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हिन्दी कविता : पीपल की छांव से...

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राकेशधर द्विवेदी

मेरे घर के सामने एक
पीपल का पेड़ था


 
जो रोज गीत नया गुनगुनाता था
कुछ नई कहानी सुनाता था
 
मां रोज जला देती थी ‍दीया
उसे बूढ़े पीपल के पेड़ के नीचे
इस विश्वास से कि बाधाएं दूर रहेंगी
 
रोज चढ़ाती थी जल उस पेड़ पर
कि हम और हमारी संतति सुरक्षित रहेंगे
बांध देती थी कलेवे उस पेड़ के
चारों तरफ कि सर्वशक्तिमान रक्षा करेंगे हमारी
 
हल्ला मचाते थे तमाम पक्षी भी
हमें देखकर जैसे वे भी हमारी प्रार्थना
में शरीक हो रहे हैं
गिलहरी बार-बार हमें देखकर मुस्कराती थी
फिर फुदककर पेड़ पर ऊपर चढ़ जाती थी
 
लेकिन धीरे-धीरे ये सब
एक कहानी में तब्दील हो गया
चिड़ियों का शोर थम-सा गया
गिलहरियों का चलना ठहर-सा गया
 
लोकग‍ीत जो पेड़ के नीचे सुनाई देते थे
गुम से हो गए
जो स्वर प्रार्थना के गीत गाते थे
मौन से हो गए
 
क्योंकि शायद मानव का सौंदर्यबोध
अब परिवर्तित हो गया है
उसे दिखने लगा है सौंदर्य
मनीप्लांट में, कांटेदार कैक्टस
और उन शैवालों में
जो जीवन दे पाने में असमर्थ हैं
 
संभवत: तथाकथित मानव इस युग में
कृत्रिमता को ढो रहा है
और उसका सौंदर्य बोध
भौतिकता के पांवों तले दबा
कहीं सो रहा है।


 
 
 

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