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हिन्दी कविता : विडम्बना...

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राकेशधर द्विवेदी

सिक्स लेन की सड़कों के बीच से
बड़ी-बड़ी आयातित कारों के बीच से


 
जब एक असहाय बचपन रोटी चिल्लाता है
फाइव स्टार होटल से निकला व्यक्ति
जिसे समझ नहीं पाता है
तब सामने खड़ा कामरेड फुसफुसाता है
यह विडम्बना है।
 
बर्गर और पिज्जा हटों के विज्ञापन के बीच में
'मॉल' और बहुमं‍जिलीय आवासीय कॉम्प्लेक्सों के बीच
जब कहीं एक छोटी सी खबर छपती है
महाराष्ट्र में भूख से तड़पकर एक किसान की मृत्यु होती है
जिसे पढ़कर 'ब‍ुद्धिजीवी' बुदबुदाता है
यह विडम्बना‍ है।
 
लेकिन मेरे नौजवान दोस्तों
होती रहेंगी यह विडम्बना‍एं यूं ही
बिकते रहेंगे यह बचपन हूं ही
जब तक तुम में चिल्लाकर
कहने का साहस न होगा
झूठ को झूठ और सच को सच।
 
 

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