Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

नारीवादी होना मेरी मजबूरी है : सुधा अरोड़ा

विशेष बातचीत

हमें फॉलो करें नारीवादी होना मेरी मजबूरी है : सुधा अरोड़ा

स्मृति आदित्य

ND
सुधा अरोड़ा, कम लिखतीं हैं मगर जब लिखती हैं तब ऐसा लिखती है कि पाठक के मानस में उसकी छवि देर तक बनी रहती है और दिल की गहराइयों तक पहुँचती है। वे वर्जनाओं से परे सीधा और सच्चा लेखन करती हैं। पेश है उनसे विशेष बातचीत :

1 सुधाजी, आपके प्रशंसक जानते हैं कि आपकी पहली कहानी एक सेंटीमेंटल डायरी की मौत अनायास ही जन्मीं थी। तब आपकी उम्र मात्र 17 वर्ष थीं। तब से लेकर अब तक के स्थापित सफर को आप किस तरह परिभाषित करेंगी?
मेरे ख्याल से जिंदगी लेखन से ज्यादा बड़ी होती है। कलम की स्याही को धूप में सूखने के लिए रख दिया था। लंबे समय के बाद लिखा तो नारीवादी होने का तमगा मिला लेकिन नारीवादी में अपनी मर्जी से नहीं बनी बनी। इतने सालों खुद ने और अपने बीच की महिलाओं को बहुत नजदीक से दर्द सहते देखा है। इसलिए नारीवादी मुझे समाज ने बनाया है। यह मेरी मजबूरी है।

2 संवेदनशीलता के स्तर महिला आरक्षण का सवाल आपको कितना परेशान करता है?
महिला आरक्षण बिल जितना इस संसद में अपमानित हुआ उतना कभी नहीं हुआ। क्यों 33 प्रतिशत का विरोध हो रहा है, इसे समझने की जरूरत है क्योंकि 33 प्रतिशत में एक कोरम पूरा होता है। और कोरम कोई भी बिल पास करवा सकता है। दोहरापन देखिए कि 30 प्रतिशत के लिए तैयार हैं पर 33 के लिए नहीं? और मुलायम की टिप्पणी का मैं इन अर्थों में स्वागत करती हूँ कि इससे अच्छे और बेहतर तरीके से कोई नेता एक्सपोज हो ही नहीं सकता था। कोई पूछे उनसे जाकर कि अपनी बहू डिंपल को राज बब्बर के विरुद्ध इसलिए खड़ा किया था कि संसद में जाकर सीटी सुनें?

3 लिव इन रिलेशन जैसे फैसले महिला स्वतंत्रता को पोषित करते हैं या शोषण का ही कोई अन्य मार्ग खोलते हैं?
हर युग में था यह और हर युग में रहेगा। सवाल यह है कि परिवार पर आँच नहीं आनी चाहिए। बच्चों की मासूमियत प्रभावित नहीं होनी चाहिए। नारी की यह स्वतंत्रता उसे खुद परिभाषित करने दीजिए।

4 आपने 1981 से लेकर 1993 तक कुछ नहीं लिखा, क्या हम उम्मीद करें कि उस दौर का अवरूद्ध लेखन अब सामने आएगा?
इतने दिनों जो नहीं लिखा वही तो विस्फोट के रूप में सामने आया, अब भी बहुत कुछ ऐसा है जो आना है। जब भी लिखूँगी नारी अस्मिता का सवाल मेरे जेहन में हमेशा रहेगा। दबाव ही लेखन के लिए सबसे उपयुक्त वजह होती है।

5 स्त्री विमर्श जैसा विषय जिस स्तर की बहस चाहता है वह नहीं हो पा रही है, इस भटकाव और अटकाव के लिए आप किसे जिम्मेदार मानती हैं?
इसके लिए वे बौद्धिक स्त्रीवादी जिम्मेदार हैं जिनके सिद्धांत कुछ और हैं और आचरण कुछ और। मैंने हमेशा अपने कॉलम में वही लिखा जो खुद किया भी। स्त्री विमर्श विषय के भटकाव के लिए पूरी तरह से तथाकथित बुद्धिजीवी जिम्मेदार हैं।

सुधा अरोड़ा : परिचय
जन्म : अविभाजित लाहौर (अब पकिस्तान) में 4 अक्टूबर 1946
प्रमुख कहानी संग्रह : बगैर तराशे हुए, युद्धविराम, महानगर की मैथिली, काला शुक्रवार, काँसे का गिलास, रहोगी तुम वही
उपन्यास :यहीं कहीं तथा घर (2010)
स्त्री विमर्श : आम औरत : जिंदा सवाल,एक औरत की नोटबुक (2010), औरत की दुनिया : जंग जारी है…आत्मसंघर्ष कथाएँ (शीघ्र प्रकाश्य)
सम्पादन : औरत की कहानी : श्रृंखला एक तथा दो, भारतीय कलाकारों के आत्मकथ्यों के दो संकलन, ‘दहलीज को लाँघते हुए’ और ‘पंखों की उड़ान’, मन्नू भंडारी : सृजन के शिखर : खंड एक
सम्मान : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा 1978 में विशेष पुरस्कार से सम्मानित, सन् 2008 का साहित्य क्षेत्र का भारत निर्माण सम्मान तथा अन्य पुरस्कार।
अनुवाद : कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी तथा ताजिकी भाषाओं में अनूदित
टेलीफिल्म : ‘युद्धविराम, दहलीज़ पर संवाद, इतिहास दोहराता है, तथा जानकीनामा पर दूरदर्शन द्वारा लघु फ़िल्में निर्मित।
स्तंभ लेखन : पाक्षिक ‘सारिका’ में ‘आम आदमी : जिन्दा सवाल’ का नियमित लेखन, जनसत्ता में साप्ताहिक कॉलम ‘वामा’ महिलाओं के बीच लोकप्रिय, पत्रिका ‘कथादेश’ में औरत की दुनिया ‘स्तंभ ने अपनी विशेष पहचान बनाई।
संप्रति : भारतीय भाषाओं के पुस्तक केंद्र ‘वसुंधरा’ की मानद निदेशक।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi