोटे पुलों से पीछे घूम आने की इच्छा रखने वाले पाठकों के लिए भी। कई पुराने पुल जो आपने इतिहास में झाँकने के लिए इस्तेमाल किए होंगे, वह ध्वस्त होते भी आपको नज़र आएँगे।
 
पुस्तक की छपाई साफ़ और सादगी भरी है। रंगीन चित्र देने और लागत कम करने के उद्देश्य से उन्हें एक साथ बीच में जोड़ने की बजाय उन्हें श्वेत शयाम में ही कहानियों के साथ लगाते तो और प्रभावी होता। किताब में प्रूफ की ग़लतियाँ कम हैं, पर जो हैं वो कश्मीरी पुलाव में आए कंकर की तरह चुभती हैं।
 
पुस्तक के आख़िर में विजय मनोहर तिवारी ने इच्छा जाहिर की है कि वह उन सब स्थानों पर दोबारा जाना चाहेंगे....जहाँ वह गए थे। उन्हें ज़रूर जाना चाहिए, उन पर भी और नए स्थानों पर भी, रिपोर्टिंग के लिए नहीं; केवल क़िताब लिखने के उद्देश्य से, भारत को खोजने के लिए, नए पुल बनाने के लिए, दिल की फाँस को निकालने की कोशिश में पैरों में चाहे जितने छाले पड़ जाएँ... चरैवेति... चरैवेति। 
 
 
पुस्तक – भारत की खोज में मेरे पाँच साल
लेखक – विजय मनोहर तिवारी
प्रकाशक – इरा प्रकाशन
मूल्य 550 रुपए

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