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त्यागना होगा हिन्दी के प्रति अपना व्यवहार

हिंदी दिवस विशेष

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विश्वदिनी पांडेय

विश्व में ऐसा कोई राष्ट्र नहीं है, जिसे अपनी राष्ट्र भाषा पर गर्व न हो। प्रत्येक जाति अथवा राष्ट्र की एक भाषा, उसके भाव प्रकटीकरण का माध्यम होती है। हमारे राष्ट्र का एक गौरवमय एवं समृद्ध इतिहास है। हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत है। पूर्व में विदेशी आक्रमण और हमारी मानसिक पंगुता ने हमें अपनी मूल भाषा से विमुख कर दिया।

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सल्तनत काल की भीषण आपदाओं ने संस्कृत भाषा को एकदम सीमित कर दिया। रही-सही कसर आततायी अंग्रेजों की अंग्रेजी ने निकाल दी। हम पूर्णतः मानसिक रूप से अपनी भाषा से बिछड़ गए हैं। इतना सब कुछ होने के बाद भी हमारे संत, कवियों तथा विद्वानों ने हिन्दी के रूप में हमारी अस्मिता को जीवित रखा।



दुसह्य कष्टों के बाद भी हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी वर्तमान में भी विद्यमान है। कोई भी राष्ट्र अपनी मातृभाषा के प्रति जितना सजग रहता है, हम उतने ही उदासीन रहते हैं। हमारी राष्ट्र भाषा के प्रति ऐसा क्यों हुआ, यह बहुत ही महत्वपूर्ण एवं चिंतनीय है तथा इसके प्रति भूतकाल के षड्यंत्र का परिणाम स्पष्टतः परिलक्षित होता है। इसके लिए हमारा वैयक्तिक स्वार्थ ही उत्तरदायी रहा है।

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प्रायः आज भी तथाकथित बुद्धिजीवियों में हिन्दी के प्रति उपेक्षा की भावना है। वे हिन्दी को असक्षम तथा अपूर्ण भाषा मानते हैं।

उनका अंधा तर्क है कि अंग्रेजी पढ़े बिना उच्चता को प्राप्त नहीं किया जा सकता। अंग्रेजी के बिना विश्व वैज्ञानिकता एवं समृद्धि को पाना असंभव है।

ऐसे महानुभावों को इजराइल जैसे एक छोटे से राष्ट्र से शिक्षा लेनी चाहिए, जिसने अल्प काल में ही अपनी राष्ट्र भाषा में प्रथम श्रेणी से लेकर डॉक्टर तक की शिक्षा का प्रबंध (हिब्रू) में किया है।

चालाक अंग्रेजों ने भारत में दास प्रवृत्ति के लोग उत्पन्न कर दिए, जो अपनी सुविधा एवं लोभ के वशीभूत होकर हिन्दी के प्रति निरुत्साह दिखाया।



अंग्रेज सन् 1857 की क्रांति के बाद से प्रायः अप्रत्यक्ष रूप से सशंकित रहते थे। उन्हें भय था कि भारतीय जन-मानस में कहीं स्वतंत्रता की चिनगारी पुनः न आ जाए।

अंग्रेजों ने यहां की मूल भाषा (संस्कृत) हिन्दी पर अंग्रेजी थोपने का सुनियोजित प्रयास कर दिया। एक प्रकार का ऐसा इतिहास लिखा, जिसने भरतवंशियों को सदा के लिए मानसिक रूप से गुलाम बना डाला

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डॉ. ह्‌यूम नामक एक अंग्रेज ने सन्‌ 1884 में कांग्रेस की स्थापना की, जिसका अभिप्राय था अंग्रेजी भाषा को प्रमुखता देना। ह्‌यूम ने अपनी कुटिल योजना को क्रियान्वित करने के लिए स्नातकों के नाम एक पत्र निकाला और उनसे आग्रह किया कि 'देश का नेतृत्व अपने हाथों में लें, उस समय के युवा अपनी संस्कृति की महानता से अनभिज्ञ तथा अंग्रेजी शिक्षा से प्रभावित थे।


