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काव्य संसार : चांद फिर मुस्कुराया

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राकेशधर द्विवेदी

चांद फिर मुस्कुराया
शायद करवा चौथ या
ईद का त्योहार आया


 
 
साजन ने सजनी के
कान में धीरे से बुदबुदाया
 
चांद आज बादलों की
ओट में छुप आया
शायद मेरी गोद में
लेटी हुई चांद से वह है शरमाया
 
मोरों ने कुछ नया
गीत है गाया
कोयल ने मधुर संगीत सुनाया
 
भौंरे नहीं देखते हैं
फूल चुनने में कि फूल
लगा है हिन्दू के घर में या मुसलमान के
 
परिंदे भी नहीं देखते
अपने नीड़ को बनाते समय
इस बात को
कि घर किसी हिन्दू का है
या मुसलमान का
 
लेकिन इस छोटी सी
बात को 'बुद्धिमान' मानव
क्यों नहीं समझ पाया
 
सदियों से उसने क्यों
जाति-‍पाति व धर्म के नाम पर
खून बहाया
 
क्या वह चांद से, भौंरों से
परिंदों से, कोयल से
कुछ नहीं ‍सीख पाया?
 

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