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तुम्हारी आवाज का एक टुकड़ा

फाल्गुनी

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ND
* उत्ताप दोपहरी की
ठहरी हुई तपिश में
तुम्हारी आवाज का एक टुकड़ा
शहद की ठंडी बूँद सा
घुलता रहा मुझमें शाम तक।

टूट-टूट कर बिखरते अनारों-सी
तुम्हारी आतिशी हँसी
मेरे मन की कच्ची धरा पर
टप-टप बिखरती रही,
मैं ढूँढती रही तुम्हें
बुझे हुए अवशेषों में,
झुलसती रही रात भर।

तुम्हारी आवाज का टुकड़ा भी
घुलने के बाद अटकता रहा,
फँसता रहा।
बेरहम बादल
बेमौसम बजता रहा,
बिन बरसे हँसता रहा।

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