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हिन्दी कविता : नींव की ईंट

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राकेशधर द्विवेदी

मैं नींव की ईंट हूं
दबी हुई पड़ी हुई


 
कराहती बिलखती
कुछ दर्दभरे नगमे सुनाती
 
मेरे ऊपर चढ़ा हुआ है एक कंगूरा
मोटा बेडौल अभिमानी और अधूरा
देखता है मुझे हंस-हंसकर
जैसे जीतकर आया हो वर्ल्ड कप को
 
दिखाकर मुझे बोलता है व्यंग्य से
'तू' है निरर्थक निस्वाद निष्फल सी
मैंने कहा ऐ कंगूरे तू न इतना मुस्करा
झूठे घमंड कर तू न इतना इतरा
 
तू ही प्रतीक मल्टीनेशनल संप्रदाय का
बना हुआ है परजीवी निर्धन समुदाय का
एक दिन तू गिरेगा भरभराकर
जिस दिन मैं पलटूंगी अपनी करवट। 

 

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