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मां पर कविता : एक दर्पण ईश्वर का...

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-अमिय शुक्ल
 
सुन्दर निश्छल मन-सा,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है।
 
कभी धूप-सी कड़क,
कभी आंचल नरम-सा,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है। 
 
एक सख्त से तने-सी कभी डांटते हुए, 
फलों से लदी डाली-सी कभी समझते हुए,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है।
 
कभी कानों को मोड़ते हुए,
कभी सर पर हाथ सहलाते हुए,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है।
 
हार में हौसला बढ़ाते हुए,
तो जीत में सबसे ज्यादा खुशी मनाते हुए,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है।
 
खुद भगवान भी धरती पर अवतार, 
बार-बार लेता है,
क्योंकि मां का रूप कुछ निराला ही होता है।

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