चुप्पी अर्थभरी
यों बैठा हूं चुपचाप
मगर इस चुप्पी में
न जाने क्या-क्या
तैर जाते हैं
खुशनुमा नींद में
सपनों की तरह।
कभी उड़ जाता हूं
नीले आकाश में
पर मारते पंछियों की तरह
कभी पहन लेता हूं
तितलियों के कपड़े
कभी ढरक जाता हूं
कमल-पत्र पर
ओंस की बूंदों की तरह
कभी उछलती हैं बूंदें
नदी-झीलों के लहराते
पानी की तरह
कभी टकराती भी हैं लहरें
समन्दरी रात के सन्नाटे में
चट्टानों से।
कभी थिरकते हैं पांव
हवा में झूमती डालियों की तरह
कभी कौंधती हैं स्मृतियां
घने बादलों में
बिजलियों की तरह
कभी बहता हूं झरनों सा
रजत धवल धुआंधार में
और जीवन भी तरह
टेढ़े-मेढ़े वक्रीले रास्तों में
झूमते हुए
कहीं ठिठक जाता हूं
चट्टानों में
कोई रास्ता खोजते हुए
भंवर से बाहर निकलकर
शिप्र गति बहते हुए।
कभी फटता है
भीतर का ज्वालामुखी
भरे हुए लावों से
कभी चोट खाए शब्दों की तरह
आती है सुनामी
बंधी मर्यादाओं को
लीलते हुए।
कभी यह लीला
चुप्पी के भीतर
उतरती है नाट्यम की तरह
कभी गरजती है
विषमताजनित क्रांति की तरह।
कभी वह फूटती है कोमलता में
कठोर तनों में
नई पत्तियों की तरह
और कभी सूखे पत्तों की तरह
गिरकर खड़खड़ाती है।
कभी तैरते हैं बादल
चांदनी रात में
हंसी के फूलों की तरह
कभी घिर जाता है
समूचा आकाश
मन के अवसाद की तरह।
कभी सोखता है दरिया को
सूरज की किरणों की तरह
कभी बरस जाता है
जलती धरती पर
बरसाती करुणा की तरह।
न जाने तब उतर जाती है स्याही
शब्दों में
तितलियां रंग भर देती हैं
आकाश समन्दर हो जाता है
बादल घिर आते हैं
दुर्वा बिखेर देती है
हरियाली जिजीविषा।
थिरकते हैं रंग जीवन के
कभी क्रांति के
कभी शांति के
कभी बेदम होते
किसान की व्यथा को
बदल देते हैं
आक्रोश की सुनामी में
पीड़ाओं के ज्वार में
पिघलाते ज्वालामुखियों में।
तटस्थ नहीं है यह चुप्पी
सरोकार हैं उसके
प्रकृति में
जीवन में
परिवर्तन में।
यह चुप्पी जब रचती है
टंकार भरे शब्दों को
रंगों-रेखाओं को
आंदोलन की
आग और हवाओं को
तो नदियां रास्ते बदल देती हैं
लहरें हिला देती हैं
ठहरी-पिचकी
जड़ता की चट्टानों को।
और फिर रचती है
रेती के नए स्तूप
तनते हुए पहाड़ों में।
इस चुप्पी में
पसरा है मेरा विराट
आकृति पाते हुए
शब्दों में
रंगों-रेखाओं में।