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बी.एल. आच्छा की कविताएं

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चुप्प‍ी अर्थभर

यों बैठा हूं चुपचाप
मगर इस चुप्पी में
न जाने क्या-क्या
तैर जाते हैं
खुशनुमा नींद में
सपनों की तरह।

कभी उड़ जाता हूं
नीले आकाश में
पर मारते पंछियों की तरह
कभी पहन लेता हूं
ति‍तलियों के कपड़े
कभी ढरक जाता हूं
कमल-पत्र पर
ओंस की बूंदों की तरह

कभी उछलती हैं बूंदें
नदी-झीलों के लहराते
पानी की तरह
कभी टकराती भी हैं लहरें
समन्दरी रात के सन्नाटे में
चट्टानों से।
कभी थिरकते हैं पांव
हवा में झूमती डालियों की तरह
कभी कौंधती हैं स्मृतियां
घने बादलों में
बिजलियों की तरह
कभी बहता हूं झरनों सा
रजत धवल धुआंधार में
और जीवन भी तरह
टेढ़े-मेढ़े वक्रीले रास्तों में
झूमते हुए
कहीं ठिठक जाता हूं
चट्टानों में
कोई रास्ता खोजते हुए
भंवर से बाहर निकलकर
शिप्र गति बहते हुए।

कभी फटता है
भीतर का ज्वालामुखी
भरे हुए लावों से
कभी चोट खाए शब्दों की तरह
आती है सुनामी
बंधी मर्यादाओं को
लीलते हुए।
कभी यह लीला
चुप्पी के भीतर
उतरती है नाट्यम की तरह
कभी गरजती है
विषमताजनित क्रांति की तरह।
कभी वह फूटती है कोमलता में
कठोर तनों में
नई पत्तियों की तरह
और कभी सूखे पत्तों की तरह
गिरकर खड़खड़ाती है।

कभी तैरते हैं बादल
चांदनी रात में
हंसी के फूलों की तरह
कभी घिर जाता है
समूचा आकाश
मन के अवसाद की तरह।

कभी सोखता है दरिया को
सूरज की किरणों की तरह
कभी बरस जाता है
जलती धरती पर
बरसाती करुणा की तरह।
न जाने तब उतर जाती है स्याही
शब्दों में
ति‍तलियां रंग भर देती हैं
आकाश समन्दर हो जाता है
बादल घिर आते हैं
दुर्वा बिखेर देती है
हरियाली जिजीविषा।
थिरकते हैं रंग जीवन के
कभी क्रांति के
कभी शांति के
कभी बेदम होते
किसान की व्यथा को
बदल देते हैं
आक्रोश की सुनामी में
पीड़ाओं के ज्वार में
पिघलाते ज्वालामुखियों में।
तटस्थ नहीं है यह चुप्पी
सरोकार हैं उसके
प्रकृति में
जीवन में
परिवर्तन में।
यह चुप्पी जब रचती है
टंकार भरे शब्दों को
रंगों-रेखाओं को
आंदोलन की
आग और हवाओं को
तो नदियां रास्ते बदल देती हैं
लहरें हिला देती हैं
ठहरी-पिचकी
जड़ता की चट्टानों को।
और फिर रचती है
रेती के नए स्तूप
तनते हुए पहाड़ों में।
इस चुप्पी में
पसरा है ‍मेरा विराट
आकृति पाते हुए
शब्दों में
रंगों-रेखाओं में।


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संस्कारों की परखनली मे

हो जाएगी मुक्ति
पल्लवित होगा वंश वृक्ष
मिल जाएंगे कंधे
महाप्रयाण में
सदियों का विश्वास
घना है
संस्कारों की परखनली में।

आतुर है जानने को
लक्ष्मी का लालच दे
भ्रूण के लक्षण को
भविष्यफल की तरह
सोनोग्राफी में।

जैसे सिक्का उछलने पर
बिन खेले ही
हो जाता होगा
जीवन-विकेटों का निर्णय।

लटक जाते हैं चेहरे
पता चलते ही
लगता है जैसे कन्या के आते ही
घट जाएगा
जीवन का दु:खान्त।
यों कन्या-पूजन में
लक्ष्मी से
पा जाते हैं सुखान्त।

घने अवसादों में
कहां सुन पाते हैं
उस वाणी को
जो कंस के हाथों से उछलकर
कर गई थी शक्तिपात
थर्रा गया था
सत्ता का आकाश
उस वाणी से।

शक्ति की पूजा में
कहां होता है बोध
कि
हार जाते हैं
देवता सारे
तो शक्ति ही
फेंकती है पाशुपत को
‍‍त्रिपुर वध के लिए।

सदियों के विश्वासों में
मुक्ति के सपने हैं
जैसे हर बेटा
उठा लेगा गोवर्धन
नाथेगा कालिया को।

कैसा लगता होगा
उस बेटे को
पता चलता है
पिता है कंस
बहिन का हत्यारा

रहस्य की परतें
अनखुली भी रह जाएं
तब भी टूट जाता है मिथ
जब पंखों में गति आते ही
उड़ जाता है युगल
अपने घर से अपार्टमेंट में
पीले हाथों की खु‍शियां
कितनी पीली पड़ जाती हैं
पसर जाता है सूनापन
सपनों का रेतीलापन
लटक जाता है ताले की तरह
उम्र के चौथेपन में।

उस सूनेपन में
आती है बेटी
नाती-नातिन की हरी डालियां
संग लिए
झुर्रियों में भरती खुशियां
जैसे कहती हों
डाली हैं हम इसी पेड़ की
खिले चाहे भाई या बहन
पेड़ कहां करवाते हैं सोनोग्राफी
बस इनका खिलना ही है काफी।


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घास

घास जानती है
घोड़ा उससे
दोस्ती करेगा
तो खाएगा क्या?

वह भी उन्हें
चरने देती है
जनता की तरह
मगर घोड़े
जब खाते ही नहीं
खूंदने लगते हैं
तो छलनी हो जाती है छाती
सूखने भी लगती है
पर छोड़ती नहीं
जिजीविषा के तेवर
आबोहवा पाते ही
फिर उग जाती है घास
किले की बुर्जों
और
कंगूरों पर
उखाड़ती हुई
सुल्तानों के ऐशगाह
बदल देत‍ी है
अहमीली रोशनियों को
चमगादड़ों के कोटरों में।
घास बनी ही इसलिए
कि घोड़े उसे खाएं
मगर खूंदे नहीं
उसकी जिजीविषा को
वर्ना पहुंच जाती है
किलों-कंगूरों पर
जनता की तरह।




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चैनल बदलते-बदलते

चैनल बदलते-बदलते
बदलाव ही हो जाता है
रिमोट
एक अनथक
यांत्रिक प्रक्रिया।
इतने-इतने रंग
कि सब बेरंग
इतने-इतने राग
कि अंतत: विराग
इतने-इतने स्वाद
कि सब बेस्वाद
इतने-इतने अर्थ
कि सब व्यर्थ्य।
गति से अतिक्रांत
सतरंगी पंखे की तरह
इन्द्रधनुषी छटा खोकर
हो जाता है एकरंग
महज सफेद
जैसे भविष्य के
भूमंडलीकृत विश्व का
इकहरा चेहरा।

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