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उफ्फ़! गर्मी के ये क़हर...

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डॉ. रामकृष्ण सिंगी

क्रुद्ध सूरज के तेवर सुर्ख लाल।
नीला गगन भी बन गया है तप्त तवा।
पवन जो सहलाती रहती थी हमें,
सूरज के उग्र ताप को दे रही हवा।
चर-अचर सब हुए बेदम, बदहवास,
प्रकृति के इस निर्दय, क्रुद्ध स्वरूप से।
फिजाओं की इस निहायत बेरुखी से,
बदले हुए निर्मोही-से रूप से।।
 
छुप गए सारे परिन्दे,
पेड़ मुंह लटकाए खड़े।
रात भी फुफकारती सी लग रही, 
तारे मानो नभ में अंगारे जड़े।
छांव खुद भी जा छुपी अमराई में, 
जां बचाकर चिलचिलाती धूप से।।
 
फिर भी चल रहा है घर-संसार सब,
मनुज के अजेय साहस, जिद्द से।
निडर, सिर पर मंडराते, लू फुफकारते,
लाल आंखों वाले ग्रीष्मी गिद्ध से।
डिगा पाई हौसला कब हमारा,
प्रकृति की बेदर्द, घातक करवटें।
हम सदा विजयी हुए हर हाल में ,
अपनी जिजीविषा अनन्त, अनूप से।।


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