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दिवाली : संस्कृति को रोशन करता झिलमिलाता पर्व

हमें फॉलो करें दिवाली : संस्कृति को रोशन करता झिलमिलाता पर्व
, शनिवार, 18 अक्टूबर 2014 (15:34 IST)
दिवाली या दीपावली एकमात्र ऐसा त्योहार है जो समृद्धि और संस्कृति के बीच सेतु की भूमिका निभाता है। समृद्धि की यह आराधना संस्कृति के कारण ही की जाती है। इसे पौराणिक युग की गहरी सोच का निष्कर्ष कहना ठीक होगा कि जीवन के विभिन्न अंगों को संस्कृति के माध्यम से जोड़कर एक संतुलन कायम किया गया है। 


 
समृद्धि तात्कालिक, अल्पकालीन या दीर्घकालीन हो सकती है। संस्कृति एक परंपरा के रूप में सतत प्रवाह है। समयानुसार परिवर्तन, संशोधन-संवर्धन उसका गुण है। समृद्धि चार दिनों की चांदनी हो सकती है जबकि संस्कृति का प्रकाश पीढ़ियों, युगों, सदियों तक चमकता रहता है। 
 
आज के दौर में समृद्धि की व्याख्या की आवश्यकता नहीं रह गई है। समृद्धि की गति और साधनों से जन्मी निरंकुशता संस्कृति को नकारने तक का साहस जुटा रही है। एक गंभीर प्रश्न है कि क्या समृद्धि संस्कृति को निगल जाएगी? या परंपरागत शक्ति के रूप में स्थापित संस्कार व संस्कृति को कुछ समय के लिए ग्रहण लग जाएगा? या भौतिक समृद्धि की चकाचौंध में संस्कृति का दीया धुंधलाकर टिमटिमाने को मजबूर हो रहा है?
 
 इसका उत्तर खोजने में सहायक होगा यह जानना कि विद्वानों ने संस्कृति को किन शब्दों में परिभाषित किया है। 
 
'भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास' नामक पुस्तक में सत्यकेतु विद्यालंकार लिखते हैं, 'मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग कर विचार और कर्म के क्षेत्र में जो सृजन करता है, उसी को संस्कृति कहते हैं।' बुद्धि सभी को मिलती है। उसके प्रयोग का निर्णय विवेक करता है। इसलिए पहला सवाल उठता है कि यदि विवेक नहीं दिखाई देता है तो क्या केवल बुद्धि के प्रयोग को सोच की अराजक स्थिति कहा जाना चाहिए? 

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ऐसी परिस्थितियां इन दिनों जगह-जगह, भिन्न-भिन्न मौकों पर दिखाई देने लगी हैं। क्या इन्हें विवेकहीनता का परिणाम कहना होगा? उपर्युक्त परिभाषा के दूसरे हिस्से में विचार और कर्म के क्षेत्र में 'सृजन' का उल्लेख है। इन दिनों दो तरह के विचार मिलते हैं। एक वे जो पुस्तकों में दर्ज हैं। आदर्श के तौर पर दोहराए जाते हैं। सही उत्तर देने से बचने में इन आदर्शवादी विचारों का उपयोग नया चलन है। 
 
दूसरी तरह के विचार आर्थिक समृद्धि पर केंद्रित हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि संस्कृति के क्षेत्र में विचार और कर्म के माध्यम से बहुआयामी सकारात्मक सृजन परंपरा को संशोधित स्वरूप में सुदृढ़ आधार देने वाला नहीं लगता। संस्कृति के बारे में यह भी कहा जाता है कि संसार में जो सर्वोत्तम बातें जानी या कही गई हैं, उनसे स्वयं को परिचित कराना ही संस्कृति है। यहां परिचित कराने से आशय उन श्रेष्ठ तत्वों को आत्मसात करने से है। 
 
संस्कृति को अनेक तरह से परिभाषित किया गया है। उदाहरण के लिए, शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण, सुदृढ़ीकरण, विकास या उससे उत्पन्न अवस्था संस्कृति है। संस्कृति को मन, आचार अथवा रुचि की शुद्धि, सभ्यता का भीतर से प्रकाशित हो उठना भी कहा गया है। 
 
इसे दैनंदिन की दिनचर्या को शिष्टता प्रदान करने वाला अनुशासन भी माना गया है। परिभाषाएं गिनाने का अर्थ इस जमाने की राह की दिशा को स्पष्ट करना ही है। संस्कृति की चर्चा करते हुए पृष्ठभूमि में संस्कार एक महत्वपूर्ण, शक्तिशाली कर्म-तत्व के रूप में मौजूद रहता है।
 
यह चर्चा दीपावली के इस मौके पर इसलिए कि यही एक ऐसा त्योहार है जिसके व्यापक स्वरूप में समृद्धि व संस्कृति मनुष्य जीवन में सिक्के के दो पहलू के रूप में जीवंत बने रहते हैं। जीवन की विभिन्नताओं को दृष्टिगत रख मौन भाव से व्यक्ति व समाज के दैनंदिन जीवन के सपने संजोते हैं, कल्पना गढ़ते हैं और आशाओं के फूल बिखेरते हैं। 

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जो बीत गया उसकी याद दिलाते हैं। जो हो सकता है उसकी संभावनाओं के पंख फैलाते हैं, सफलता की ऊंची उड़ान के लिए। एक भिन्न उपमा के रूप में संस्कार व संस्कृति एक धीमे-धीमे बहती नदी के सतत प्रवाह के समान है जो खुद तो पवित्र बना ही रहता है, साथ ही जहां तक भी उसकी बूंद रिसकर पहुंचती है वहां तक उसके गुण भाव पहुंचते रहते हैं। 
 
इस बहाव की धारा का टूटना या सिकुड़ना स्थापित सभ्यता को ही मरुस्थल बना सकता है। बिखेर सकता है। अराजक कर सकता है। संस्कृति पर चोट पहुंचाने वाली समृद्धि ऊंचाई से गिरने वाले जलप्रपात की ऐसी धारा के समान है जो वर्षों से टिकी चट्टान को तोड़ती है। 
 
ऐसी धारा की शक्ति को नियंत्रित कर लोकहित में उपयोग करने के लिए, फिर संस्कृति के बहाव की ओर ही झांकना पड़ता है। समृद्धि की कामना के साथ, समृद्धि की जगमगाहट और प्रदर्शन को साथ रखकर मनाया जाने वाला दीपावली का त्योहार भी संस्कृति स्वरूपी साज-सज्जा, पूजा-प्रार्थना में ही आराधना के सुफल का विश्वास संजोए होता है।

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