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बढ़ रहा है हिन्दी का वर्चस्व

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हिन्दी की वर्तमान स्थिति पर हुए सर्वे में एक सुखद तथ्य सामने आया कि तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ी है। स्वीकार्यता बढ़ने के साथ-साथ इसके व्यावहारिक पक्ष पर भी लोगों ने खुलकर राय व्यक्त की, मसलन लोगों का मानना है कि हिन्दी के अखबारों में अंगरेजी के प्रयोग का जो प्रचलन बढ़ रहा है वह उचित नहीं है लेकिन ऐसे लोगों की भी तादाद भी कम नहीं है जो भाषा के प्रवाह और सरलता के लिए इस तरह के प्रयोग को सही मानते हैं।

जो भी हो व्यस्तता के कारण हिन्दी की किताबें पढ़ने का मौका भले ही न मिलता हो लेकिन आधुनिक संचार माध्यमों ने हिन्दी को एक लोकप्रिय भाषा तो बना ही दिया है।

राजभाषा की हालत और इसके गौरव की फिक्र करने वालों के लिए एक सुखद समाचार है कि व्यावहारिक रूप से हिन्दी की हैसियत बढ़ रही है। हालांकि कहा, माना और देखा तो यही जाता है कि अंगरेजी के साए में हिन्दी पिछ़ड़ रही है लेकिन इस आमफहमी को एक सर्वे ने झुठला दिया है। इस सर्वे से खुलासा हुआ है कि व्यावहारिक दृष्टि से हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ रही है और राष्ट्रभाषा ने अंगरेजी समाज में भी अपने चाहने वाले बनाए-बढ़ाए हैं। सर्वे में शामिल अधिकांश लोग मानते हैं कि दिवस और पखवाड़ों के आयोजन से हिन्दी के प्रचार-प्रसार में भी मदद मिलती है लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी कुछ कम नहीं जो इन आयोजनों को महज रस्म-अदायगी मानते हैं। अधिकांश लोगों का यह भी कहना है कि हिन्दी के अखबारों में अंगरेजी के शब्दों का प्रचलन सही है । जहां तक पठन-पाठन का सवाल था तो ज्यादातर लोग कहानी पढ़ना पसंद करते हैं, उसके बाद कविता और फिर लघुकथा व उपन्यास। हिन्दी दिवस के मौके पर सर्वे ने जानने की कोशिश कि हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी की दशा क्या है, उसके विकास की क्या स्थिति है, हिन्दी के नामी लेखकों और उनके कामकाज से हिन्दी पट्टी के लोग कितने वाकिफ हैं, वे क्या पढ़ना पसंद करते हैं और क्या हिन्दी के अखबारों में अंगरेजी के शब्दों का बढ़ता प्रचलन उन्हें रास आ रहा है या फिर वे अखबारों द्वारा शब्दों की मिली-जुली इस खिच़ड़ी को मजबूरी में खा रहे हैं।

दिवस और पखवा़ड़ों के आयोजन और इनकी प्रासंगिकता पर भी रायशुमारी की गई। 46 प्रतिशत लोगों ने यह माना कि व्यावहारिक रूप से हिन्दी की हैसियत बढ़ रही है। 34 प्रतिशत ने इसको खारिज किया जबकि 20 फीसद लोग इस बात से अनजान निकले।

किसी न किसी वजह से चर्चाओं में रहने वाले वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र यादव आम जनता के बीच भी खासे जाने जाते हैं। यादव के अलावा मृणाल पांडे, नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी और निदा फाजली को भी लोग उनके नाम और काम से जानते हैं। सर्वे में शामिल 84 प्रतिशत लोगों का कहना है कि वे विश्वनाथ त्रिपाठी, पद्मा सचदेव, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल और श्रीलाल शुक्ल को भी उनके नाम और काम से जानते हैं।

16 प्रतिशत लोगों को इन लेखकों के बारे में कुछ नहीं पता था। हिन्दी अखबारों में अंगरेजी के शब्दों के प्रचलन की बात करें तो सर्वे में शामिल 46 प्रतिशत लोग इस प्रचलन को सही मानते हैं लेकिन दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसग़ढ़ और पटना के ज्यादातर लोग इस प्रचलन को सही नहीं मानते। देश की राजधानी दिल्ली के करीब 70 प्रतिशत लोगों का कहना है कि यह परंपरा ठीक नहीं है। उनका कहना है कि कई अखबार तो जबरन अंगरेजी शब्द ठूंस देते हैं।

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