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जो दमदार होगा, वही टिकेगा !

शास्त्रीय गायक पुष्कर लेले से रवीन्द्र व्यास की बातचीत

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रवींद्र व्यास

, मंगलवार, 30 जून 2009 (14:23 IST)
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वे युवा हैं। हैंडसम हैं। मखमली आवाज के धनी हैं। चाहते तो इंजीनियरिंग में कैरियर बना सकते थे, एकदम चमकीला। लेकिन यह राह बीच में ही छोड़ी और सुर की उजली राह पकड़ी। कैंसर से पिता की मृत्यु हुई तो माँ ने हिम्मत बढा़ई। धीरे-धीरे सारेगामापा से होते हुए आलाप लिया और विलंबित से फिर द्रुत पर। रागों को जाना-समझा और गुरुओं की छाया में बैठकर गाया। इस तरह जीवन सुरीला बना लिया। यह कहानी है पुणे के युवा शास्त्रीय गायक पुष्कर लेले की।

अगले बाल दिवस पर वे तीस के हो जाएँगे। उनकी इस कहानी में भी राग की तरह उतार-चढ़ाव हैं। कोमल और तीव्र स्वर हैं। लेकिन इस बातचीत के वक्त उनके दिल-दिमाग में कोमल और मधुर स्वर हैं। मैंने उनसे कहा कि हम सुरीले फिल्म और फिल्मी संगीत पर बात करेंगे, शास्त्रीय संगीत पर नहीं। वे राजी हुए और बहने लगे। वे इंदौर में श्रुति-संवाद संस्था के बुलावे पर आए थे।

वे कहते हैं कि ए.आर. रहमान का संगीत दिल को छूता है। उसमें गजब की मेलोडी है। वह नदियों और झरनों की तरह बहता संगीत है। खासकर रोजा और बाम्बे का गींत-संगीत। स्लमडॉग मिलिनियेर का संगीत रिदम बेस्ड है। उसमें रिदम ज्यादा है मेलोडी कम है। इस फिल्म के लिए उन्हें ऑस्कर मिला लेकिन इसका संगीत मुझे इतना पसंद नहीं।

ऑस्कर के अपने अलग मापदंड होते हैं। उनका पहले का संगीत स्लमडॉग से कई गुना बेहतर है। जब से रहमान को इंटरनेशनल एक्सपोजर मिला है उनका संगीत मेलोडी से रिदम की तरफ झुका है। इस रिदम पर युवाओं के पैर आसानी से थिरकने लगते हैं। उसकी बीट्स युवाओं को लुभाती है।

पुणे में जो उनकी लाइव कंसर्ट हुए इसमें भी उन्होंने वे गीत प्रस्तुत किए जिसमें रिदम और बीट्स थी। विजय सरदेशमुख और सत्यशील देशपांडे से संगीत की तालीम हासिल करने वाले पुष्कर कहते हैं एक अच्छी बात ये हुई है कि संगीत में सारी हदें टूट गई हैं। अब कोई घेरेबंदी नहीं है।

रहमान ने कई तरह के संगीत की खूबियों का इस्तेमाल किया है। वेस्टर्न से लेकर इंडियन क्लासिकल और अरबी संगीत तक का इस्तेमाल किया है। शास्त्रीय संगीत में कट्टरपन कम हुआ है और घरानेदार गायकी बदल रही है। पहले तो इतनी कट्टरता थी कि एक घराने का उस्ताद अपने शिष्यों को दूसरे घराने के उस्ताद का गायन सुनने नहीं देता था।

फिल्मों में देखिए कि स्कूल खत्म हो रहे हैं। श्याम बेनेगल ने अंकुर-मंथन से शुरूआत की थी। फिर उन्होंने जुबैदा और वेलकम टू सज्जनपुर बनाई। अनुराग कश्यप, अपर्णा सेन और मधुर भंडारकर जैसे फिल्मकारों ने कला और व्यावसायिक फिल्मों के बीच की विभाजन रेखा को खत्म कर दिया है।

अभिनय के क्षेत्र से उदाहरण लेना चाहें तो युवा अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा कितना अच्छा अभिनय करती हैं। उनमें कितनी सहजता है, स्पांटेनिटी है। वे आजा नच ले जैसी फिल्मों में भी अच्छा अभिनय करती हैं और पेज थ्री में। लाइफ इन मेट्रो में भी और लागा चुनरी में दाग में भी।

चित्रकारी में भी यह देखा जा सकता है। तो अब सारी हदबंदिया टूट रही हैं। यह एक तरह से कलाओं का लोकतांत्रिकरण है। यह ज्यादा खुला और उदास समय है। ये सब अभिव्यक्ति के अलग अलग माध्यम हैं लेकिन इनके पीछे जो असल कलाकारी है वह तो एक ही है ना। यानी अपने को बेहतर से बेहतर ढंग से अभिव्यक्त करना।

पहले के उस्ताद कहते हैं कि हमारे जमाने का संगीत कितना उम्दा था। हर समय के उस्ताद यह कहते हैं कि हमारे जमाने का संगीत कितना अच्छा था। यह भी एक चलन है।

पुणे यूनिवर्सिटी से वोकल म्यूजिक में एमए कर चुके और देश के तमाम संगीत सम्मेलनों में प्रस्तुतियाँ दे चुके पुष्कर कहते हैं समय के साथ संगीत बदलता है, उसके सुनने वाले बदलते हैं। जो दमदार होगा वह टिकेगा। हिमेश रेशमिया आए, आए और छा गए। आज उनका कोई नामलेवा नहीं।

दौर आते रहते हैं, संगीत बदलता रहता है, प्रयोग होते रहते हैं। और उसे पसंद -नापसंद किया जाता रहा है। फिल्म संगीत ही कितना बदल गया है। आज राहत फतेह अली खाँ और कैलाश खेर कितना अच्छा गा रहे हैं। प्रसून जोशी जैसे गीतकारों की बदौलत गीतों में कविता आ गई है। उसे पसंद भी किया जा रहा है।

गायन के लिए रामानुजम अवार्ड, फिरोदिया अवार्ड, सुधासिंधु अवार्ड, सुर मणि अवार्ड और सनातन संगीत पुरस्कार से से सम्मानित इस युवा गायक का मानना है कि अब तो रिएलिटी शोज के जरिये रातों-रात बच्चों से लेकर युवा तक शिखर पर पहुँच जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि वहाँ पहुँचकर कौन, कितनी देर टिकता है।

संगीत की दुनिया बहुत बड़ी दुनिया है। रिएलिटी शोज उसका एक बहुत ही छोटा सा हिस्सा हैं लेकिन इसके जरिये बहुत बड़ी संख्या में टैलेंट सामने आ रहा है। पहले तो कई प्रतिभाशाली कलाकार गुमनामी के अंधेरे में ही मर जाया करते थे।

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