कांग्रेस का सदस्य बनने के लिए अंग्रेजी पढ़ा-लिखा होना अनिवार्य

वे सब देश के नेतृत्व के लिए संगठित होने लगे। कांग्रेस की प्रथम बैठक में ही कांग्रेस का संविधान बना। वह यह था कि कांग्रेस का सदस्य बनने के लिए अंग्रेजी पढ़ा-लिखा होना अनिवार्य होगा। जो अंग्रेजी पढ़ा लिखा नहीं है, वह अनपढ़ है।

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इस प्रकार कांग्रेस को देश की मुख्य धारा से अलग कर कांग्रेस की स्थापना की गई थी। सन्‌ 1919 में पूज्य बापू का कांग्रेस में आगमन हो चुका था। उन्होंने प्रथम बार हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में मान्यता देने का भरसक प्रयास किया। स्वराज्य प्राप्ति के बाद हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में अदृश्य मान्यता तो मिल गई, किंतु वह एक मरीचिका ही बन कर रह गई।



बापू हिन्दी के पक्षधर थे

बहुतों के अंग्रेजी प्रेम ने इस शाश्वत सत्य को अस्पृश्य क्यों समझा? यह घोर चिंता का विषय है। आखिरकार महात्मा गांधी को कहना पड़ा- 'हम हिन्दी को आने वाले 15 वर्षों में सुदृढ़ एवं समर्थ बनाएंगे। हिन्दी के विकास के लिए एक आयोग बैठाया गया, जिसका कार्यकाल प्रति 5 वर्षों का किया गया। बापू हमेशा से हिन्दी के पक्षधर थे।

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अंग्रेजी की महिमा बखान करने वाले कहने लगे-हिन्दी राष्ट्र भाषा पद के योग्य नहीं है। दुर्भाग्य कहिए कि उक्त आयोग का कोई अर्थ ही नहीं रह गया। संविधान सभा में ऐसे लोग थे, जो क्षेत्रीय भाषा की माला जपते थे, किंतु अंग्रेजी को अधिक महत्व देते थे।

संविधान निर्माण के समय ही हिन्दी का नेतृत्व असमर्थ हो गया। भाषा के प्रश्न को राष्ट्र का प्रश्न न बनाकर अंग्रेजी के प्रचार का प्रश्न बना दिया गया। आश्चर्य है कि पवित्र संविधान की प्रति केवल अंग्रेजी में उपलब्ध है।



हिन्दी की चिन्दी भी न बची तो....

आज हिन्दी असहाय एवं नेतृत्वहीन हो गई- यद्यपि उसे राजभाषा के रूप में मान्यता है, किंतु राष्ट्र के सभी क्रियाकलाप अंग्रेजी में ही संचालित हो रहे हैं। प्रगतिशील कहे जाने वाले लोग अपने-अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाने में अपना सम्मान समझते हैं।

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अंग्रेजी के लोभी अपने बच्चों को भी परंपरा विरुद्ध संस्कार डालने में गर्व का अनुभव करते हैं। आज इस प्रकार के परिवारों में अंकल-आंटी एवं थैंक्स नामक कुऔषधि का व्यापक प्रचलन है।

सर नामक संबोधन ने तो भारतीय गुरुओं का रहा-सहा सम्मान भी समाप्त कर दिया है। जागरण से शयन तक अंग्रेजी उनके जीवन की दिनचर्या बन चुकी है।

दुःख है कि हिन्दी जैसी पूर्ण वैज्ञानिक भाषा के प्रति इतना घिनौना व्यवहार क्यों हो रहा है? इतना ही नहीं, विश्व विकास के नाम पर हिन्दी अंकों को तिलांजलि दे दी। ऐसा लगता है कि आगे चलकर कहीं हिन्दी की चिन्दी भी न बचे।

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