Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

हिन्दी : विद्वानों की नजर में

हमें फॉलो करें हिन्दी : विद्वानों की नजर में
हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दीविदों से किए गए इस संवाद से इतना तो यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि हिन्दीसेवी संस्थाओं के सामने चुनौतियां बड़ी हैं। दूसरे इन संस्थाओं को मिल-जुलकर कुछ मोर्चों पर ठोस काम करके दिखाना होगा तब ही इनके प्रति व्याप्त सामान्य राय बदलेगी और उससे भी बढ़कर हिन्दी का कुछ तो भला अवश्य होगा।


webdunia
FILE
चर्चित कवि अशोक वाजपेयी का कहना है,'प्रायः हरेक संस्था दुर्दशाग्रस्त है। एक तो लक्ष्य की स्पष्टता का अभाव है और दूसरे जो लोग वहां हैं, उनमें स्वप्नदर्शिता और कल्पनाशीलता का सर्वथा अभाव है । इन संस्थाओं का हिंदी साहित्य और भाषा से संवाद भी बेहद क्षीण है। हिंदी का जो भी विकास हुआ है वह इन संस्थाओं के बावजूद हुआ है। यानी इसके विकास का श्रेय किसी संस्थान को नहीं दिया जा सकता । ज्यादातर संस्थाएं तो ऐसी पत्रिकाएं भी नहीं निकाल सकी हैं जो हिंदी में कोई विशेष जगह बना सकी हो । इसकी एक वजह यह है कि इन संस्थाओं के लिए काम करने वालों का चुनाव करते वक्त साधारण कोटि के लोगों से बचा नहीं जा रहा। उसे चुने जाने का प्रतिरोध नहीं हो पाता। जाहिर है, इन संस्थाओं में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो लीक से हटकर सोचता हो । जो हैं वे ढर्रे पर चलने वाले हैं।

साहित्यकार विभूति नारायण राय का कहना है, 'भारत के बाहर लगभग 150 विश्वविद्यालयों में हिंदी किसी न किसी रूप में पढ़ाई जा रही है। महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय इन संस्थाओं के बीच सेतु बने ऐसी कोशिश शुरू हो गई है। इस भूमिका का निर्वहन तभी संभव हो सकेगा जब सरकार महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय को देश और उससे बाहर केंद्र खोलने की इजाजत दे और दुनियाभर में हिंदी पठन-पाठन के समन्वय का काम नौकरशाही से लेकर उसे सौंप दे। विदेशों में फैले हिंदी भाषी लोगों को भारतीय हितों से जोड़कर एक हिंदी राजनय की शुरुआत की जा सकती है और यह विवि उसमें भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी, वह उस भूमिका में कितना सफल हो पाया, इसकी पड़ताल हिंदी समाज को जरूर करनी चाहिए, हालांकि किसी संस्थान के जीवन में 15 वर्ष अधिक नहीं होते पर यह समय इतना जरूर है कि किसी संस्था के भविष्य का एजेंडा तय कर दे।

webdunia
FILE
कवि अशोक चक्रधर भी इस बात को स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं,'हिंदी के लिए जितना किया जाना चाहिए था, वह नहीं हो पा रहा, इसकी मुझे चिंता है। मैं चाहता हूं कि हिंदी नई पीढ़ी तक पहुंचे, हालांकि इसमें संदेह नहीं है कि हिंदी बदल रही है और तकनीक के साथ चलने लगी है बल्कि मुझे लगता है कि जो लोग यह कहते हैं कि तकनीक की वजह से हिंदी का विकास नहीं हो पाया, वे गलत हैं। तकनीक ने तो काम आसान किया है। हिंदी में कई ऐसे सॉफ्टवेयर आ रहे हैं जो इसके तकनीकी विकास को भी प्रमाणित करते हैं। मिसाल के तौर पर प्रवाचक ऐसा ही एक नया उत्पाद है जो पूरे के पूरे टेक्स्ट को हिंदी में बदल देता है। द्रुतलेखन भी ऐसा ही सॉफ्टवेयर जो हिंदी के विकास में सहायक होगा। लिहाजा मुझे तो लगता है नई तकनीक भाषाओं के प्रति संवेदनशील है, कमी तो प्रयोक्ताओं की ओर से है। अशोक चक्रधर हिंदी के विकास के लिए काम कर रही संस्थाओं के बीच रचनात्मक संवाद की बात भी कहते हैं। उनके अनुसार, 'हिंदी के विकास के लिए तमाम संस्थाओं को एक-दूसरे के सहयोग के लिए आगे आना चाहिए। मिल-बैठकर आगे बढ़ना चाहिए क्योंकि कोई एक संस्थान सारा काम नहीं कर सकता। आपस के अंतर्विरोध दूर करने भी अनिवार्य हैं। हिंदी के विकास के लिए हिंदीसेवी संस्थाओं का संगठन बहुत जरूरी है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi