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अपने हस्तिनापुरों में : प्रभा मुजुमदार की 6 कविताएं

हमें फॉलो करें अपने हस्तिनापुरों में : प्रभा मुजुमदार की 6 कविताएं
, शनिवार, 18 अक्टूबर 2014 (11:16 IST)
अपने हस्तिनापुरों में -1  
 
धृतराष्ट्र होने का मतलब 
अंधा होना नहीं होता, 
 धृतराष्ट्र होना होता है, 
अपनी मर्जी, खुशी और सुविधा के साथ,
कुछ भी देख सकने की दिव्य दृष्टि 
कुछ भी अनदेखा 
कर भी सकने की आजादी,  
अपने अंधत्व को, कैश कर सकने की बाजीगरी, 
 
दिनदहाडे भरे दरबार में 
प्रबुद्धों और शूरवीरों के ठीक सामने, 
मनमर्जी से फर्मानों को जारी कर सकने की निरंकुशतास। 
 किसी समर्थ को, 
वंचित, दीनहीन कर सकने की बेहयाई,
असंतोष की आवाजों को, हिकारत, गुस्से और बेरहमी से नजरअंदाज कर सकने की अकड़।
एक अल्पसंख्यक सरकार टुकडों-टुकडों बंटी सभा के बीच कौन सा निर्णय थोप नहीं सकती... 
 
 
अपने हस्तिनापुरों में -2 
 
‘क’’ के खिलाफ़ हैं 
पंचानवे मुकदमे ’ख’ के खाते में दर्ज हैं सौ ’ग’ ने ताउम्र 
जेल से ही खेली है राजनीति, एक का वोट बंधा जाति के नाम, 
तो दूसरे ने काटी है धर्म की फसल, और यह तीसरा, 
बांट रहा है सबको भाषाओं के नाम,  वे तीनों आश्वस्त है अपनी चाल के 
तुरुप के पत्ते से, हमारी आंखों पर डले भारी भरकम परदों से, 
बुजदिली और सुविधा परस्ती से, 
उन्हीं में से तो आयेगा कोई, ढोल धमाकों के साथ 
हमारा भाग्य विधाता बन, जिसे कोसेंगे हम रात-दिन
चाय की चुस्कियों के बीच, 
हर एक कायर पीढी, जो युद्ध के मैदान में जूझने की बजाय, 
पीठ दिखा कर भागती है चुपचाप उसे मुबारक हो यह सौगात 
बार बार 
प्रजातंत्र के नाम।            
 
अपने हस्तिनापुरों में -3 
 
अंधे के हाथ, 
लग गए हैं रेवडियों के भंडार,  
अक्षय पात्र में प्रकट होती किसी सम्पदा की तरह 
बांटे जा रहा है उसे लगातार, 
महानता के बोध से दिपदिपाते, 
तो कभी वंचित कर सकने के क्रूर सामर्थ्य का अहसास लिए, 
अंधा यह जानता है कि कौन उसका अपना है और कौन पराया,  
स्पर्श/ गन्ध/ आवाज/ आकृति
यहां तक की 
मौजूदगी का अहसास भी, सलाहकारों की 
विराट सेना के बीच 
तलाश लेता है परामर्श स्वीकारने अथवा
नकारने की वजह, 
जानता है यह भी कि दान का अपरिमित सामर्थ्य 
कल फिर नहीं होगा उसके पास, 
समय के किसी मोड़ पर खुद उसे खड़े रहना पड़ सकता है 
किसी और के आगे दान पात्र लिए, अहंकार और 
आत्ममुग्धता के बावजूद,
समझता है वह सब गदगद और कृतज्ञ नहीं है उसके प्रति। 
आंसू और कड़वाहट ईर्ष्या और षडयंत्रों की आंच अनुभव कर रहा है। 
जानता है वह मील के अगले पत्थर के लिए 
फिर नई दौड़ की सबकी उतावली 
नए भगवान और उसके दलालों के सहारे। 
ठगा सा महसूस करता है  
हाथ खाली हो जाने पर अपनी महत्वहीनता की कल्पना से।  
रेवडियों से वंचित,
बगावत की आवाजों को
घोंट भी दे दरबानों के आतंक से तब भी आखों की चिंगारियां
और भींची हुई मुठियां 
दिख जाती है उसे बन्द आंखों के बावजूद. 
दृष्टी का कोई भी वरदान
सुविधाजनक नही होगा। 
 
 
अपने हस्तिनापुरों में -4   
 
चक्रव्यूह के हर द्वार पर 
मैं अकेला ही खड़ा था, महारथियों की 
समवेत सेना के सम्मुख, 
तलवारों की नोंक से
अपने को बचाता हुआ 
अंधी सुरंगों के बीच 
उजास की रेखाएं ढूंढ निकालता हुआ,  
आसपास होकर भी बहुत दूर थे अपने लोग,  
किसी की दुआओं
किसी के आशीषों 
किसी के गुर और मंत्रणाओं से बहुत परे 
मुझे ही लेने थे अपने निर्णय, 
चुनने थे अपने हथियार 
बनानी थी खुद ही रणनीति, 
एक ही चूक से जहां खत्म हो जाता है खेल, 
गढ़ती और विसर्जित होती हैं 
प्रतिमाएं। 
बदल जाते हैं भूगोल और इतिहास।  
समय के हर मोड़ पर
अकेले ही लड़नी होती हैं निर्णायक लड़ाई  
हमेशा।   
          
 
अपने हस्तिनापुरों में-5  
 
जनतंत्र, 
जन की नहीं 
धन की शक्ति से चलता है,
 जैसे हर भगवान को चाहिए, 
विराट और समृद्ध मन्दिर 
भेंट और चढावे सुरक्षा और दिव्यत्व भक्त और महंत,  
जनतंत्र को भी चाहिए कुछ रुतबा, 
अभेद्य सुरक्षाचक्र से मंडित संसद, 
विधानसभाएं, मंत्री, राज्यपाल, 
राष्ट्रपति के लिए आलीशान कोठियां, 
महल, बगीचे. वर्दी और मैडल सुसज्जित कमांडो,
लालबत्ती, सायरन, लम्बे काफिले, वेतन भत्ते सुविधाएं, विदेश यात्राएं, विशेष विमान, 
देवताओं की तरह फूलमालाएं, चढावे। 
प्रवचन सुनने, 
तालियां बजाने को तत्पर भक्तों की जमात. प्रजातंत्र के इन मन्दिरों के लिये 
तख्त, ताज और मूर्तियां, उन्हें जुटाने को लालायित,
सेठ- साहूकार-ठेकेदार
स्वर्ग मिलने के आश्वासनों के 
दिव्य अहसास के साथ,  
एक वोट डालने से नहीं हिलती 
दिल्ली की सल्तनत
यूं दिल बहलाने के लिए 
अच्छा ख्याल है यह भी। 
सरकार बनाने-बचाने के लिए 
कई बाहुबली, कई-कई बिचौलिये पर्दे के पीछे की सौदेबाजी
आंकड़ों की हेराफेरी
भेड़ों को बांधने में सक्षम रस्सियां, 
संचार क्रांति के इस वक्त में अपने पक्ष में प्रचार-प्रसार,
चैनलों पर माहौल बनाना.
ब्लैकमेलिंग के तमाम उपकरण
ढेरों प्रलोभन। 
बन ही जाती है सहमति 
हो ही जाती है आकाशवाणी
किसी नाम की
और फूलों की वर्षा भी स्वर्ग से, 
जनतंत्र की विजय का
यह समारंभ
सम्पन्न होता है
ठगी सी जनता के लिए।  

अपने हस्तिनापुरों में-6   
 
कैद है हम 
अपने हस्तिनापुरों में बगैर जंजीरों के
कारागार की दीवारों से बाहर, 
समर्थ, चेतन विवेकवान होने के बावजूद, 
देख रहे हैं,
मनुष्यत्व के विरोध में षडयंत्रों का अंतहीन सिलसिला, 
मौन ओढ़ कर
विध्वंसों का इंतजार, रगों में बहता खून 
जम सा गया है, 
अपमान और बदसलूकी सह कर भी नहीं तनती मुठ्ठियां,  
शस्त्र जैसे बन गए अलंकार मात्र, 
जानते हुए भी कि बस एक आवाज भर शेष है 
तमाम मुर्दों में प्राण फूंकने के लिए,  
फिर भी मुंह से नहीं निकलती बगावत की आवाज, 
कौन सा वह मोह है? 
किस बात का इंतजार है? 
कौन सी वे प्रतिज्ञाएं तन-मन-मस्तिष्क को जकड़े हुए 
पत्थर सी लदी सीने पर,  क्या हम 
अपने आप से मुक्त नहीं हो सकते? 
 

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